समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली याचिका पर 10 जुलाई से सुनवाई
नई दिल्ली, 07 जुलाई (हि.स.)। समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच 10 जुलाई से सुनवाई करेगा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली इस संविधान बेंच में जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस इंदू मल्होत्रा शामिल हैं।
धारा 377 को निरस्त करने के खिलाफ आईआईटी के करीब 20 पूर्व छात्रों ने भी याचिका दायर की है। इन पूर्व छात्रों में कुछ वैज्ञानिक, कुछ उद्यमी और कुछ शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं।
एक याचिका हमसफर ट्रस्ट की ओर से अशोक राव कवि और दूसरी याचिका आरिफ जफर ने दायर की है। याचिका में कहा गया है कि धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोषपूर्ण है। याचिका में कहा गया है कि निजता के अधिकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट के धारा 377 के फैसले को उलट दिया गया है। याचिका में हाल के हदिया मामले पर दिए गए फैसले का जिक्र किया गया है जिसमें शादीशुदा या गैर शादीशुदा लोगों को अपना पार्टनर चुनने का अधिकार दिया गया है।
पिछले 23 अप्रैल को द ललित सूरी हॉस्पिटैलिटी ग्रुप के कार्यकारी निदेशक केशव सूरी ने भी याचिका दायर की थी।
केशव सूरी ने अपनी याचिका में सेक्सुअल पसंद को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक अधिकार घोषित करने की मांग की है। अपनी याचिका में उन्होंने मांग की है कि आपसी सहमति से दो समलैंगिक वयस्कों के बीच यौन संबंध से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होने के प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट समाप्त करे। सूरी ने वकील मुकुल रोहतगी के माध्यम से यह याचिका दायर की है। याचिका में कहा गया है कि आईपीसी की धारा 377 गैर कानूनी है।
सूरी ने अपनी याचिका में कहा है कि वह आपसी सहमति से पिछले एक दशक से अपने एक वयस्क सहयोगी के साथ रह रहे हैं और वे देश के समलैंगिक, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर समुदाय के अंग हैं। सूरी ने अपनी याचिका में कहा है कि अपनी यौनिक पसंद की वजह से उन्हें भेदभाव झेलना पड़ रहा है।
इस बारे में नवतेज सिंह की भी एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। याचिका में कहा गया है कि देश में भारी संख्या में लोगों के साथ भेदभाव नहीं होने दिया जा सकता और उनको उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता और समलैंगिकों के अपराधीकरण का आधार कलंक है| इसी कलंक को देश की विधि व्यवस्था आगे बढ़ा रही है।
सूरी का यह कहना है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय केबहिष्कार का मतलब उनको नौकरी और संपत्ति के निर्माण से दूर रखना है जो उनके स्वास्थ्य के साथ-साथ जीडीपी को प्रभावित करता है। विश्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि एलजीबीटी समुदाय को आर्थिक गतिविधियों से दूर रखने की कीमत जीडीपी में 0.1 से 1.7 प्रतिशत की कमी है और ऑफिस में काम करने वाले 56 प्रतिशत एलजीबीटी को भेदभाव का सामना करना पड़ता है।