विख्यात कवि भगवती वर्मा का पोता कानपुर में गुमनाम जिंदगी जीने को मजबूर !
कानपुर, 16 सितम्बर : भगवती चरण वर्मा ने पहला उपन्यास पतन (1928) और आखिरी उपन्यास सबहीं नचावत राम गोसाईं (1970) लिखा। जिसके चलते वर्मा का हिन्दी साहित्य में नाम विख्यात हो गया। लेकिन आज उनका पोता कानपुर में गुमनाम जिंदगी जी रहा है। यह अलग बात है कि उसकी मां की मौत के बाद कुछ लोग जानने लगे हैं कि यह कवि वर्मा का पोता है तो कवि के जन्म दिवस व हिन्दी दिवस पर उसके घर पहुंच जाते हैं।
कानपुर जनपद मुख्यालय से करीब पचास किलोमीटर दूर बिल्हौर में एक मुस्लिम परिवार के आश्रय में भगवती चरण वर्मा के पौत्र रवि वर्मा किसी तरह जीवन गुजार रहें है। रवि के पिता एयरफोर्स पायलट चतुर्भुज प्रताप वर्मा भगवती चरण वर्मा के तीसरे बेटे थे। जिनका विवाह कत्थक नृत्यांगना कनुप्रिया मंजरी वर्मा से हुआ था। अपनी दर्द भरी दांस्ता बयां करते हुए रवि वर्मा ने बताया कि मेरी मां और पिता का विवाह 3 जून, 1962 में हुआ। मेरी मां आईटी कॉलेज, लखनऊ यूनिवर्सिटी की पढ़ी हुई थी। विवाह से पहले वो लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट्स में थी, चूंकि मेरे पिता पायलट थे, पहले वो इंडियन एयरफोर्स में थे बाद में उन्होंने इंडियन एयरलाइन्स ज्वाइन कर ली। मां भी बाद में प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना बनी। इस दौरान दादा राज्यसभा के सदस्य बन गये और हम लोग 1975 में कोलकाता से दादा के पास दिल्ली आ गए।
यहां पर देश के जाने माने साहित्यकारों को बराबर आना जाना लगा रहता था। पिता की राजीव गांधी से दोस्ती थी और उनका बराबर फोन आता था। लेकिन इसी दौरान 1991 में बहन सोनिया की एक कार हादसे में मौत हो गई। जिसके सदमे से पिता की भी मौत हो गई और इधर दादा भी दुनिया से चल बसे। इसके बाद मां मुझे लेकर लखनऊ चली आई। लखनऊ में मेरे दादा का मकान है लेकिन हमारे ताऊ और चाचा ने न तो हमारी कोई मदद की न ही हमें घर में जगह दी। जब कोई आसरा नहीं बचा तो हम अपने पिता के बचपन के दोस्त तारिक इब्राहिम, जो कानपुर में रहते थे उनके पास गए। तारिक ने जब हमारा हाल देखा तो बेचैन हो गए और मां को हर तरह से मदद का दिलासा दिया। फिर यहीं से बिल्हौर उनके साथ चले आये। यहां पर मैं खुद पेंटिंग का काम कर मां की देखभाल करने लगा।
मुस्लिम समझते थे यहां के लोग
रवि वर्मा ने बताया कि जब लखनऊ से बिल्हौर आये तो मां ने पिता के दोस्त से वचन लिया था कि कभी यह नहीं पता चलना चाहिये कि मैं कवि भगवती की बहू हूं। लेकिन एक जून 2012 में मां की मौत के बाद अंतिम संस्कार को लेकर पिता के दोस्त अपना वचन तोड़ दिया और मोहल्ले वालों को बता दिया कि यह लोग हमारे रिश्तेदार नहीं है और कवि वर्मा की बहू हैं। इसके बाद हिन्दू रीति रिवाज के अनुसार मां का अंतिम संस्कार किया गया। इसके बाद से यहां के कुछ लोग जानने लगे कि महाकवि वर्मा का यह परिवार है। लेकिन आज तक किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की यहां तक कैसे आये यह जरूर है कि उनके जन्म दिवस व हिंदी दिवस पर कुछ लोग उनके चित्र पर माल्यार्पण करने आ जाते हैं।
101 घंटे तक मां ने किया डांस
बहन की मौत के बाद मां के लिए ये भावनात्मक आघात था। उसके बाद उन्होंने खुद को कथक में लीन कर दिया। कभी 15 घंटे तो कभी साठ घंटे तक डांस करते रहना उनकी नियति बन गई। उन्होंने हिमाचल-भवन में 101 घंटे तक कथक नृत्य करके एक रिकॉर्ड बनाया था। उस दौरान एक पत्रकार ने उनसे पूछा था कि मंजरी जी ‘व्योम से व्योम तक’ 101 घंटे नृत्य की प्रेरणा कहां से मिली तो उनका जवाब था- मेरे अंदर एक आग दहक रही थी, अपनी बेटी को खो देने की आग, मैंने इस आग को कुछ करके ठंडी करना चाहा, और 101 घंटे नृत्य किया। ये सब अपने आप बिना इरादे के हो गया, जो लोग कथक के बारे में जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि 101 घंटे नृत्य करना कितना मुश्किल काम है।
उन्नाव में जन्मे थे भगवती चरण वर्मा
भगवती चरण वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर गांव में हुआ था। वर्मा जी ने इलाहाबाद से बीए, एलएलबी की डिग्री प्राप्त की और प्रारंभ में कविता लेखन किया। फिर उपन्यासकार के नाते विख्यात हुए और 1957 से मृत्यु-पर्यंत स्वतंत्र साहित्यकार के रूप में विख्यात हुये। साहित्य अकादमी, पद्मभूषण तथा राज्यसभा की मानद सदस्यता उन्हे प्राप्त हुई।