नई दिल्ली (ईएमएस)। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि मनोचिकित्सक की सलाह लेने का मतलब किसी का पागल होना नहीं है, बल्कि आज के तनावपूर्ण जीवन में मनोचिकित्सक से मिलना आम बात है। जस्टिस विपिन सांघी और पीएस तेजी की पीठ ने एक महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही और साथ ही सिर्फ मनोचिकित्सक से सलाह लेने के आधार पर उसकी एक साल की बेटी को उससे अलग रखने का फैसला देने से इंकार कर दिया।
इस महिला ने याचिका में मांग की थी कि कोर्ट उसके पति को निर्देश दे कि वह बच्ची को सुनवाई के दौरान पेश करे, जिसे उसके सास-ससुर ने जबरन उससे अलग कर दिया है। कोर्ट ने मां को बच्ची की अंतरिम कस्टडी देते हुए पति की उस दलील को मानने से इंकार कर दिया, जिसमें उसने कहा था कि बच्ची मां से प्राकृतिक रूप से जुड़ी हुई नहीं है और वह सरोगेसी से पैदा हुई है। कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इस आधार पर मां को अपनी बच्ची से कम प्यार नहीं हो सकता। कोर्ट ने कहा, जहां तक बच्ची का सवाल है, वह एक साल की लड़की है। भले ही उसका जन्म सरोगेसी से हुआ है, क्योंकि याचिकाकर्ता का दो बार गर्भपात हो गया था, लेकिन हम पति की दलील को नहीं स्वीकार कर सकते कि जैविक मां न होने के कारण वह बच्ची से कम प्यार करेगी। वहीं महिला के मानसिक स्वास्थ्य पर कोर्ट ने कहा कि तनाव के कई कारण हो सकते हैं और इस वजह से महिला अपना इलाज करा रही थी और सिर्फ इलाज कराने का मतलब यह नहीं है कि उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है।
महिला ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि दिसंबर 2017 में उसकी इजाजत पर उसके ससुर बच्ची को थाईलैंड और दुबई ले गए थे। वह खुद दुबई जाकर छुट्टियों पर बच्ची को अमेरिका ले जाना चाहती थी, लेकिन उसके सास-ससुर ने बच्ची को देने से इंकार कर दिया। इसके बाद महिला की उसके पति से लड़ाई हुई और उसे घर से निकलने कह दिया गया। इसके बाद उसने दिल्ली लौटकर अपने पति के खिलाफ याचिका दायर की। बच्ची को दिल्ली तो लाया गया, लेकिन उसे दादा-दादी के पास रखा गया था। अब महिला को बच्ची की कस्टडी मिल गई है।