विडंबना इस बात की है कि आजकल जो भी फिल्म बन रही है, उसमें जान-बूझकर ऐसे प्रसंग डाले जा रहे हैं जिससे उसका विरोध हो और फिल्म को बैठे-ठाले बिना किसी प्रयास के, बिना आना-पाई खर्च किए अचानक बला का प्रचार मिल जाए। कोई भी फिल्म निर्माता संदर्भों, अभिनय कला, नृत्य और गुणवत्ता के आधार पर दर्शकों के बीच जाना ही नहीं चाहता। आजकल निर्माताओं के बीच एक चलन विकसित हुआ है कि उनकी फिल्म प्रदर्शन के पहले ही दिन करोड़ के क्लब में शामिल हो जाए। सवा अरब से अधिक की आबादी वाले देश में महज करोड़ी क्लब में शामिल होने की चाहत निर्माताओं की सोच का बौनापन नहीं तो और क्या है? संजय लीला भंसाली का विरोध पुणे में बाजीराव मस्तानी फिल्म को लेकर भी हुआ था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विवादित विषयों को अपनी फिल्म में स्थान देना उनका शगल रहा है। यह अलग बात है कि उन्हें शशि थरूर जैसे राजनीतिक समर्थक भी मिलते रहते हैं लेकिन उन्हें भी अपने ही दल के माधवराव सिंधिया के प्रतिवाद के समक्ष मुंह की खानी पड़ती है। भारतीय राजाओं का गौरवशाली इतिहास रहा है। राजाओं के बीच मतभेद भले ही अंग्रेजों और मुगलों से उनकी पराजय की वजह बना हो, लेकिन अपने राज्य की रक्षा में गर्दन काटने और कटाने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया।
संजय लीला भंसाली और अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के सिर पर क्षत्रिय समाज की ओर से इनाम रख दिया गया है। इनाम की राशि भी छोटी-मोटी नहीं है। देवेंद्र फड़नवीस सरकार ने भले ही संजय लीला भंसाली की सुरक्षा बढ़ा दी है। उन्हें सुरक्षा गार्ड उपलब्ध करा दिए हैं लेकिन इससे जन विरोध की त्वरा कम नहीं हो सकती। दीपिका की नाक-कान काटने, गला काटने और उन्हें जिंदा जलाने के लिए अलग-अलग लोगों द्वारा इनाम घोषित किए गए हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह खतरनाक प्रवृत्ति है और सरकार को ऐसा करने वाले लोगों को अविलंब दंडित करना चाहिए। किसी को हत्या के लिए उकसाना दंडनीय अपराध है। इसकी जितनी भी आलोचना की जाए, कम है। फिल्म निर्माताओं को भी विवाद का तड़का लगाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए कि उनका यह प्रयोग समाज के किसी वर्ग को आहत तो नहीं करेगा। भाषा की मर्यादा होती है और मनोरंजन भी मर्यादा में ही अच्छा लगता है।
पद्मावती फिल्म की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण पहले भी विवादों में घिरी रही हैं। महिलाओं की दैहिक आजादी की वकालत का उनका तरीका प्रबुद्ध तबके को कभी रास नहीं आया। इसके लिए वोग मैग्जीन के लिए उन्होंने ‘माय चॉइस’ नामक वीडियो कराया था, वह भी काफी विवादों के घेरे में रहा। वीडियो में शादी से इतर संबंध बनाने को दीपिका ने अपनी मर्जी बताया, जिस पर कुछ लोगों की नाराजगी खुलकर सामने आई। एक पार्टी में रणबीर कपूर के रिश्ते के भाई अरमान और आदार जैन के साथ खिंचवाई तस्वीरों को लेकर भी वे इंस्टाग्राम पर खूब ट्रोल र्हुइं। करण जोहर के शो पर दीपिका से उनके और रणबीर कपूर के ब्रेक अप पर चर्चा शुरू हुई, तो रणबीर की बेवफाई के बारे में दीपिका ने कहा कि रणबीर को कंडोम का विज्ञापन करना चाहिए। बेटे के बारे में ऐसी बात सुन ऋषि कपूर काफी नाराज हुए थे। कॉफी विद करण पर दीपिका ने सोनम कपूर के साथ प्लास्टिक सर्जरी कराने वाली अभिनेत्रियों पर चुटकी ली थी। फिल्म उद्योग की कई हस्तियों को यह नागवार गुजरा। पद्मावती’ को लेकर भाजपा ही नहीं, कांग्रेस भी नाराज है। यह अलग बात है कि संजय लीला भंसाली और दीपिका के समर्थकों और विरोधियों के बीच वाचिक घमासान जारी है। फिल्म जारी होने पर क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
सच तो यह है कि पद्मावती फिल्म बनाकर संजय लीला भंसाली बुरी तरह फंस गए हैं। राजस्थान ही नहीं, देश के अन्य राज्यों में इस फिल्म का विरोध हो रहा है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र सरकार को पत्र लिख दिया है कि फिल्म से विवादित अंश को हटाए बिना इसे प्रदर्शित करने की अनुमति न दी जाए। इस तरह का पत्र लिखने वाले योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्री रहे हैं। हालांकि उन्होंने इसके लिए कानून व्यवस्था के संकट की आड़ ली। उनके तर्क में दम भी था कि उत्तर प्रदेश में शहरी निकाय के चुनाव हैं। पुलिस चुनाव में व्यस्त रहेगी। ऐसे में फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद होने वाले उपद्रव को रोक पाना सरकार के लिए कठिन होगा। एक तरह से मुख्यमंत्री का फिल्म ‘पद्मावती’ और उसके निर्देशक व कलाकारों के प्रति यह साॅफ्ट काॅर्नर है लेकिन जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे हैं, उन्हें तो हर हाल में फिल्म को प्रदर्शित होने से रोकना ही है। भाजपा शासित अधिकांश राज्यों में इस फिल्म का जमकर विरोध हो रहा है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने तो रानी पद्मावती को राजमाता की संज्ञा दे दी है। उन्होंने राज्य में इस फिल्म के प्रदर्शन पर पूरी तरह रोक लगा दी है। बीस से अधिक विधायकों ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन देकर इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की है। देश भर से इसी तरह की आवाज उठ रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी कहा है कि किसी भी फिल्म निर्माता को जन भावनाओं से खेलने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
फिल्म के रिलीज होने पर भले ही सेंसर बोर्ड ने ग्रहण लगा दिया हो। फिल्म को सापत्ति पास ही न किया हो लेकिन इस फिल्म को मीडियाकर्मियों को दिखाया जाना आपत्तिजनक है। सेंसर बोर्ड भी इसके लिए अपनी नाराजगी जता चुका है। क्षत्रिय समाज भी फिल्म में गलत दृश्यों के समावेश को लेकर नाराज है। जिस रानी पद्मिनी जिसे पद्मावती कहा जा रहा है, ने राज्य की तमाम स्त्रियों के साथ जौहर कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी लेकिन खुद को अलाउद्दीन और उसकी सेना के कुत्सित हाथों में पड़ने नहीं दिया था। उसे अलाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका बताना भारतीय इतिहास और हिंदुओं की भावना से छेड़छाड़ नहीं तो और क्या है? मनोरंजन के नाम पर कुछ भी तो नहीं परोसने की इजाजत किसी को भी नहीं है। तथ्यों से छेड़छाड़ की सजा ऐसे लोगों को दी ही जानी चाहिए। विडंबना इस बात की है कि ऐसे लोगों को दंड नहीं मिल पा रहा, यही वजह है कि ऐसे विवादित मामलों के वेताल बार-बार बोतल से निकलकर इस देश की शांति को निगल रहे हैं। हमें सोचना होगा कि देश का गौरव पहले है। मनोरंजन बहुत बाद की चीज है। कुछ लोग कह सकते हैं कि फिल्म देखे बिना उसका विरोध कितना उचित है? इसका जवाब यह है कि बगैर खाए कोई खराब खाने को खाना कैसे कह सकता है? जब करणी सेना कह रही है कि उसके पास फिल्म के स्क्रिप्ट की काॅपी है तो उस पर यकीन क्यों नहीं किया जाना चाहिए।
फिल्म ‘पद्मावती’ का पहले भी सहारनपुर सहित कई जगहों पर मुखर विरोध हुआ है। फिल्म निर्माता निर्देशक के पुतले जलाए गए। उत्तेजित लोगों ने चेतावनी दी है कि अगर यह फिल्म यहां के सिनेमाघरों में चलाई जाती है तो उसका अंजाम बहुत बुरा होगा। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने लोगों को आश्वस्त किया है कि जब तक फिल्म के विवादित हिस्से को नहीं निकाला जाएगा, तब तक हम राज्य में फिल्म को रिलीज होने नहीं देंगे।
समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि फिल्म रिलीज हो या नहीं, मेरा इस पर कोई नजरिया नहीं है। मैं पड़ी हुई लकड़ी नहीं उठाता। तटस्थ रहना सबसे बड़ा अपराध है। भीष्म की तटस्थता ही अखिलेश यादव युवा नेता हैं। युवाओं को सत्य और असत्य पर मंथन भी करना चाहिए। सच को सच कहने की ताकत हर नेता में होनी चाहिए। पड़़ी लकड़ी अगर देश के नेता नहीं लेंगे तो कौन लेगा, इस तरह की पलायनवादी प्रवृत्ति उनके लिए तो खतरनाक है ही, देश के लिए भी घातक है। जब उनके पिता उत्तर भारत और दक्षिण भारत में आराधना के विषय उछालकर राम और कृष्ण को बांट सकते हैं तो देश की शांति भंग करने के मुद्दे पर अखिलेश की चुप्पी को अकारण नहीं कहा जा सकता। बॉलीवुड अभिनेता रजा मुराद ने संजय लीला भंसाली का पक्ष रखते हुए कहा है कि बिना देखे फिल्म पर राय देना उचित नहीं है। आतंकवादी कसाब को अपनी बात रखने का हक मिल सकता है, तो संजय लीला को क्यों नहीं। बिल्कुल सही बात है। संजय लीला भंसाली आतंकवादी नहीं हैं लेकिन बौद्धिक व्यक्तियों द्वारा किया गया अपराध अक्षम्य होता है। मुराद को इस तरह की नसीहत देने से पहले इस बावत भी सोचना चाहिए था। बकौल रजा मुराद, जब फिल्म रिलीज होगी तो राजपूतों का सीना फक्र से चैड़ा हो जाएगा। फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर चल रहे विवाद के बीच दारूल उलूम के पूर्व चेयरमैन मुफ्ती अरशद फारूकी ने नसीहत दी है कि सरकार को भाईचारा खत्म करने वाली फिल्म पर रोक लगा देनी चाहिए। फिल्म का मकसद लोगों में अच्छाई पैदा करने वाला होना चाहिए। ऐसी फिल्में बनंे जिससे समाज और देश के लोगों के बीच एकता का संदेश जाए।
फिल्में मनोरंजन ही नहीं है, वह जनमानस भी बनाती हैं। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों पर फिल्म या सीरियल बनाते वक्त हमें रामानंद सागर और बीआर चोपड़ा जैसी संवेदनशीलता और अध्ययनप्रणवता का परिचय देना चाहिए। फिल्मकारों को सोचना होगा कि आज फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर धमाल तो मचा रही हैं लेकिन समाज पर प्रभावी असर डाल पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। अब समय आ गया है कि कमाई को लक्ष्य कर नहीं, देश को आगे रखकर फिल्में बनाई जाएं। भंसाली फिल्म निर्माण के वक्त ही करणी सेना का विरोध झेल चुके थे। जयगढ़ किले में उनका पूरा सेट नष्ट कर दिया गया था। इसके बाद भी उन्होंने मुंबई में शूटिंग की, यह उनकी दिलेरी ही है लेकिन क्या इस तरह की दिलेरी वे अन्य धर्मों पर भी फिल्म बनाकर दिखा सकते हैं। हिंदुओं को अपमानित करना ही क्या आज की निरपेक्षता है? शाहिद कपूर कह रहे हैं कि फिल्म अच्छी मंशा से बनाई गई है। अगर ऐसा है तो उसका विरोध क्यों हो रहा है? शाहिद ने फिल्म में काम किया है। स्वाभाविक है कि उन्हें अपना काम अच्छा लगे लेकिन सवाल यह है कि जो चीज सर्वविदित है। पूरी दुनिया जानती है, अगर उसमें विरोध होगा तो जनता को यह जानने का हक तो है ही कि किस अधिकार के तहत ऐसा किया गया? जनता के आक्रोश को दिल पर लेने की बजाय फिल्म निर्माताओं और कलाकारों को यह तो सोचना ही होगा कि मनोरेजन के नाम पर वे कितना फूहड़पन परोस रहे हैं। तिस पर तुर्रा यह है कि दृष्टा की आंख को ही गलत भी ठहरा रहे हैं।
ऐसे में जनता के समक्ष विकल्प क्या है? धन का नुकसान तो फिर भी झेला जा सकता है लेकिन मानसिक प्रदूषण काबिले बर्दाश्त नहीं है। संजय लीला भंसाली को अपना पक्ष रखना चाहिए। गुपचुप प्रयासों से बेहतर होगा कि वे खुलकर मीडिया को बताएं कि उन्होंने इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। सेंसर बोर्ड से इस्तीफा देने वालों को भी सोचना होगा कि अब तक मसाला फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा गया है, उस पर सहमति व्यक्त करने के लिए उन्हें क्यों न दोषी माना जाए? देश के चिंतन और जानकारी को प्रदूशित कर देना ही क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। विरोध उन लोगों का भी होना चाहिए जो उत्तेजनावश गलत फतवे कर देते हैं। यह देश शांति और सौहार्द का है। ज्ञान-विज्ञान का है। उपदेश-संदेश का है। इसके शांत तपोवन में आग लगाना किसी को भी शोभा नहीं देता। -सियाराम पांडेय ‘शांत’