लोक कल्याण सरकार का प्रथम कर्तव्य है और यह तभी संभव है जब सरकार अपने निर्णय को लेकर पूर्वाग्रही न हो। उसमें विचार करने की सामर्थ्य हो, वह आम आदमी के व्यापक हितों पर विमर्श का माद्दा रखती हो तो किसी भी समस्या या विवाद का समाधान होते देर नहीं लगती। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने लोककल्याणकारी होने का परिचय देते हुए 227 में से 177 वस्तुओं पर जीएसटी की दरों में 10 प्रतिशत की कमी कर दी है। इससे व्यापारियों को भी राहत मिलेगी और उपभोक्ताओं को भी। जरूरत की चीजें सस्ती होंगी तो इससे आम आदमी चैन की सांस ले सकेगा लेकिन जीएसटी परिषद के इस बड़े निर्णय से विपक्ष जरूर आहत होगा क्योंकि उसके लाभ के पैमाने पर जीएसटी में मिली मौजूदा राहत फिट नहीं बैठती।
कहना न होगा कि इन दिनों माल एवं सेवा कर को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चहुंओर हमले हो रहे हैं। उन पर देश की अर्थव्यवस्था को चैपट करने के आरोप लग रहे हैं। विश्व बैंक भी इस बात को मान रहा है कि भारत में जीएसटी का लागू होना बड़ी आर्थिक क्रांति का द्योतक है। इसके सुखद संकेत सामने आएंगे। इससे देश की अर्थव्यवस्था सुधरी है। लेकिन विपक्ष इस बात को मानने को तैयार नहीं है। वह निरंतर भारतीय जनमानस को यह समझाने-बरगलाने में जुटा है कि जीएसटी से केवल कुछ बड़े लोगों को लाभ हुआ है। लघु एवं मध्यम स्तर के कारोबार ध्वस्त हो गए हैं या तो बंद हो गए हैं अथवा बंद होने की ओर अग्रसर है। इस वजह से बेरोजगारी बढ़ी है। कल-कारखानों से लोग हटाए जा रहे हैं। कोई इसे गब्बर सर्विस टैक्स बता रहा है तो कोई ग्रेट सेल्फिस टैक्स। इस टैक्स के विरोध में केवल विपक्ष ही नहीं है, भाजपा के पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिंन्हा भी विरोध का झंडा उठाए खड़े हैं। वे मौजूदा वित्तमंत्री अरुण जेटली के त्यागपत्र मांग रहे हैं।
इन तर्कों को सुनने-पढ़ने के बाद कवि रहीम की याद आना स्वाभाविक भी है। उन्होंने लिखा है कि ‘ अंतर अंगुली चार कौ सांच-झूठ में होय। सच मानी देखी कहै, सुनी न मानै कोय।’ सांच-झूठ का यह अंतर अब चार अंगुली का नहीं रहा। दरअसल लोगों ने सोचना बंद कर दिया है। जब व्यक्ति अपनी आंखों से देखना बंद कर देता है जो उसे जो कुछ बताया जाता है, उसे ही वह सच मान लेता है। विपक्षी दल यह कह रहे हैं कि व्यापारी भी जीएसटी को ठीक से समझ नहीं पाए हैं। सवाल यह उठता है कि जब व्यापारी ही जीएसटी को नहीं समझ पा रहे तो विपक्ष को यह कैसे समझ में आ गई। ‘खग जानै खग ही की भाषा।’नेता तो समाजसेवी होता है। वह व्यापारी तो होता नहीं। ऐसे में नेताओं में व्यापार की बारीकी समझ लेना यह बताने के लिए काफी है कि वे समाजसेवा में कम वयापार में अधिक रुचि लेते है। ऐसा न होता तो राजनीतिक दलों और उनसे जुड़े नेताओं की आय हर पांच साल में दोगुनी-तिगुनी कैसे हो जाती?
जनता ने भी विपक्ष की बात सच मान ली है कि जीएसटी के चलते ही महंगाई बढ़ गई है। चीजों के सस्ती और महंगी मिलने की तह में जाने के लिए हमें कुछ इस तरह सोचना होगा। पहले न तो ग्राहक खरीदी गई वस्तु का कैशमेमो लेता था और न ही दुकानदार देना चाहता था। जो ग्राहक बिल मांगता था, उसे भी वह अक्सर कच्चा बिल पकड़ा देता था। जिसका होना और न होना दोनों बराबर था। ग्राहक जिद पर अड़ जाए तभी वह पक्का कैशमेमो देता था और उस पर वह केंद्र और राज्य का पूरा वैट वसूल लेता था। रसीद न लेने वाले ग्राहकों को वह वैट कम कर सामान दे दिया करता था। इससे ग्राहकों को थोड़ा सस्ता सामान मिल जाता था लेकिन इसके एवज में दुकानदार पूरा वैट हड़प लेता था। इससे सरकारी राजस्व की चोरी होती थी। इस कर चोरी को रोकने के लिए ही सरकार ने जीएसटी लागू किया। इसमें हर व्यापारी के लिए बेचे गए माल पर जीएसटी शो करना अनिवार्य है। अब मामला पूरी तरह आॅनलाइन हो गया है। सभी वस्तुओं पर सरकार ने करों से छूट दे दी है। मतलब जीएसटी मूल्य के अंदर ही लगनी चाहिए लेकिन अभी भी अधिकांश व्यापारी उपभोक्ताओं से निर्धारित मूल्य पर जीएसटी ले रहे हैं। रोक तो इस प्रवृत्ति पर लगनी चाहिए लेकिन कोई भी राजनीतिक दल व्यापारियों की इस हेरा-फेरी का विरोध नहीं कर रहा, वजह चाहे जो भी हो लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें तो यह सुनिश्चित कर ही सकती हैं कि कोई भी वस्तु निर्धारित मूल्य से अधिक धनराशि लेकर न बेची जाए।
रही बात जीएसटी की तो उसके तहत अब बेईमानी और कर चोरी के अवसर कम हो गए हैं। सूरदास ने लिखा है कि ‘मधुकर जेहि अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल भावै। ’ जिसने आम का फल खाया हो, वह बांस की करील क्यों खाना चाहेगा। व्यापारियों को वास्तव में कोई नुकसान नहीं हुआ है। बड़ा नुकसान यह है कि उन्हें अब टैक्स चोरी करने का मौका नहीं मिल पा रहा है। हमारा आशय यह नहीं कि सभी व्यापारी ऐसा करते हैं। बहुतेरे ऐसे भी हैं जो ईमानदारी से अपने हिस्से का टैक्स अदा करते हैं लेकिन उनके बीच स्वार्थियों की भी बड़ी जमात है जो यह जानती है कि टैक्स के पैसे से ही देश का विकास होता है। कर्मचारियों को तनख्वाह मिलती है, इसके बाद भी वे टैक्स चोरी करते रहे। मोदी सरकार ने तो एक देश-एक टैक्स का प्रावधान किया। बजाय इसकी सराहना करने के कुछ लोग इसकी आलोचना करने और अपने स्वार्थों की रोटी सेंकने में लगे हैं। इस प्रवृत्ति की जितनी भी आलोचना की जाए, कम है।
एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच तो नहीं बनता लेकिन उस झूठ को लोग सच मानने जरूर लगते हैं और इसका दूरगामी असर यह होता है कि लोकहित की सोचने वाले लोग बेवजह संदेह के कठघरे में खड़े हो जाते हैं। मोदी सरकार ने जीएसटी कौंसिल की बैठक में जीएसटी में 28 फीसदी टैक्स के दायरे में आने वाले 177 सामानों पर टैक्स कम कर उन्हें 18 फीसदी टैक्स स्लैब के दायरे में ला दिया है। अब केवल 50 आइटम ही 28 फीसदी टैक्स के दायरे में रह गए हैं। शेष 177 वस्तुओं को कम टैक्स वाली स्लैब में डाल दिया गया है। व्यापारियों तथा छोटे व्यवसायियों की दरअसल इस बात की शिकायत थी कि 1 जुलाई, 2017 से लागू किए गए माल एवं सेवाकर से उनकी कर देनदारी और प्रशासनिक खर्च बढ़ गए हैं। मौजूदा फैसला इसी लिहाज से लिया गया है। रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों को महंगाई से बचाने का यह एक सार्थक प्रयास है। विपक्ष को विचार करना चाहिए था कि अगर सरकार का इरादा गब्बर सर्विस टैक्स वसूलने या ग्रेट सेल्फिस टैक्स वसूलने का होता तो वह अब तक जीएसटी काउंसिल की 23 बैठकें क्यों करती। जीएसटी परिषद हर माह तीन इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने की अनिवार्यता की भी समीक्षा कर रही है, ताकि रिटर्न फाइल किए जाने की प्रक्रिया को टैक्सपेयर-फ्रेंडली बनाया जा सके। विकथ्य है कि इस नई टैक्स व्यवस्था को लागू करने के वक्त से ही जीएसटी परिषद की बैठक हर माह होती रही है, और अब तक 100 से ज्यादा बार टैक्स की दरों में बदलाव किया जा सका है। जीएसटी के तहत वस्तुओं और सेवाओं पर चार अलग-अलग स्लैबों में क्रमशः 5, 12, 18 तथा 28 प्रतिशत कर लगाया गया है।
पुदुच्चेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणसामी, पंजाब के वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल तथा कर्नाटक के कृषिमंत्री कृष्णबायरे गौड़ा सहित कई कांग्रेस नेताओं ने आरोप लगाया है कि सिर्फ पांच राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों को जीएसटी लागू होने के बाद राजस्व घाटा हुआ है। यह राजस्व घाटा कैसे हुआ है, इसे तो वही बेहतर बता सकते हैं लेकिन उन्हें लगे हाथ देश को यह भी बताना चाहिए था कि देश में एक ही कर लगाने की यह व्यवस्था बेहद शानदार है। हिमाचल प्रदेश और गुजरात में हो रहे विधानसभा के बीच जीएसटी का मुद्दा उछालकर विपक्ष ने चुनावी लाभ उठाने की भरपूर कोशिश की है। हिमाचल प्रदेश में उन्हें इसका कितना लाभ मिलेगा, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही सुस्पष्ट होगा लेकिन एक सच यह भी है कि गुजरात में विपक्ष की दाल न गलने देने के लिहाज से ही जीएसटी परिषद ने व्यापारियों और आम जनता को बड़ी राहत दी है। इससे आक्रोश का गुबार थमेगा और यह विपक्ष की रणनीति के खिलाफ जाएगा। उत्तर प्रदेश के शहरी और नगर निकाय चुनाव में भी भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है। जीएसटी परिषद के एक वार से विपक्ष की विरोध की रणनीति की हवा निकल गई है।
परिषद को यह सब हिमाचल प्रदेश के चुनाव से थोड़ा पहले करना चाहिए था। खैर देर आयद दुरुस्त आयद। वैसे विपक्ष इसे आचार संहिता का उल्लंघन और मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश करार दे सकता है लेकिन केंद्र सरकार पूरे देश की है। चुनाव तीन राज्यों में हो रहे हैं जबकि जीएसटी से तकलीफ अगर पूरे देश को है तो केंद्र सरकार को समग्रता में देश हित का विचार करना चाहिए। यही लोकहित का तकाजा भी है। विपक्ष का काम क्या है? उसे विरोध करना है। पहले विरोध गलत नीतियों का ही होता था लेकिन अब उसके मानदंड बदल गए हैं। केंद्र सरकार ने जीएसटी में राहत देकर बड़ा काम किया है। इससे केंद्र का राजस्व तो घटेगा ही, राज्यों के भी राजस्व घाटे बबढ़ सकते हैं, लेकिन देश के व्यापक हित में केंद्र और राज्य सरकारें इतना जोखिम तो उठा ही सकती है। विचार तो इस दिशा में भी होना चाहिए। अगर सरकारें मूल्य के अंदर जीएसटी समाहित कराने में कामयाब हो पाईं तभी इस सहूलियत का यथेष्ठ लाभ इस देश की जनता को मिल पाएगा? कभी-कभी बहुत अच्छी नीतियां भी अधिकारियों, व्यापारियों, बिचैलियों और स्वार्थ लोलुप राजनेताओं की वजह से विफल हो जाती हैं। इंदिरा गांधी की परिवार नियोजन योजना इसका प्रमाण है। उनकी सरकार चुनाव में जनाक्रोश की भेंट चढ़ गई। बाद में लोगों ने योजना का मूल्य समझा और आज अधिकांश परिवार हम दो-हमारे दो की नीति पर अमल कर रहे हैं। इस बढ़ती महंगाई में तो और भी। खैर, इसी तरह जीएसटी का भी महत्व समझा जाएगा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। -सियाराम पांडेय ‘शांत’