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जवाबदेही के अभाव में दम तोड़ती मनरेगा

पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कार्यकाल में देश में लागू की गई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मनरेगा बेहतर प्रबंधन एवं जवाबदेही के अभाव में दम तोड़ती हुई नजर आ रही है। ग्राम्य जनजीवन को समृद्ध एवं खुशहाल बनाने के उद्देश्य से पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लागू की गई इस योजना से तत्कालीन दौर में ग्रामीण जन को भले ही उपयुक्त स्तर पर रोजगार के अवसर सुलभ न हो पाएं हों तथा बेलगाम नौकरशाही व भ्रष्टाचार के चलते अपेक्षित लक्ष्य पूरा करने में सफलता न मिल पाई हो लेकिन स्थिति कुछ तो बेहतर हो ही गई थी।

इस योजना को लागू करने का आशय ही यही था कि ग्रामीण जन को स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें तथा काम के अभाव में उन्हें दूसरी जगहों पर पलायन न करना पड़े। ग्रामीण जन की बेहतरी से संबंधित इस योजना को लागू करने की दिशा में व्यवस्था संधारणा से जुड़ी एजेंसियों को कारगर ढंग से काम करना चाहिये था ताकि अपेक्षित नतीजे सामने आ सकें। इसके विपरीत मनरेगा को लागू करने में पूरी ईमानदारीपूर्वक काम नहीं हुआ तथा स्थिति यह होती रही कि लोगों को अगर इस योजना के तहत काम मिल भी जाए तो दाम मिलने की कोई गारंटी नहीं रहती थी।

फिर वह अपनी शिकायतें लेकर कलेक्टर या जिला पंचायत के सीईओ या अन्य जिम्मेदार अफसरों के दफ्तर के महीनों तक चक्कर काटते रहे लेकिन उन्हें कई बार निराशा हाथ लगती थी। वहीं दूसरी ओर इस योजना से ग्रामीण जन को कुछ फायदा भी हुआ है। मनरेगा स्कीम के तहत भूमि सुधार, मेढ़ बंधान जैसे कार्यक्रम राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने ढंग से चलाए जाते रहे। इसका असर कुछ हद तक धरातल में भी नजर आता रहा है। अब मौजूदा केन्द्र सरकार के कार्यकाल में यह योजना पूरी तरह धराशायी हो चुकी नजर आ रही है। एक तो केन्द्र सरकार ने इस योजना के बजट में भारी कटौती कर दी तथा शेष कसर बेलगाम नौकरशाही और अन्य जिम्मेदार एजेसियां पूरा कर रही हैं।

सत्ता के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा को पूरा करने वाली ग्राम पंचायतों के चुनाव संपन्न हो जाते हैं। ग्राम पंचायतों के निर्वाचित पदाधिकारी अपना पदभार भी संभाल लेते हैं लेकिन उनके पास कोई काम नहीं रहता। मनरेगा योजना के तहत अगर थोड़ा बहुत काम होते भी हैं तो जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा ग्राम पंचायतों के पदाधिाकारियों को प्रताडि़त व परेशान करते हुए उनका आर्थिक शोषण किया जाता है। मनरेगा स्कीम के तहत संपन्न होने वाले कामों का मूल्यांकन तब तक इंजीनियर द्वारा नहीं किया जाता जब तक उसे चढ़ोत्री के रूप में कुछ रिश्वत न दी जाए। इंजीनियर के द्वारा ग्राम पंचायत के निर्माण कार्य का मूल्यांकन किया जाना एक व्यवस्थागत प्रक्रिया है। इसके अभाव में संबंधित निर्माण कार्य या विकास कार्य का पैसा ग्राम पंचायत द्वारा नहीं निकाला जा सकता और अगर पैसे नहीं निकाले जा सके तो फिर संबंधित निर्माण कार्य में काम करने वाले श्रमिकों का भुगतान अधर में लटक जाता है। मनरेगा योजना के बजट में केन्द्र सरकार द्वारा कटौती किये जाने पर विपक्ष ने संसद में कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी लेकिन नरेन्द्र मोदी व उनकी केन्द्र सरकार ने विपक्ष की इस चिंता व ग्रामीण लोक सरोकारों को नजरअंदाज कर दिया था।

केन्द्र द्वारा अगर मनरेगा योजना को लेकर यह तर्क दिया गया कि यह योजना भ्रष्टाचार का शिकार हो गई है तथा इस योजना के तहत सरकारी धन का दुरुपयोग हो रहा है तो फिर केन्द्र सरकार को यह भी बताना चाहिये कि उसकी ऐसी कौन सी योजना है जो कारगर ढंग से संचालित हो रही है तथा उसमें भ्रष्टाचार व लालफीताशाही हावी नहीं है। सिस्टम में अभाव तो जवाबदेही और ईमानदारी का है, जिसके चलते जनापेक्षाएं पूरी नहीं हो पा रही हैं तथा भ्रष्टाचारी मालामाल हो रहे हैं। कतिपय लोगों में अगर ईमानदारी व इंसानियत का अकाल पड़ गया है तो इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि जनकल्याणकारी योजनाएं ही बंद कर दी जाएं। इसके अलावा सत्ता सिर्फ सुख प्राप्ति का आधार तो नहीं है। सत्ता में आसीन लोगों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास और उनकी नीयत में नेकी तो होनी ही चाहिये। फिर केन्द्र सरकार किसी भी मुद्दे पर ऐसे विवेकहीन तर्क क्यों देती है।

देश में बेरोजगारी वैसे भी एक बड़ा मुद्दा है। पढ़ाई-लिखाई के बाद हुनरमंद युवाओं का यही सपना रहता है कि उन्हें रोजगार का बेहतर अवसर मिल जाए ताकि वह आर्थिक तरक्की की अपनी राह आसान बनाते हुए देश व समाज के उत्थान में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा सकें। केन्द्र सरकार एक तो युवाओं के सपनों को साकार करने में पूरी तरह विफल साबित हो रही है, वहीं मनरेगा जैसी योजनाओं को लेकर बेहूदे तर्क देकर अपनी जिम्मेदारियों से भागने की कोशिश कर रही है। मनरेगा योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं के लिये भी रोजगार के बेहतर अवसर हो सकते थे। नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव से पूर्व लोगों से वादा किया था कि वह विदेशों में जमा कालाधन वापस लाएंगे तथा सभी के बैंक एकाउंट में 15-15 लाख भिजवाए जाएंगे लेकिन यह तो चुनावी जुमला निकल गया। फिर भी सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में अपनी लापरवाही व ढिलाई पर पर्दा डालने के लिये अगर योजनाओं को ही बंद किया जाने लगे तब तो फिर युवा, बुजुर्ग, बच्चों, महिलाओं, किसानों, मजदूरों या अन्य किसी का भी भला नहीं किया जा सकता।

केन्द्र सरकार में अगर ग्राम्य जनजीवन को समृद्ध बनाने की जरा भी इच्छा शक्ति होती तो वह मनरेगा योजना की उपेक्षा करने के बजाय उसे और ज्यादा कारगर एवं परिणामदायक ढंग से लागू करती लेकिन सरकार जिम्मेदारियों से भागने की मानसिकता से प्रेरित होकर काम कर रही है, उसकी का नतीजा है कि जवाबदेही के अभाव में मनरेगा योजना दम तोड़ती हुई नजर आ रही है। काम की तलाश में ग्रामीण जनों का अन्यत्र पलायन हो रहा है तथा केन्द्र सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जिसमें राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं द्वारा लोगों को खूब सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं तथा उनके द्वारा बेरोजगारी का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया जा रहा है। रोजगार के अवसर सृजित करने के मामले में राजनेता खुद को बेहतर और अपने विरोधियों को कमतर बताने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं लेकिन चुनावी वादों और दावों का क्या। अगर नीयत ही साफ नहीं है तो फिर चुनाव के बाद यह सभी वादे और दावे तो रद्दी की टोकरी में ही चले जाएंगे। चुनाव में राजनेताओं द्वारा मनरेगा का मुद्दा भी उठाया जा रहा है लेकिन केन्द्र की भाजपा सरकार शायद ही इस मुद्दे पर कोई जवाब देने की स्थिति में हो।

                                                                                                                                                            सुधांशु द्विवेदी.

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