उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन के बाद सवाल यह उठता है कि इस गठबंधन से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समीकरण किस हद तक बदलेंगे ? बदलेंगे भी या नही ? गठबंधन के रणनीतिकार चुनाव में 35-37 फीसदी वोट हासिल करने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं, जिस प्रदेश के 18 फीसदी मुस्लिम और साथ ही 25 फीसदी गैर-मुस्लिम वोट जुटाने की कोशिश की जाएगी। दोनों पार्टियों के बीच हुए गठबंधन के पीछे का गणित यह है कि दोनों की संयुक्त अपील एक सामाजिक गुटबंदी पैदा कर सकती है और वोटरों के उन समूहों को अपने पाले में ला सकती है जिनका रुझान बीजेपी और बीएसपी की ओर हो रहा है। गठबंधन के रणनीतिकार मान कर चल रहे हैं कि उनका असली मुकाबला बीजेपी से होगा, पहले स्वाभाविक प्रतिद्वंद्वी मानी जा रही बीएसपी, अब बीजेपी से पीछे रहेगी।
मौजूदा हालात 1993 के चुनाव जैसे हो गए हैं जब बीएसपी और एसपी ने हाथ मिलाया था और मुकाबला तीनतरफा हो गया था, नतीजा यह हुआ था कि बाबरी विध्वंस के बाद राम मंदिर लहर पर सवार बीजेपी को दोनों रोकने में सफल रहे थे। बीएसपी ने उस वक्त 11.12 फीसदी वोट के साथ 67 सीटें जीती थीं, तो वहीं एसपी ने 19.94 प्रतिशत वोट के साथ 109 सीटें। दोनों ने मिलकर 31 फीसदी वोट बटोरे और 176 सीटें हासिल कीं। उधर बीजेपी 33.31 वोट प्रतिशत के साथ 174 सीटें जीत पाई।
एसपी-बीएसपी गठबंधन ने कांग्रेस और कुछ दूसरी पार्टियों के समर्थन से सरकार बनाई और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। इस बार भी प्रदेश में होने वाला चौतरफा मुकाबला (एसपी-बीएसपी-बीजेपी-कांग्रेस) अब तीनतरफा मुकाबले में तब्दील हो गया है। हालांकि इस बार गठबंधन के प्लान को दो बड़ी चुनौतियों से पार पाना होगा। पहली चुनौती बीएसपी से मिल सकती है जिसने लगभग 100 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं, जाहिर है उन्हें भी अपने समुदाय का वोट मिलेगा और दूसरी चुनौती बीजेपी से है जिसने 2014 के चुनाव में 43 फीसदी वोट हासिल किए थे।
कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ आने के पीछे सबसे बड़ी बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी ‘सेक्युलर’ पार्टी के रूप में कांग्रेस मुस्लिमों को यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि ‘सांप्रदायिक’ बीजेपी को रोकने की ताकत इस गठबंधन में हैं, न कि बीएसपी में। गठबंधन की मंशा मुस्लिमों के एकमुश्त वोट हासिल करने की है। ढाई दशक से ज्यादा का समय हो गया मुस्लिम बीजेपी को हराने के लिए एकतरफा वोट करता है, जिसका फायदा इस बार सपा-कांग्रेस गठबंधन को मिल सकता है।
यूपी में अयोध्या कांड के बाद से सिर्फ सपा ही मुस्लिम वोटर्स का ठिकाना रही है, यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं, जिनका 39 फीसदी वोट 2012 विधानसभा चुनाव में सपा को मिला था। वहीं, बचा हुआ 34 फीसदी वोट दूसरे दलों में बंट जाता है, जिसमें 2012 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पास 18 फीसदी वोट आया था। इसके अलावा कांग्रेस को कम ही सही, लेकिन अगड़ों का भी वोट मिलता रहा है, ऐसे में इस बार इसका फायदा सपा को भी मिल सकता है।
हालांकि सपा को गठबंधन से नुकसान भी उठाना पड़ सकता है, क्योंकि यह जरूरी नही कि कांग्रेस-सपा के गठजोड़ से मुस्लिम वोट उनकी ओर ही खिसकेगा। बीएसपी भी मुस्लिमों को साधने की कोशिश कर रही है, मायावती की ओर से बड़ी संख्या में सीटें दिए जाने की वजह से बीएसपी को भी बड़ा हिस्सा मिल सकता है। चुनावी विश्लेषकों का मानना यह है कि किसी एक पार्टी को वोट देने के बजाय मुस्लिम यह देखेंगे कि उनके विधानसभा क्षेत्र में किस पार्टी का उम्मीदवार बीजेपी प्रत्याशी को हराने का माद्दा रखता है। क्षेत्रीय मुकाबले में, मुस्लिमों को एसपी-कांग्रेस और बीएसपी में से किसी एक को चुनना होगा, ऐसे में मुस्लिम वोटर्स बिखर सकते हैं।
दूसरी बात यह है कि कांग्रेस के पास यूपी में ऐसा कोई खास इलाका नहीं है, जहां उसका जनाधार बचा हो। साल 1989 के बाद चाहे लोकसभा चुनाव रहा हो या विधानसभा, कांग्रेस यूपी में अपना जनाधार खोती चली आई है। 1989 में हुए चुनाव में कांग्रेस के पास 94 सीटें थीं, जबकि 1991 में ये घटकर 46 सीट हो गई। 1993 में आंकड़ा और गिर गया जो 28 सीट तक पहुंच गया। 1996 में थोड़ा सुधार हुआ और 33 सीटें मिली, लेकिन 2002 में एक बार फिर कांग्रेस को 25 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा।
2007 में कांग्रेस को 22 सीट और 2012 में 28 सीटें मिली। कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले अमेठी,रायबरेली और सुल्तानपुर में भी सपा ने खुद 2012 में सेंध लगाई थी। इन तीनों जिलों में 15 सीटों में से 12 पर सपा ने जीत दर्ज की थी,जबकि कांग्रेस को 2 और पीस पार्टी को एक सीट मिली थी। ऐसे में इस बार अगर गठबंधन के बाद कांग्रेस 105 सीटों पर उतरती है तो 298 सीटों पर टिकट की आस लगाए बैठे कांग्रेस के नेता निराश होंगे और वह वह उन सीटों पर सपा उम्मीदवार को नुकसान पहुंचा सकते हैं ।
हालाकिं गठबंधन से उत्तर प्रदेश में निरन्तर जनाधार खोने वाली कांग्रेस को फायदा भी मिल सकता है। 2012 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 28 सीटें जीती थीं, इस बार उम्मीद है कि गठबंधन होने से कांग्रेस को कुछ बढ़त मिल सकती है। दरअसल, ये उम्मीद इसलिए भी है, क्योंकि 2012 चुनाव में कांग्रेस 32 सीटों में दूसरे नंबर पर थी। जबकि इसमें से 3 सीट ऐसी थीं, जहां कांग्रेस महज 500 वोट के अंतर से हारी थी।
वहीं,18 सीट ऐसी थी, जहां कांग्रेस 5 से 15 हजार के वोटों के अंतर से हारी, ये मार्जिन बताता है कि कांग्रेस के जो परंपरागत वोटर है, वह सुप्तावस्था में है। इसका उदाहरण 2012 में भी सामने आया, जब कांग्रेस के कैंडिडेट्स की लगभग 250 सीटों पर जमानत जब्त हो गई। अगर कांग्रेस अच्छे कैंडिडेट उतारे तो उसे फायदा मिल सकता है। लेकिन एक वास्तविकता यह भी है कि यूपी में कांग्रेस शीला दीक्षित को सीएम फेस के तौर पर पेश नहीं कर रही तो इससे जिस 10 फीसदी ब्राह्मण वोट को लेकर कांग्रेस ने अपना कैम्पेन शुरू किया था, उसका भी उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। कई नेता जो करीबी अंतर से 2012 में हारे थे, अब वह टिकट का इंतजार कर रहे थे, लेकिन अब गठबंधन की वजह से उन्हें टिकट नहीं मिला, नाराज कार्यकर्ताओं का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता ।
यह सच है कि एसपी और कांग्रेस ने हाथ इसलिए मिलाया है क्योंकि उन्हें लगता है कि अकेले ऐसी जीत हासिल कर पाना उनके लिए संभव नहीं है। जमीनी हालात बता रहे हैं कि 2014 के चुनाव में मोदी की जीत के बाद हिंदुत्व की राजनीति का प्रदेश में फिर से जो उभार हुआ, उसने ध्रुवीकरण को जिंदा रखा है।
अगर 2014 के चुनावी नतीजों के हिसाब से देखा जाए तो 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे आगे नजर आती है। 2014 के चुनाव में बीजेपी ने 42.7 फीसदी वोट की बदौलत प्रदेश की 80 में से 71 सीटें अपने नाम की थीं। इसका मतलब यह हुआ कि 403 विधानसभा क्षेत्रों में से 328 पर वह सबसे आगे थी। 2014 में समाजवादी पार्टी का मत प्रतिशत सिर्फ 22.7त्न था और कांग्रेस का 7.5 फीसदी। एसपी ने जहां सिर्फ 5 सीटें जीती थीं यानी 42 विधानसभा क्षेत्र में बढ़त और कांग्रेस ने सिर्फ 2 सीटें जीती थीं यानी 15 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त। इसका असर विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिल सकता है।
अगर हम यह मानें कि जिस माहौल में बीजेपी को 2014 के चुनाव में बड़ा फायदा मिला था, वह बरकरार है तो फिर एसपी-कांग्रेस के साथ आने से कुछ नहीं बदलने वाला। बीजेपी 300 से ज्यादा सीटें जीत सकती है, लेकिन जाहिर है कि 2014 के चुनाव से अब तक काफी कुछ बदल चुका है।
सबसे अहम बात यह है कि यह विधानसभा चुनाव है जिसमें स्थानीय मुद्दों पर जोर रहता है और इस बात पर भी कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। उदारहण के तौर पर, अखिलेश यादव की सीएम के तौर पर परफॉर्मेंस कैसी रही, यह चुनाव में अहम मुद्दा होगा जबकि 2014 के चुनाव में इसकी कोई अहमियत नहीं थी। अखिलेश ने जिस तरह पार्टी की अंदरुनी लड़ाई फतह की और एक साफ छवि के साथ उभरे, उसे देखते पार्टी उम्मीद कर रही है कि सवर्ण युवाओं के बीच इसका सकारात्मक असर पड़ा होगा।
फिर भी, अगर आंकड़ों की नजर से देखें तो एसपी और कांग्रेस जब अलग-अलग चुनाव लड़ा तो 57 सीटों पर बढ़त हासिल की, इसके अलावा दोनों दलों अन्य 50 सीटों पर बीजेपी को कड़ी टक्कर भी दी जो इस बात का इशारा है कि अब पलड़ा किसी भी ओर झुक सकता है। इन 50 में से 11 सीटों पर ये दल बीजेपी से 5000 से भी कम वोटों से पीछे थे, 19 सीटों पर 10,000 से कम वोटों से और 20 सीटों पर 20,000 वोटों से पीछे।
ऐसे में अगर यह मान लिया जाए कि मोदी लहर कायम है और लोगों ने ठीक 2014 की ही तर्ज पर मतदान किया तो ये दोनों मिलकर 57 सीटें जीत सकते हैं और 50 सीटों पर बीजेपी को कड़ी टक्कर दे सकते हैं, और ऐसे में पलड़ा बीजेपी का ही भारी होगा। लेकिन कांग्रेस-सपा दोनो ही दल बदले हुए हालात को देखते हुए उम्मीद कर रहे हैं कि वे 202 के जादुई आंकड़े को पार कर जाएंगे। इस संभावित गठबंधन के लिए सबसे बेहतर स्थिति होगी 2012 के चुनाव जैसा परिणाम हो, 2012 के चुनाव में एसपी ने 29.3त्न वोट शेयर के साथ 224 सीटें जीती थीं, कांग्रेस ने 11.7त्न के साथ 28 सीटें। दूसरी ओर, बीजेपी का वोट शेयर था 15त्न और उसने 47 सीटें जीती थीं। ऐसे में सीधा सा गणित है कि गठबंधन को आसानी से बहुमत हासिल हो जाएगा।
लेकिन 2012 और 2017 के हालात में बहुत अंतर हैं, इसके साथ ही वोटिंग पैटर्न अधिकतर इस बात पर भी निर्भर करता है कि जमीनी स्तर पर क्या हालात हैं और पार्टियों की अपने वोट बैंक पर कितनी मजबूत पकड़ है। गठबंधन तभी अच्छे नतीजे दे सकता है जब एक दल अपना वोट सहयोगी दल के खाते में ट्रांसफर करवाने में कामयाब रहे। 1996 में कांग्रेस और बीएसपी के बीच इसी तरह का गठबंधन कामयाब नहीं हो पाया था। बीएसपी ने तब 19.64 फीसदी वोट के साथ 67 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 8.35 वोटों के साथ 33 सीटें। बीएसपी अपना वोट कांग्रेस को ट्रांसफर करवाने में सफल रही थी, जबकि कांग्रेस को वोट देने वाले सवर्णों ने बीएसपी को वोट नहीं दिया था।
सपा-कांग्रेस गठबंधन तभी काम करेगा जब सपा अपना कोर वोट बैंक यानी यादव, मुस्लिम और कुछ अति पिछड़ी जातियों पर पकड़ बना कर रख सके। कांग्रेस को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि वह मुस्लिम, दलितों के एक वर्ग और ब्राह्मणों के एक वर्ग का समर्थन किसी भी हाल में हासिल करे। दोनों दल एक दूसरे को वोट ट्रॉन्सफर करवाएंगे, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
हालाकिं पिछले चुनावों के आंकड़े और यूपी में गठबंधन का इतिहास यही बताता है कि गठबंधन कुछ खास परिस्थितियों में ही अच्छे नतीजे दे भी सकता है। जो भी लेकिन यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा की गठबंधन से कितने समीकरण बदल पाये। लेकिन अभी तो मन में एक ही सवाल है कि यूपी चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन क्या चुनाव की तस्वीर बदलने की ताकत रखता है? 2014 के चुनाव में बाकी दलों को धूल चटाने वाली बीजेपी को क्या 2017 में यह गठबंधन रोक पाने की स्थिति में है? जो भी हो परिणाम दिलचस्प ही होगा।
: सत्यम सिंह बघेल