मांगलिक दौर में बांस की टोकरीयो का महत्व
श्योपुर, 25 अप्रैल (हि.स.)। परम्पराओं और संस्कृतियों पर आधुनिकता व अप-संस्कृति की गर्द भले ही छाती रहे लेकिन उसके वजूद को पूरी तरह से खत्म कर पाने का माद्दा कभी नहीं रखती। यह संभव होता है परिपाटियों को सहेजने और संरक्षित रखने में भरोसा जताने वालों की वजह से, जिनकी समाज में आज भी कोई कमी नहीं है। समाज के अभिन्न अंग माने जाने वाले इन्हीं संस्कृतिनिष्ठ परिवारों ने जहां लघु व कुटीर उद्योगों के अस्तित्व को सहारा देने का काम किया है। वहीं उन परम्परागत चीजों की महत्ता को बरकरार बनाए रखा है, जिनके वजूद के पीछे कोई न कोई सोच या सरोकार सुदीर्घकाल से मौजूद है।
जीवंत प्रमाण है बांस की बारीक खपच्चियों का उपयोग करते हुए पूरी कलात्मकता व कौशल के साथ तैयार की जाने वाली मजबूत, टिकाऊ और आकर्षक टोकरियां, जिनका उपयोग आज भी न केवल घरेलू कार्यों बल्कि तीज-त्योहारों से लेकर मांगलिक आयोजनों तक में किया जा रहा है और परम्पराओं के अक्षुण्ण बने रहने की स्थिति में बरसों तक किया जाता रहेगा। इन दिनों जबकि मांगलिक आयोजनों का सिलसिला जारी है तथा मांगलिक आयोजनों के महापर्व आखातीज की अगवानी से पूर्व मांगलिक कार्यक्रमों की तैयारियों का उल्लास नगरीय व ग्रामीण जनमानस पर हावी बना हुआ है।
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हस्तनिर्मित टोकरियों से आजीविका चलाने वाले कामगारों की मौजूदगी उनके अपने घरेलू उत्पादों के साथ नगरी के ह्रदयस्थल पर नजर आ रही है, जिन्हें न केवल ग्राहक हासिल हो रहे हैं बल्कि समयोचित सम्मान व उचित दाम भी मिल रहे हैं। ज्ञातव्य है कि शादी-विवाहों में मिठाइयां बांधे जाने से लेकर अन्यान्य वस्तुओं के संग्रहण तक में पारम्परिक सूपों और टोकरियों का उपयोग किया जाता है तथा यह सिलसिला पीड़ी-दर-पीड़ी उस दौर में भी चला आ रहा है। जब घरेलू व्यवस्थाओं से लेकर कारोबारी माहौल तक प्लास्टिक और रबर से निर्मित मशीनी उत्पादों का दबदबा बना हुआ है।
आदिकाल से पवित्र और उपयोगी माने जाने वाले बांस को श्रमपूर्वक छीलकर बारीक तीलियों में तब्दील करते हुए श्रमसाध्य बुनावट के साथ तैयार की जाने वाली टोकरियों और सूपों के साथ-साथ गर्मी में हवा देने वाले पंखों (बीजणी) और झाडुओं का बाजार शहर से लेकर गांव-देहात तक हमेशा एक जैसा रहा है। खास बात यह है कि श्योपुर नगरी में लघु या घरेलू उद्योग के तौर पर शिल्पकारी को आजीविका के तौर पर अपनाने वाले कामगारों में अधिकता बाल्मिकी समाज के सदस्यों की है जो मांगलिक आयोजनों के दौर में प्रयोजनवश ले जाई जाने वाली टोकरियों और सूपों के बदले उचित कीमत ही नहीं बल्कि शगुन के तौर पर नेग तक हासिल करते हैं। कथित विकासशीलता के दौर में परम्पराओं के नजरिए से देखा जाए तो शगुन के प्रतीक लाल रंग के महावर की लकीरों से सजी बांस की साधारण सी इन टोकरियों को सामाजिक समरसता की उस परम्परा का असाधारण संवाहक भी समझा जा सकता है। जो सदियों से उपेक्षित एक समुदाय के सम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनती आ रही हैं।