मुंबई, 02 दिसम्बर = मुंबई महानगरपालिका का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, भारतीय जनता पार्टी की सबसे निकटस्थ सहयोगी शिवसेना के साथ रिश्ते में खटास आती दिख रही है। राजनीतिक हलके में इस खटास को लेकर अलग-अलग अर्थ लगाए जा रहे हैं, लेकिन जिन लोगों ने दोनों दलों को शुरू से देखा है, उनके लिए यह खटास किसी भी एंगल से नई नहीं लग रही है। हालांकि इस समय भाजपा की और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जितनी अधिक आलोचना शिवसेना द्वारा की जा रही है, उतनी आलोचना तो मोदी का कट्टर विरोधी कांग्रेस वाले यहां तक कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी करते नहीं दिख रहे हैं। इसके बावजूद दोनों दलों में सामंजस्यपूर्ण व्यवहार शायद उनकी रणनीति तुही से रार, तुही से प्यार का ही हिस्सा है। इसे किसी भी कीमत पर नकारा नहीं जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की चुनावी युति की शुरुआत 1980 के दशक से हुई थी और दोनों दलों ने उस समय अपने अस्तित्व को कायम रखने की लड़ाई एक दूसरे के कंधों के सहारे जारी रखना शुरू किया था। उस समय शिवसेना प्रमुख स्व. बालासाहेब ठाकरे तथा पूर्व कंंद्रीय मंत्री स्व. प्रमोद महाजन इस अभूतपूर्व युति के शिल्पकार थे। ऐसा नहीं है कि दोनों दलों में तकरार इससे पहले नहीं हुई , लेकिन इन दोनों महानुभावों की वजह से तकरार बाद में प्यार में बदलती रही है, जिसका जीता जागता उदाहरण राज्य व केंद्र में भाजपा शिवसेना की सत्ता के रूप में देखा जा सकता है। शुरुआत में दोनों दलों की विचारधारा अलग-अलग थी। दोनों दलों की कार्यशैली भी अलग-अलग थी। एक नरम दल तो दूसरा गरम दल। एक आक्रामक तो दूसरा शांत। लेकिन दोनों दलों को एकसूत्र में पिरोने का काम हिंदूत्व ने किया। दोनों दलों की समान विचारधारा हिंदूत्व को लेकर थी, इसीलिए जब भी दोनों दल एक-दूसरे से दूर होने का प्रयास करते तो यही हिंदूत्व दोनों दलों को एकसाथ एक धागे में पिरो देता रहा है। इसी हिंदूत्व की वजह से मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोट के बाद दोनों दलों ने मिलकर मुंबई में जो अमिट छाप छोड़ी, इससे 1995 में मुंबई सहित राज्य की जनता ने यहां की सत्ता भाजपा व शिवसेना के हवाले कर दिया था। इतना ही नहीं उसके बाद देश की सत्ता भी भाजपा व शिवसेना के पास आ गई थी और दोनों दलों ने मिलकर पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में देश को अच्छी सरकार भी दिया था।
मुंबई महानगरपालिका की सत्ता पर शिवसेना – भाजपा ने एक साथ युति कर अपना परचम तो बहुत पहले ही लहरा दिया था, जो अगर साढ़े चार साल का अपवाद छोड़ दें तो पिछले चार दशकों से बरकरार है। राज्य तथा देश में भले ही कांग्रेस ने राज किया हो, लेकिन मुंबई महानगर पालिका की सत्ता मुंबई वासियों ने हमेशा शिवसेना व भाजपा को ही सौपने में सकून महसूस किया । इसका कारण दोनों दलों ने हमेशा मुबई वासियों की सुविधाओं को प्राधान्य देने का प्रयास किया है। मुंबई में स्वास्थ्य संबंधी सेवा तो आज ही पूरे देश से सर्वोत्तम है। देश के कोने-कोने से लोग यहां इलाज कराने के लिए आते हैं और यहां बगैर भेदभाव से हर किसी का सस्ते में और अच्छे डाक्टरों द्वारा जो इलाज किया जाता है, जो अन्य कहीं भी मुमकिन नहीं है। यह सेवा मुंबई महानगरपालिका संचालित अस्पतालों द्वारा दी जा रही है। इसी तरह यहां हर तरह की सुविधा लोगों को मिल रही है और दोनों दलों ने मिलकर अपने आपको सुविधा का पर्याय बना लिया है। लेकिन आगामी मनपा चुनाव में किसका महापौर बनेगा , इसे लेकर दोनों दलों में द्वंद्व शुरू हो गया है। इसी द्वंद्व का नतीजा है कि इस समय दोनों दलों के कार्यकर्ता एक दूसरे के सामने ताल ठोंकने को तैयार हैं|
राज्य में 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद दोनों दलों में वर्चस्व की लड़ाई को लेकर जो द्वंद्व शुरू हुआ है, वह फिलहाल समाप्त होते नहीं दिख रहा है। उस समय दोनों पहली बार आमने-सामने चुनाव लड़े और आशातीत सफलता हासिल करते हुए विपक्ष का सफाया करने में सफल रहे। भाजपा को राज्य की कुल 288 सीटों में से 123 सीटें हासिल हुई, जो कि भाजपा सर्वाधिक अच्छा प्रदर्शन के रूप में देखा गया। उस समय कांग्रेस व राकांपा को सबसे कम सीटें मिल सकीं थीं। विधानसभा चुनाव में भी दोनों दलों ने एकदूसरे के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया था। इसी तरह कल्याण-डोंबिवलीमनपा चुनाव में दोनों दलों के कार्यकर्ता एक दूसरे के विरुद्ध हाथापाई तक उतर आए थे, लेकिन जब मतगणना हुई तो भाजपा ने सत्ता काबिज की तथा शिवसेना दूसरे क्रमांक पर रही।
कल्याण -डोंबिवली मनपा में तो विपक्ष का सूपड़ा ही साफ हो गया था,कांग्रेस, राकांपा तथा मनसे का दूर- दूर तक नामोनिशान मिट चुका था। कहने का मतलब भाजपा ने अपनी बढ़ता को कायम बनाए रखा था। हालही में संपन्न नगर निकाय चुनाव में भी भाजपा को वर्चस्व मिला है। इसे देखते हुए अब भाजपा मुंबई में अपना महापौर बनते देखना चाहती है और दोनों दलों में सीटों को लेकर युति का स्थायित्व टिका हुआ है। भाजपा ने शिवसेना को मुंबई महानगरपालिका की कुल 227 सीटों में से 110 सीटें देने की मांग करना शुरू कर दिया है ,लेकिन शिवसेना की ओर से महज 80 सीटें दिए जाने की बात की जा रही है। हालांकि इससे पहले शिवसेना ज्यादा सीटें खुद अपने पास रखा करती थी और भाजपा को कम सीटें दिया करती थीं। भाजपा का कहना है कि उसकी ताकत बढ़ी है, इसलिए उसे ज्यादा सीटें किसी भी कीमत पर चाहिए।
सीटों की मांग का विवाद इससे पहले शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे तथा प्रमोद महाजन जिस तरीके से हल कर लिया करते थे, शायद अब वह संभव नहीं है। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे तथा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस में इस समय तालमेल बहुत ही अच्छा है। यही वजह है कि भले ही राममंदिर स्टेशन के उद्घाटन के मौके पर दोनों दलों के कार्यकर्ताओं ने एक-दूसरे दल के नेता के विरुद्ध घोषणाबाजी की, लेकिन प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में उद्धव ठाकरे ने बिना किसी भी तरह की खींचतान करते हुए शामिल होना उचित समझा। हालांकि अरब सागर में शिवस्मारक का जलपूजन के बाद भी दोनों दलों के कार्यकर्ताओं का एकदूसरे दल के नेता के विरुद्ध नारेबाजी देखने को मिली थी। हालही में मुख्यमंत्री के विरुद्ध नाराजगी शिवसेना ने सोमवार को सुबह दिखाई और शहर में बैनर व पोस्टर लगाए, लेकिन दोपहर को मुंबई महानगर पालिका में आयोजित कार्यक्रम में दोनों नेता साथ में नजर आए और एक दूसरे के कार्यों की तारीफ भी खूले दिल से किया है।
आम तौर पर विपक्ष को राजनीति से दूर करने का प्रयास दोनों दलों की ओर से जिस तरीके से किया जा रहा है , यह एक अलग तरह का ही अनुभव है। राज्य में इस समय कई राजनीतिक दल है लेकिन फिलहाल 5 प्रमुख दल भाजपा , शिवसेना ,कांग्रेस , राकांपा तथा मनसे मुख्य भुमिका में जनता के समक्ष हैं। कांग्रेस व राकांपा भले ही मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभा रहे हैं ,लेकिन दोनों आम जनता की आवाज बनने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसी नीति अथवा निर्णय का विरोध सर्वप्रथम शिवसेना द्वारा ही किया जाता है ,जबकि कांग्रेस व राकांपा सरकार का विरोध करने में भी शिवसेना से पीछे ही रह जा रहे हैं।
इतना ही नहीं राज्य सरकार के निर्णयों का भी विरोध आम तौर पर शिवसेना द्वारा ही जिस धारदार तरीके से किया जा रहा है, विपक्ष के विरोध में उतनी धार नहीं दिखती है। इससे मुंबई वासी के समक्ष इस समय दोनों दलों का प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। नोटबंदी जैसे प्रधानमंत्री के निर्णय का विरोध कांग्रेस ने शुरू तो किया ,लेकिन उसका विरोध किसी भी तरह कारगर तरीके से आम जनता तक नहीं पहुंच सका। इतना ही नहीं नोटबंदी का पहले राकांपा ने स्वागत किया लेकिन अब विरोध शुरू किया जा रहा है। इस प्रकार विपक्ष विरोध करने के लिए भी एकजुट नजर नहीं आ रहा है इसके उलट दोनों दल विरोध का क्रेडिट लेने के लिए विरोध भी अलग- अलग कर रहे हैं। उदाहरणस्वरुप नोटबंदी का विरोध कांग्रेस 8 जनवरी को कर रही है और राकांपा 9 जनवरी को करने वाली है जबकि इस समय नोटबंदी से लोगों को होनेवाली समस्या कम हो गई है। इसलिए यह विरोध कितना प्रभावी होगा , यह कहना अभी से मुश्किल ही है। इस प्रकरण में अगर मनसे की चर्चा न की जाए तो बेमानी ही होगी। मनसे की उत्पत्ति ही शिवसेना से हुई है और शुरु में इसे आशातीत सफलता मिली भी थी, लेकिन मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे इस सफलता को अपने पाले में ज्यादा दिनों तक रखने में सफल नहीं हो सके जिससे मनसे का ग्राफ दिन प्रतिदिन गिरते चला जा रहा है।
हालांकि राज ठाकरे चमत्कारिक नेता के रुप में जाने जाते हैं , इसलिए आगामी मुंबई महानगरपालिका में अगर वह कोई चमत्कार करते हैं तो मनसे निर्णायक अवस्था तक पहुंच सकती है। इसी तरह जनता दल, वामपंथी दलों का अस्तित्व लगभग न के बराबर हो गया है, समाजवादी पार्टी को चुनौती देने के लिए एमआईएम खुद मैदान में आ गई है। इसलिए आगामी मुंवई महानगरपालिका के चुनाव में भले ही शिवसेना ,भाजपा , कांग्रेस तथा राकांपा आमने -सामने हो,लेकिन असली लड़ाई अगर युति में समझौता नहीं हो सका तो भारतीय जनता पार्टी तथा शिवसेना के बीच होना तय माना जा रहा है।