चिंतनीय है लाखों छात्रों का हिंदी में फेल होना
– डॉ. रमेश ठाकुर
अपनी मातृभाषा हिंदी के साथ हमारा रवैया क्या है, उसकी डरावनी तस्वीर सामने आयी है। बीते 27 जून को घोषित उत्तर प्रदेश के हाईस्कूल-इंटर की परीक्षा परिणामों में कई लाख छात्र हिंदी विषय में फेल हो गए। निःस्संदेह देश के सबसे बड़े हिंदीभाषी सूबे से यह संकेत चिंता बढ़ाने वाला है। हिंदुस्तान को हिंदी का मायका कहा गया है। इसी मिट्टी में उसका जन्म हुआ लेकिन लगातार तीन वर्षों से छात्रों का हिंदी में कम अंक लाना, गंभीर चिंता पैदा करता है। उत्तर प्रदेश की हाईस्कूल और इंटर की परीक्षा में 7,97,826 परीक्षार्थी अनिवार्य विषय हिंदी में असफल होना, बेहद खतरनाक संकेत है। पिछले दो वर्ष तो इससे भी बुरे रहे। 2018 में दस लाख तो 2019 में हाईस्कूल और इंटर दोनों मिलाकर 9,98,250 परीक्षार्थी हिंदी में धराशायी हुए थे। यह सिलसिला इसबार भी जारी रहा। 10वीं में सर्वाधिक 5,27,866 और 12वीं में 2,69,960 परीक्षार्थी हिंदी में फेल बताए गए हैं।
हिंदी से हमारी सांस्कृतिक पहचान है। हिंदी, हिंद और हिंदुस्तान तीनों का आपस में गंगा-जमुना जैसा संगम रहा है। फिर क्यों हिंदी का मान दिनोंदिन गिर रहा है। हमारी घरेलू और देसी जुबान क्यों दूसरी भाषाओं के आगे उपेक्षित हो रही हैं। युवा पीढ़ी क्यों हिंदी को पसंद नहीं करती। अगर ऐसा ही रहा तो एकाध दशकों बाद हिंदी खुद के वजूद के लिए संघर्ष करती दिखाई देने लगेगी। वैसे भी कई क्षेत्रीय भाषाएं लुप्त हो ही चुकी हैं। अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं का हिंदुस्तान में प्रसार हो, इसमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन कम से कम हिंदी के लिए मुसीबत तो न बनें। क्यों लोग हिंदी को त्यागकर अंग्रेजी अपनाने को लालायित हैं।
इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि अंग्रेजी के प्रति बढ़ते मोह ने छात्रों-अभिभावकों को कहां लाकर खड़ा कर दिया। इस तस्वीर पर गौर से सोचें तो पता चलता है कि हिंदी के प्रति पहले जैसी गंभीरता अब न छात्रों में रही और न शिक्षकों में। हिंदी का युग बदल चुका है। छात्रों के लिए हिंदी उनकी प्राथमिकताओं से दूर हो चुकी है। सोचने वाली बात है, जिस राज्य ने देश को उच्च चोटी के हिंदी के विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, वहां के लोग अब हिंदी से लगाव नहीं रखते। अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व ने हिंदी के प्रति विमुख बना दिया है। प्रत्येक अभिभावकों की यही चाहत होती है कि बच्चा फर्राटेदार अंग्रेजी बोले। हुकूमतें या संपन्न लोग, हिंदी को बढ़ावा देने की बातें तो करते हैं पर सच्चाई यह भी है कि अपने बच्चों को टाॅप के इंग्लिश स्कूलों में ही पढ़ाते हैं। हिंदी सिर्फ नारों तक सिमटती जा रही है।
गौरतलब है, पश्चिमी हवा जिस गति से हमारे यहां चल रही है उसमें देसी और खांटी की परंपरागत संस्कृति उड़ती जा रही है। यही कारण है, बदलते माहौल में लोग हिंदी भाषा को कमतर रूप में देखने लगे हैं। अंग्रेजी का चारों ओर बोलबाला है। जिसे अंग्रेजी पढ़नी-बोलनी आती है उसे बेहद शिक्षित समझा जाता है, फिर चाहे उसे दूसरी भाषाओं को ज्ञान कतई न हो। वहीं, ठेठ हिंदी बोलने वाला, चाहे कितना भी निपुण क्यों न हो, उसे देहाती ही समझा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं छात्रों के दिलो-दिमाग में ये बात घर करती जा रही है कि हिंदी के बूते भविष्य में रोजी-रोटी का जुगाड़ करना शायद संभव नहीं इसलिए उसी रास्ते पर चला जाए, जिसपर दूसरे लोग हैं। दिक्कत यहीं से शुरू हुई, जब लोगों यह महसूस करना आरंभ किया, हिंदी से उन्होंने पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया। अपने बच्चों को हिंदी मीडियम स्कूलों की जगह अंग्रेजी मीडियमों में पढ़ाना आरंभ कर दिया।
अंग्रेजी के प्रति लोगों का मोह ज्यादा पुराना नहीं बल्कि दो दशक पहले से शुरू हुआ, जो इस वक्त कहां आकर रुका है। प्रतिदिन दो सौ रुपए कमाने वाला रिक्शा चालक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी का ज्ञान दिलवाना चाहता है। अंग्रेजी अब शहरों तक सीमित नहीं रही, उसकी जड़ें गांव-कस्बों तक फैल गई हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा में एक साथ लाखों बच्चों का हिंदी में फेल होना दर्शाता है कि आने वाला वक्त हिंदी के लिए कैसा होने वाला है। इसे लेकर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी का हाल संस्कृत जैसा होगा। 21वीं सदी में जन्म लेने वाले बच्चे संस्कृत भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा जैसे हिंदी पट्टी राज्यों में हमेशा से हिंदी का बोलबाला रहा है लेकिन एकाध दशकों में वहां के हालात एकदम बदले। हिंदी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश में हाईस्कूल व इंटरमीडियट में हजार नहीं, लाख नहीं बल्कि एकसाथ कई लाख छात्र अपनी मातृभाषा हिंदी में मात खा गए।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में केंद्र सरकार कोई कसर नहीं छोड़ रही। छह वर्ष पूर्व जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने वित्त-फाइनेंस जैसे मंत्रालयों में भी बोलचाल के तौर पर हिंदी को अनिवार्य किया। दूसरे मंत्रालयों में भी यही नियम लागू किया गया। बावजूद इसके हिंदी की ऐसी दुर्दशा हो गई। परीक्षाओं में हिंदी विषय में कई लाख छात्रों के असफल होने और हमारी राष्ट्रभाषा के नारों के बीच ये स्थिति बताती है कि हिंदी को लेकर न सिर्फ छात्र बेखबर हैं बल्कि शिक्षक-अभिभावक भी अब पहले जैसे गंभीर नहीं हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)