महिलाएं: लॉकडाउन की लाइफ लाइन
– डॉ. राकेश राणा
महिलाएं दुनिया में लॉकडाउन की सफलता का आधार बनकर मजबूत संचालक शक्ति के रूप में उभरी। बावजूद इसके कि लॉकडाउन का महिलाओं के जीवन पर हर तरह से बुरा असर पड़ा है। इस दौरान दुनिया भर में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई। महिलाओं पर पारिवारिक हिंसा की घटनाएं अमेरिका, यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, चीन, स्पेन, इटली और भारत समेत सब जगह बड़े स्तर पर दर्ज हुई हैं। परिणाम महिलाएं लॉकडाउन के दौरान भारी मानसिक दबावों में जीने को मजबूर रही। ऊपर से महामारी का भय अभी भी बराबर बना हुआ है। महिलाएं अपने परिवार के प्रति बहुत सरोकारी स्वभाव रखती हैं। इसी प्रवृत्ति के चलते अपनी और अपने परिजनों की चिंता उन्हें और भी गहरे अवसाद में धकेल रही है।
पूरी दुनिया के काम भले ही थम गए हों और पहले से कम हो गए हों। पर महिलाओं के काम तो घर में रहते हुए भी कई गुना बढ़े हैं। घर के बाहर विभिन्न क्षेत्रों में कामकाजी महिलाएं अपनी सेवाएं दे रही हैं। लॉकडाउन के दौरान उनपर पहले से भी ज्यादा काम का बोझ आया है। वास्तव में तो सफल लॉकडाउन की आधारशिला महिलाएं ही बनी हैं। काम के दोहरे दबावों के बीच घर में मौजूद पुरुषों के बेतुके बयान व सलाहें, छोटे बच्चों की उलूल-जुलूल मांगें और बुजुर्गों की अतिरिक्त अपेक्षाएं। इन सबने मिलकर महिलाओं की दिनचर्या को अतिरिक्त दबावों और कार्यों से बेहद बोझिल बना दिया। इससे स्पष्ट है कि लॉकडाउन की लाइफ-लाइन महिलाएं ही बनी हैं। यहां तक कि जो महिलाएं घरेलू कामकाज तक सीमित थीं उनके संकट भी कोरोना संकट के साथ गुणात्मक रूप में बढ़े हैं। चूंकि लॉकडाउन के कारण घर में काम पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। परिणाम उनके कामकाज के घंटे लगभग दोगुने हो गए हैं।
दुनिया में अचानक आए इस संकट से लोगों के काम-धंधे चौपट हुए हैं तो उनके मानसिक तनाव बढ़ेंगे ही, लोग आर्थिक दबाव में आयेगे ही। जिसके परिणाम समाज में बढ़ते तनाव, अवसाद और अपराधों में उभरकर सामने आ रहे हैं। घरेलू हिंसा का बढ़ना इसी क्रम का एक अपरिहार्य परिणाम मनोवैज्ञानिक मान रहे हैं। पर यह बात मनोवैज्ञानिकों की मान भी ली जाए तो भी, एक बड़ा और गंभीर सवालिया निशान तो सभ्य समाज पर है ही। कि क्या पुरुष अकेले इस संकट का सामना कर रहे हैं? क्या यह खतरा घर में दुबके बैठे सिर्फ पुरुषों पर ही है? क्या ऐसी महामारी में भी पुरुष-वर्ग महिलाओं के प्रति संवेदनशील सोच नहीं रखता है? क्या महिलाएं इंसान नहीं है? ये तमाम वे मौजूं सवाल हैं जो आज के तथाकथित 21वीं सदी के आधुनिक कहे जाने वाले सभ्य समाज के गले में अटके हैं।
चीन में तो लॉकडाउन के दौरान महिला हिंसा की घटनाओं में तीन गुना तक की बढ़ोतरी हो गयी है। वहीं स्पेन की सरकार महिलाओं को हिंसा से बचने के अजीब-अजीब तरीके सुझा रही है। कि महिलाएं हिंसा के समय स्वयं को बाथरूम में बंद कर लें। इटली सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं को निर्देशित किया कि चौबीसों घंटे महिलाओं की काउंसिलिंग और सहायता के लिए हेल्पलाइन उपलब्ध कराएं, सरकार इसके लिए तत्पर है। फ्रांस ने तो इस संकट को बढ़ता देख और हिंसा को हद से गुजरता देख, फ्रांसिसी महिलाओं के लिए यहां तक किया कि अगर महिलाएं पुलिस में शिकायत करने की हिम्मत न जुटा पाएं तो उनके लिए एक गुप्त कोड की व्यवस्था की गई है। महिलाएं पास के किसी मेडिकल स्टोर पर जाकर मास्क-19 मांग ले बस। अगर वे अपने ऊपर हुई किसी भी तरह की हिंसा या यातना का सामना कर रही हैं तो, मास्क-19 सुनते ही केमिस्ट की यह जिम्मेदारी है कि उस पीड़ित महिला की घरेलू हिंसा से रक्षा-सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। महिला हिंसा के निरन्तर बढ़ते मामलों को देख स्पेन सरकार ने भी इस मॉडल को अपने यहां अपनाने का फैसला लिया।
दुनिया भर में इतना लम्बा लॉकडाउन महिलाओं के कंधों पर सवार होकर सफल होने की तरफ बढ़ रहा है पर शर्म की बात यह है कि महिला हिंसा का ग्राफ भी उसी के समानान्तर बढ़ा है। यह सत्य है कि लॉकडाउन की सफलता का मुख्य आधार महिलाएं ही है। इतिहास में उन्हें कोरोना काल की लाइफ-लाइन माना जाएगा। क्योंकि लॉकडाउन में समाज, सरकार और बाजार सबके काम कम हुए, लगभग रुके रहे है। वहीं दुनिया की आधी-आबादी महिलाएं इस संकट से जूझने में दोगुनी मशक्कत के साथ जुटी रही है। क्योंकि महिलाओं के काम में तो गुणात्मक ढंग से वृद्धि हुई है। गृह कार्यों, खान-पान से लेकर दैनिक रुटीन में उपभोग का ग्राफ बढ़ गया है। इसमें खतरनाक यह हुआ कि लॉकडाउन से उपजी स्थितियों, परिस्थितियों और मनःस्थितियों का सारा दबाव महिलाओं पर पड़ा है। आर्थिक-राजनीतिक दबावों से उपजे तनावों से घर का वातावरण जिन तनाव की जकड़ में आया है, उसका पहला और आसान शिकार महिलाएं हुई हैं। पूरी दुनिया में महामारी से उपजे इस संकट के दौरान देखने में आया है कि बच्चों में बढ़े चिड़चिड़ेपन की सारी खपत मां के आंचल में ही होती है। दुनिया के मर्द परिस्थितियों से उपजे तनाव और गुस्से की जकड़न में मूर्छित है। यहीं उसके हजार दुखों की एक बड़ी वजह है। जिसके चलते परिवार के परिवार परेशान है। दुनिया में महिला हिंसा का आंकड़ा इसी मर्दवादी हीन-ग्रंथि की विष-बेल से बढ़ता है।
दुनिया में इस लॉकडाउन को जिन कुछ नकारात्मक और सकारात्मक प्रवृत्तियों के लिए याद रखा जायेगा। उनमें सांप्रदायिकता का सवाल सबसे ज्यादा सालने वाला होगा। वहीं नस्ल, जाति और वर्गीय भेदभाव के वीभत्स दृश्य सभ्य विश्व-समाज पर बड़े सवालिया निशान छोड़ गए है। लॉकडाउन ने एकबार फिर तथाकथित सभ्य समाज की उन सिलाईयों को उधेड़ फेंका है जो पुरुष वर्चस्व वाली दुनिया में महिलाओं के प्रति हिंसात्मक रवैये और महिला विरोधी सोच के घटिया व्यवहार को अक्सर कवर करे रखती है। इस कड़वी सच्चाई को सतह पर लाने का काम भी कोविड-19ः लॉक-डाउन ने बखूबी किया। पितृसत्तात्मक सोच पुरुषों की धमनियों में लहू के साथ बहती है, यह एकबार फिर जगजाहिर हुआ। आधुनिक सभ्यता का यह कलंकित कोना महिलाओं के प्रति हिंसक वारदातों के अंबार के आर्काइव्ज की तरह इन घटनाओं के घटित होने के प्रमाण सहेज रहा है। साथ ही उस सकारात्मक योगदान के लिए भी महिलाएं ही बढ़त बनाए हुए है जो इस लान्ग लॉकडाउन की लाइफ लाइन बनकर अड़ी रही और खड़ी रहीं। उन्हीं की कड़ी मेहनत के बल पर दुनिया इस लड़ाई को जीतने की तरफ बढ़ती रही। मातृ-शक्ति तुझे सलाम।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)