क्यों पुलिस पर भारी पड़ते गुंडे
– आर.के. सिन्हा
उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक शहर कानपुर में राज्य पुलिस के एक डीएसपी समेत आठ जवानों का गुंडागर्दी का शिकार होकर शहीद होना चीख-चीखकर कह रहा है कि देश में खाकी का भय खत्म होता जा रहा है। कानपुर न तो कश्मीर है और न ही नक्सल प्रभावित इलाका। इसके बावजूद रात में बदमाशों की फायरिंग में आठ जवानों के मारे जाने से बहुत से सवाल खड़े हो रहे हैं। शहीद पुलिस वाले हिस्ट्रीशीटर विकास दूबे को गिरफ्तार करने गए थे। उसके बाद वहां जो कुछ हुआ वह सबको पता है। विकास दूबे और उसके गुर्गे अब बचेंगे तो नहीं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अचानक पुलिस पर हिंसक हमले क्यों बढ़ रहे हैं?
मौजूदा कोरोना काल के दौरान भी पुलिस पर हमले हो रहे हैं। जबकि देशभर में पुलिस का अति संवेदनशील और मानवीय चेहरा उभरकर सामने आया है। कुछ समय पहले पंजाब में एक सब इंस्पेक्टर का हाथ काट दिया गया था। उसका आरोप था कि उसने पटियाला में बिना पास के सब्जी मंडी के अंदर जाने से कुछ निहंगों को रोका था। रोका इसलिए था क्योंकि तब कोरोना के संक्रमण चेन तोड़ने के लिए सख्त लॉकडाउन की प्रक्रिया चल रही थी। बस इतनी-सी बात पर निहंगों ने उस पुलिस कर्मी का हाथ ही काटकर अलग कर दिया था। हमलावर निहंग हमला करने के बाद एक गुरुद्वारे में जाकर छिप गए थे। गुरुद्वारे से आरोपियों ने फायरिंग भी की और पुलिसवालों को वहां से चले जाने के लिए कह रहे थे। खैर, उन हमलावर निहंगों को पकड़ लिया गया था। पर जरा उनकी हिम्मत देखिए। कुछ इसी तरह की स्थिति तब बनी थी जब पीतल नगरी मुरादाबाद में कोरोना रोगियों के इलाज के लिए गए एक डॉक्टर पर उत्पाती भीड़ द्वारा सुनियोजित हमला बोला गया। उस हमले में डॉक्टर लहूलुहान हो गये थे। खून से लथपथ उनके चेहरे को सारे देश ने देखा था।
सोचने वाली बात यह है कि अगर पुलिस का भय आम आदमी के जेहन से उतर गया तो फिर बचेगा क्या? क्या हम जंगलराज की तरफ बढ़ रहे हैं? कोई देश कानून और संविधान के रास्ते पर ही चल सकता है। गुंडे-मवालियों का पुलिस को अपना बार-बार शिकार बनाना इस बात का ठोस संकेत है कि पुलिस को अपने कर्तव्य के निवर्हन के लिए नए सिरे से सोचना होगा। क्या यह माना जाए कि पुलिस महकमे में कमजोरी आई है, जिसके चलते पुलिस का भय सामान्य नागरिकों के जेहन से खत्म हो रहा है? कानपुर की घटना से कुछ दिन पहले हरियाणा के सोनीपत जिले में गश्त कर रहे 2 पुलिसवालों की भी हत्या कर दी गई थी। दोनों पुलिसकर्मियों को शहीद का दर्जा दिया जा रहा है। यह उचित निर्णय है। दोनों पुलिसवालों एसपीओ कप्तान व हवलदार रविंद्र के शव बुरी तरह से क्षत-विक्षत थे। प्रथम दृष्टया जो बात सामने आ रही है उसके मुताबिक, दोनों पुलिसवालों की हत्या किसी धारदार हथियार से की गई लगती है। गौर करें कि बदमाशों ने चौकी से थोड़ी ही दूर पर इस वारदात को अंजाम दिया। यानी कहीं भी पुलिस का डर दिखाई नहीं दे रहा है।
अपराधियों के दिलो-दिमाग में पुलिस का भय फिर से पैदा करने के लिए जरूरी है कि सर्वप्रथम सभी राज्यों में पुलिसकर्मियों के खाली पद भरे जाएं। पुलिस वालों की ड्यूटी का निश्चित टाइम भी तय हो। आबादी और पुलिसकर्मियों का अनुपात तय हो। शातिर अपराधियों को पुलिस का रत्ती भर खौफ नहीं रहा। ये बेखौफ हो चुके हैं। ये पुलिस वालों की हत्या करने से तनिक भी परहेज नहीं करते। अब पुलिस को अधिक चुस्त होना पड़ेगा। अगर कानून की रक्षा करने वाले पुलिसकर्मी ही अपराधियों से मार खाने लगेंगे तो फिर सामान्य नागरिक कहां जाएगा?
कानपुर की भयानक घटना के कारणों पर चर्चा करते हुए इतना कहना होगा कि जब स्थानीय पुलिस को इस बात की पूरी जानकारी थी कि दूबे के पास भी एक निजी छोटी सेना और स्वचलित हथियार हैं तो फिर पुलिस क्यों रात 1:30 बजे बिना पूरी तैयारी के साथ गई? यह एक बड़ा सवाल है। स्पष्ट है कि दूबे के गैंग को जानकारी थी कि उनपर हमला हो सकता है। इसलिए उसने पुलिस बल पर उनके पहुंचते ही ताबड़तोड़ हमला कर दिया। यानी पुलिस प्रशासन के अंदर ही कुछ लोग दूबे के लिए निश्चित रूप से मुखबिरी कर रहे थे। अब खबरें आ रही हैं कि आरोप है कि यही दूबे एक राज्यमंत्री को थाने में ही मरवा देता है। इसके बावजूद उसे उस मामले में सेशन कोर्ट से बरी कर दिया जाता है, साक्ष्यों के अभाव में। क्या यह उस समय की पुलिस और प्रशासन की नाकामी नहीं है? यह नाकामियां और अपराधियों से मिलीभगत ही आज भारी पड़ गई कुछ परिवारों पर।
अगर आप पटियाला से लेकर कानपुर, मुरादाबाद आदि की घटनाओं का बारीकी से अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि जब-जब पुलिस पर हमले हुए या उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा तब तो मानवाधिकार संगठनों और वामपंथी सेक्यूलर वादियों ने कोई प्रतिक्रिया तक देना मुनासिब नहीं माना। मानवाधिकारवादी संगठनों के इस चरित्र को देश पंजाब में आतंकवाद के दौर से ही करीब से देख रहा है। अगर आतंकी या अपराधी मारा गया तो ये उनके हकों की बात उठाने के लिए तुरंत कूद पड़ते हैं लेकिन जब पुलिस वाला मारा जाता है तब ये नदारद हो जाते हैं। इनका यह दोगला चरित्र अब सबकी समझ में आ रहा है। क्या पुलिसवाले का हक नहीं है? क्या वह इंसान नहीं है? खैर, इनके चरित्र को देश ने कई बार देख लिया।
मुझे याद है कि लगभग बीस वर्ष पूर्व दिल्ली के रफी मार्ग स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में वामपंथी मानवाधिकारियों ने एक सेमिनार आयोजित किया था। उन दिनों सर्वोच्च न्यायलय में मुख्य न्यायाधीश के बाद वरिष्ठतम न्यायधीश न्यायमूर्ति पसायत होते थे। उन्हें अध्यक्षता के लिए बुलाया गया था। मैं न्यायमूर्ति पसायत को सुनना चाहता था। अत: पहुँच गया। एक-एक कर सारे वक्ता सरकार और पुलिस पर छूटकर गालियों की बौछार कर रहे थे। ज्यादातर झोलाधारी वामपंथी तालियों की गड़गड़ाहट कर रहे थे। अंत में जस्टिस पसायत ने संक्षिप्त अध्यक्षीय भाषण दिया जो आज के सन्दर्भ में भी मार्गदर्शन कर सकता है। उन्होंने कहा, “मानवाधिकार एक अच्छी चीज है। समस्त मानव जाति और कानून मानने वाले सभी नागरिकों को मानवाधिकार प्राप्त होना ही चाहिये। लेकिन, उन अपराधियों, उग्रवादियों, आतंकवादियों, नक्सलियों के लिए मानवाधिकार कैसा जो मानव जैसा व्यवहार ही नहीं करते।”
देखिए कानपुर की घटना के बहाने सारे देश की पुलिस पर बात करनी जरूरी है। सभी जगह से काहिल, करप्ट और कामचोर पुलिस वालों को बाहर करना होगा। पुलिस वालों को आम आदमी के साथ खड़ा होना होगा। कोराना काल में पुलिस की सराहनीय भूमिका को देश ने देखा है। पुलिस के सम्मान की बहाली जरूरी है। अन्यथा देश के कानून में यकीन रखने वाले नागरिकों के लिए देश में रहना कठिन हो जाएगा। सरकार को इनकी सेवा शर्तों में और सुधार करने होंगे। पुलिस वालों को ज्यादा अधिकार और बेहतर हथियार देने होंगे। आत्म रक्षार्थ गोली चलाने की छूट देनी होगी। मानवाधिकारों को पुनः परिभाषित करना होगा। तभी पुलिस बल स्वतंत्र होकर कार्य कर सकेगी। अब भी एक सामान्य पुलिस वाले को दिन में कम-से-कम 12 घंटे तक मुस्तैद रहना होता है। कभी-कभी तो उससे भी ज्यादा। बहुत साफ बात है कि कोई भी शख्स रोज 12-12 घंटे काम नहीं कर सकता। अगर आप उससे इतना काम लेंगे तो वह टूट जाएगा। यानी देश को अपनी पुलिस को फिर से एक सशक्त और कारगर बल के रूप में खड़ा करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)