गाँवः आर्थिक संयम की संस्कृति के केन्द्र
– हृदयनारायण दीक्षित
गाँव भारत की प्रशासनिक लोकतांत्रिक इकाई है और वैदिक काल से ही सांस्कृतिक इकाई भी। ग्रामों के आत्मीयता के बन्धन मधुर हैं। ऋग्वेद में भी ग्रामों की प्रतिष्ठा है। उस समय भी गाँव सांस्कृतिक इकाई थे। ऋग्वेद में ग्राम के प्रमुख को ग्रामणी कहा गया है। भारत को गाॅंवों का देश कहा जाता रहा है। ग्राम इकाई जर्मनी में भी थी। वहाॅं इस इकाई को मार्क कहा जाता था। गाॅंधीजी गाँवों को आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी बनाने के पक्षधर थे लेकिन स्वतंत्र भारत में गाँव की समृद्धि की उपेक्षा हुई। गाँव कृषि और पशुपालन से ही अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। कृषि क्षेत्र से जुड़े उपकरणों को बनाने वाले अन्य उपयोगी वस्तुओं के कारीगर गाँव में प्रतिष्ठित थे। इसके बावजूद गाँव में रोजगार के अवसर नहीं थे। गाँव के श्रमिक रोजगार के लिए महानगरों व अपने राज्यों के तुलना में अन्य विकसित राज्यों की ओर जाने लगे। श्रमिक अन्य देशों की ओर भी गये। अंग्रेजी राज्य में विशेष अनुबन्ध या एग्रीमेंट के माध्यम से वे अन्य देशों में भी गये। एग्रीमेंट के बन्धन के कारण उनका नाम गिरमिटिया मजदूर पड़ा। खाड़ी के देशों में भी भारत के ढेर सारे श्रमिक काम करते रहे हैं। भारत के भीतर अपने गाँव छोड़कर शहरों की ओर रुख करने वाले श्रमिक अपना गाँव नहीं भूले। वे महानगरों में कमाते थे और खाने-पीने से बचाया गया धन अपने परिवार को भेजते थे।
कोरोना आपदा ने सारा खेल बिगाड़ दिया है। जीविका के साथ जीवन का भी संकट आया। सबको अपने घर और गाँव की सुधि आयी। देश के सभी राज्यों ने अपनी क्षमता के अनुसार चिन्ता की लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मजदूरों के अन्य राज्यों की तुलना में महत्वपूर्ण काम किया है। उत्तर प्रदेश के लाखों प्रवासी मजदूर अन्य राज्यों में थे। सभी मजदूर अपने गाँव घर पहुँचने की शीघ्रता में थे। उत्तर प्रदेश सरकार ने युद्धस्तर पर सबको घर पहुँचाया। प्रवासी श्रमिकों की चिन्ता नई चेतना का विषय बना है। मुख्यमंत्री ने आयोग के गठन की भी घोषणा की है। उन्होंने पूरे राज्य में श्रमिकों की कुशलता का अध्ययन करवाने का फैसला लिया है। यह काम चल रहा है। श्रमिकों को अपने गाँव, क्षेत्र, जिला और राज्य में ही रोजगार देने के मुख्यमंत्री के फैसले से राज्य के श्रमिक उत्साहित और प्रसन्न हैं। सरकार की संवेदनशीलता राष्ट्रीय चर्चा का विषय है। देश के कई राज्यों में उत्तर प्रदेश के प्रवासी श्रमिकों द्वारा सेवाएं दी जाती रही हैं। योगी ने सभी श्रमिकों को काम देने का निर्णय, क्रियान्वित करने की दिशा में कदम उठाये हैं। अन्य राज्य चिन्तित हैं कि उन्हें कर्मठ और ईमानदार श्रमिकों की सेवायें आसानी से उपलब्ध नहीं हो पायेंगी।
गाँव आर्थिक संयम की संस्कृति के केन्द्र हैं। गाँव वाले गंवई और गंवार भी कहे जाते हैं। गंवार का अर्थ नासमझ से लिया जाता रहा है, लेकिन गंवार का असली अर्थ गाँववाला है। गाँव की परिभाषा और व्याख्या करना आसान नहीं है। यहाँ अभाव के बावजूद संतोष के छन्द हैं। गाँव का अपना व्यक्तित्व है। दुनिया के सभी महानगर ग्रामीण श्रमिकों की कृषि उत्पादन शक्ति और महानगरों के निर्माण करने वाली श्रम शक्ति का परिणाम है। हड़प्पा सभ्यता को नगरीय सभ्यता कहा जाता है। इस सभ्यता का विकास और निर्माण नगरीय सभ्यता ने नहीं किया। इसके पीछेे सिंधु, सरस्वती के विशाल भू-भाग में फैले गाँवों की श्रमशक्ति का ही कौशल रहा है। गाँव के लोग शत प्रतिशत आस्तिक हैं। अपने श्रम के विश्वासी हैं। वे आस्थावादी हैं। अध्यात्मवादी भी हैं।
गाँवों में विचार विविधता है। गाँव के हर मोहल्ले में अपने ढंग की संसद चलती है। दस-पाँच लोग यों ही खाली समय में बैठते हैं। सुख-दुःख की चर्चा करते हैं और जाने-अनजाने विषयों पर बहस करते हैं। मैं स्वयं गाँव का हूँ। बचपन में ऐसी बहसों का श्रोता रहा हूँ। बाद में 15-16 वर्ष की उम्र का होते-होते ऐसी गोष्ठियों में सदस्य के रूप में हिस्सा भी लेता रहा हूं। हमारा विद्यार्थी मन कहता है कि मोहल्ले-मोहल्ले होने वाली गपबाजी के समूह को पार्लियामेंट कहना ज्यादा सही होगा। ब्रिटिश संसद को पार्लियामेंट कहा जाता है। पार्ले शब्द का अर्थ होता है- चबाना, कुटकना मुँह के भीतर घुमाना। हमारे गाँव की पार्लियामेंट मजेदार थी। मैं उसे अभी भी नहीं भूल पाया हूं। वैसे यह गपबाजी थी। इसके विषय अपने आप तय हो जाते थे। एक सायं चन्द्रमा के चारों ओर बादलों का घेरा दिखायी पड़ा। हमारी गाँव की संसद में बहस थी कि यह घेरा अनिष्ट की सूचना है। अगले ने कहा कि यह वर्षा की सूचना है, एक ने कहा कि आंधी भी साथ आ सकती है। ग्राम संसद की बहसें मजेदार थी। हमारे बचपन में हमारे गांव में कोई चाय नहीं पीता था। शहर से गाँव लौटे एक प्रवासी ने चाय पीना और पिलाना शुरू किया। गाँव की संसद में बहस थी कि चाय पीने से व्यक्ति की ताकत घट जाती है। अगले ने कहा कि चाय तत्काल ताकत देती है। दूसरे ने बात काटी कि यह बड़े लोगों के चोचले हैं। अभी तो हमारे गाँव में चाय आयी है और आगे अंग्रेजी दारू भी आयेगी। यह निर्णय सुनाने वाले ने तम्बाकू खाई, अगले ने कहा तम्बाकू खाना क्या अच्छा है। एक पंडित जी ने कहा कि तम्बाकू देवलोक में नहीं होती है। देवता भी तम्बाकू के लिए पृथ्वी पर आते हैं।
गाँव की बहसें अब बदल गयी हैं। महानगरों से गाँव लौटे प्रवासी श्रमिक बहस का विषय हैं। पहले शहर से गाँव लौटे मजदूर से सब लोग हालचाल लेते थे, अब डर लगता है कि यह कोरोना लेकर तो नहीं आया है। प्रवासियों के आते ही डर बढ़ जाता है। गाँव में टीवी-रेडियो पहुँच गए हैं। इसके कारण बहस के विषयों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी बार-बार चर्चा का केन्द्र बनते हैं। लाखों मजदूरों को घर लाना छोटा काम नहीं है। मुख्यमंत्री की प्रशंसा हो रही है कि यह काम योगी जी के अलावा और कोई दूसरा नहीं कर सकता था। गरीबों के बैंक खाते में सीधे रुपये भेजने की चर्चा भी रोज होती है। गाँव में ही रोजगार देने की उम्मीद से महामारी के बावजूद नया आशावाद फैला है। देश के अन्य राज्यों ने भी उत्तर प्रदेश के मॉडल को अपनाया है। गाँव की राजनैतिक बहसें भी उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज की प्रशंसा की ओर मुड़ गयी हैं।
आशा में उत्साह होता है और निराशा में विषाद। आशा से सपने पैदा होते हैं। सपनों को पूरा करने के लिए संकल्प लिये जाते हैं। संकल्प को पूरा करने के लिए योजनाएं बनानी होती हैं। इसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया है। महामारी के कारण लड़ाई के कई मोर्चे बन गये हैं। इसके बावजूद श्रमिकों की समग्र समस्याओं की चिन्ता से नयी रौनक लौटी है। रोजगार विषयक योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए खासे समय की जरूरत होती है लेकिन काम शुरू हो गया है। अल्प समय में बाधायें दूर करते हुये गरीबों के मन में आशा और उत्साह भरने का काम वाकई आश्चर्यजनक है। संवेदनशीलता से बड़ा दूसरा मानवीय गुण नहीं होता। महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों से जूझने में संवेदनशीलता का ही महत्व है। यहाँ संवेदनशीलता के साथ-साथ सह-अनुभूति भी है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)