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वेदों में भारतीय दर्शन व ज्ञान-विज्ञान

– हृदयनारायण दीक्षित

अथर्ववेद भारतीय अनुभूति का मधुरस है। निस्संदेह इसके पूर्व ऋग्वेद में दर्शन और विज्ञान के ज्ञान अभिलेख हैं, प्रकृति के प्रति गहन जिज्ञासा है। मनुष्य को आनंदित करने वाली जीवनदृष्टि है। अथर्ववेद के द्रष्टा ऋषियों, कवियों के पास ऋग्वेद की पूर्व संचित ज्ञान निधि है। अथर्ववेद के ऋषि उस विधि से लाभ उठाने में कोई संकोच नहीं करते। वे ऋग्वेद के तमाम मंत्रों को मूल रूप में ही प्रयोग करते हैं। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति की काव्य अभिव्यक्ति का प्रथम चरण है। अथर्ववेद के रचनाकारों के पास भारतीय दर्शन व ज्ञान विज्ञान की समृद्ध परंपरा है। अथर्ववेद भरा-पूरा जीवन संगीत है। सांसारिक सुखोपभोग के विवरण हैं। इनके संयमन नियमन की जीवन दृष्टि है। संसार के प्रति आत्मीयता है। जीवन के प्रति उल्लास है। ऋषि 100 वर्ष के जीवन की इच्छा बार-बार दोहराते हैं। वे 100 वर्ष स्वस्थ रहना चाहते हैं। इसके लिए वे तमाम रोगों की औषधियां खोजते हैं। वे सहस्त्रों रोगों व उनके उपचार की औषधियों से सुपरिचित हैं। वे परिवार के प्रति राग रखते हैं। परिवार के प्रति कर्तव्य पालन की मजबूत अनुशासन रेखा खींचते हैं। उनका परिवार भाव पृथ्वी से अंतरिक्ष तक व्यापक है।

पृथ्वी माता है अथर्ववेद के कवि के लिए। इस माता का परिवार बड़ा है। औषधियां वनस्पतियां, नदियां और समुद्र पर्वत पृथ्वी का भाग है और सभी जीव भी। कवि पृथ्वी परिवार के सभी सदस्यों के प्रति आत्मीय भाव रखते हैं। निस्संदेह अथर्ववेद में देवोपासना है। देवता अनेक हैं लेकिन वे अपने प्रिय देव के आकार व प्रभाव की सीमा को बढ़ाते बढ़ाते असीम करते हैं। एक परम सत्य उनकी जांची परखी अनुभूति है। सो वे बहुदेववादी नहीं हैं। वे दर्शन की तमाम धाराओं के यात्री हैं। देव उपासना उन्हें नियतिवादी नहीं बनाती। अथर्ववेद की मूलधारा पुरुषार्थ है। ऋषि कवि स्वयं के कर्म पर विश्वास करते हैं। देवता भी कर्म करते हैं। देवराज इन्द्र भी अपने पौरुष पराक्रम के कारण स्तुतियां और सत्कार पाते हैं। यह समाज कृषि करता है। पशुपालक है, तमाम अन्य उद्योग करता है। आत्म निर्भर है। उत्पादन के वितरण की समस्या नहीं है। वामपंथी वर्ग निर्माण की अनुपस्थित को समाज का पिछड़ापन कहते हैं। लेकिन संवेदनशील समाजों के अर्थतंत्र में वर्ग संघर्ष नहीं होते। अथर्ववैदिक काल के द्रष्टा कवियों ने एक संवेदनशील संस्कृति का विकास किया है। वैज्ञानिक विवेक और दर्शन से विकसित यह संस्कृति लोकमंगल प्रतिबद्ध है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है। भारत ने अपने संविधान की रचना (1949) की। संसदीय जनतंत्र अपनाया। भारत की 130 करोड़ जनसंख्या संसदीय जनतंत्र से प्रतिबद्ध है। यहां तर्क और विमर्श आधारित जनतंत्र की परंपरा का विकास ऋग्वैदिक काल के समाज ने किया। ऋग्वेद में सभा समितियों के उल्लेख है। ऋग्वैदिक जनतंत्र की संस्कृति का विकास अथर्ववेद में है। अथर्ववेद की सभा और समिति में सभासद हैं। उन्हें सांसद भी कहा गया है। महाभारत की रचना अथर्ववेद के बाद की है। अथर्ववेद की सभा संस्कृति का विस्तार महाभारत में है। महाभारत में सभा पर्व है। यह बात अलग है कि महाभारत में सभा की शक्ति घटी है। सभा युद्ध रोकने विफल रही।

भारतीय राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद से भिन्न है। यूरोपीय राष्ट्र राजनैतिक इकाई है। ऋग्वेद का राष्ट्रभाव सांस्कृतिक है। अथर्ववेद के राष्ट्रभाव में ऋग्वेद की सांस्कृतिक भावना है। अथर्ववेद में राष्ट्र को राजनैतिक इकाई के रूप में भी मजबूत आधार दिया गया है। अथर्ववेद में लिखित राष्ट्र सत्ता का विकास यूरोपीय राष्ट्रवाद से बहुत प्राचीन है। अथर्ववेद के ऋषि जनकल्याण के ध्येय में डूबकर तप श्रम करते हैं। ऋषि के अनुसार इस श्रम तप से राष्ट्र का ओज तेज व बल जन्म लेता है। सरकारें राष्ट्र नहीं बनातीं। अथर्ववेद के अग्रजो पूर्वजों ने निरंतर श्रम किया। समाज के लिए अनेक जीवन मूल्य गढ़े। वे स्वयं इसी तप मार्ग पर चले। साथ साथ रहने के कारण भूमि के प्रति माता का भाव बढ़ा। ऋषियों ने भूमि की प्रतिष्ठा के गीत गाए। सहमना जीवन से सहचित्त संस्कृति का विकास हुआ। यही भारत का राष्ट्रगीत बना। अथर्ववेद राष्ट्रीय एकता व संपूर्ण विश्व की समृद्धि का ऋषि प्रदत्त उपहार है। ऋग्वेद में शासन व्यवस्था का विस्तृत वर्णन नहीं है। अथर्ववेद में विश्व इतिहास में पहली बार शासन प्रणाली, राजव्यवस्था व भौतिक संसाधनों का व्यापक उल्लेख हुआ है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र बहुत बाद का है। मौक्यिावली की तद्विषयक रचना ‘प्रिंस’ भी अथर्ववेद के बहुत बाद आधुनिक काल की है। अथर्ववेद में अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान व मनुष्य जीवन को सभी प्रकार सुख देने वाले सारे भौतिक उपाय हैं। अथर्ववेद में भौतिक सांसारिक समृद्धि का बहुत बार उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद के कई सूक्त (6.62, 6.78 व 5.11) इसके साक्ष्य हैं। कृषि अन्नदायिनी हैं। कृषि आर्थिक स्वावलम्बन का आधार है। राष्ट्र अन्न के लिए आत्म निर्भर था। स्वयं की खपत से अन्न अतिरेक भी था। सो कृषि उत्पादन के कार्य से भिन्न तमाम उद्योगों, शासकीय कार्यों व सांस्कृतिक प्रकल्पों से जुड़े लोगों के लिए अन्न की प्रचुरता थी। इसी में से अनेक सांस्कृतिक दार्शनिक गतिविधियों का विकास हुआ।

अतिथि का सम्मान भारतीय जीवनशैली की सर्वोत्तम गंध है। अथर्ववेद के ऋषियों ने ही अतिथि सत्कार की जीवनशैली का विकास किया। अथर्ववेद के नवें काण्ड में अतिथि सम्मान पर 6 सूक्त हैं। तब यज्ञ सर्वाधिक पुण्यकार्य था। यहां अतिथि सत्कार को यज्ञ कर्म बताया गया है। अतिथि का दर्शन भी यज्ञ दर्शन है। कहते हैं “गृहस्थ अतिथि को वैसे देखते हैं, जैसे देवत्व संवर्द्धक यज्ञ को देखते हैं।” (वही 9.6.3) अतिथि घर आते हैं, उनसे ज्ञान विज्ञान की चर्चा होती है। कहते हैं, “अतिथि से वार्ता करना यज्ञ कार्य में दीक्षित होना है। अतिथि के लिए वस्त्र, चादर सब यज्ञ उपकरण जैसे हैं।” (वही 4-10)

अथर्ववेद में घर आए अतिथि से पूर्व भोजन करना गलत बताया गया है, “अतिथि से पूर्व भोजन करने वाले घर की श्री समृद्धि, दूध, घी, अन्न, पशु, कीर्ति व यश नाश करते हैं।” (वही 9.8.2-5) संभवतः कुछ लोग अतिथि भोजन के पहले ही स्वयं भोजन करते थे। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनके यहां अतिथि भोजन नहीं करते थे। यहां उन्हें कड़ी चेतावनी है, “जिनके यहां अतिथि भोजन नहीं करते उनके गलत कर्म व पाप कभी नष्ट नहीं होते।” (9.7.9) अथर्ववेद अतिथि सत्कार की आदर्श आचार संहिता का प्रेरक है। तैत्तिरीय उपनिषद् में अतिथि को देवता कहा गया है-अतिथि देवोभव।

अथर्ववेद में ज्ञान-विज्ञान की प्रतिष्ठा है। यहां आचार्य ज्ञानदाता है। वे अपने आचरण के द्वारा भी विद्यार्थी को प्रबुद्ध बनाते हैं। राष्ट्र के लिए सुयोग्य व उत्तम नागरिक तैयार करना तत्कालीन शिक्षा व आचार्य का उद्देश्य है। अथर्ववेद (11.7.14) में कहते हैं, “आचार्य यम हैं। वह वरुण और सोम देव जैसा है। वह दूध जैसा पोषक है। वह मेघ है।” अथर्ववेद में आचार्य को देवता भी कहा गया है। एक मंत्र (वही 16) के अनुसार ब्रह्मचर्या से युक्त श्रेष्ठ विद्यार्थी ही आचार्य बनता है। ऐसा ब्रह्मचारी विद्यार्थी ज्ञान संपन्न होकर श्रेष्ठ शासक होता है। वह अनुशासन युक्त राज्य करता है।” एक अन्य मंत्र (वही 17) में कहते हैं, “आचार्य ज्ञान निष्ठ शिष्य की कामना करते हैं। ऐसे ब्रह्मज्ञानी शासक राष्ट्र की रक्षा करते हैं – तपसा राजा राष्ट्रं रक्षति।” आश्चर्य है कि हम भारतीय इतिहास के प्राचीन काल से प्रेरित नहीं होते।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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