कहीं किस्सा बनकर न रह जाए ‘हाथी मेरा साथी’
– अरविन्द मिश्रा
केरल के मल्लापुरम में एक हथिनी के साथ क्रूरता का जो दृश्य हम सभी ने देखा निश्चित रूप से इंसानियत को शर्मशार करने वाली ऐसी घटनाएं मानवीय आचरण की मर्यादाओं को तिलांजलि देती हैं। आखिर हम किस समाज में जी रहे हैं। क्या मनुष्य अपने स्वार्थ सिद्धि की पूर्ति के लिए इतना नैतिक शून्य हो गया है कि न्यूनतम मानवीय मूल्य का भी जीवन में अकाल होता जा रहा है। कम-से-कम मल्लापुरम में गर्भवती हथनी के साथ किए गए पाशविक कृत्य से तो यही सिद्ध होता है। सोचिए किस तरह कुछ लोगों ने भूख शांत करने के लिए हथिनी को अनानास में बारूद भरकर खिला दिया। पटाखों की शक्ल में बारुद ने हथिनी की सुंड व शरीर में इतने गहरे जख्म दिए कि गर्भवती हथिनी तड़प-तड़पकर मर गई।
सोशल मीडिया में इस घटना को लेकर देश ने काफी आक्रोश व्यक्त किया। महज कुछ घंटों के भीतर वृहद ऑनलाइन याचिका अभियान चलाए गए। निश्चित रूप से यह सिर्फ तात्कालिक रूप से भावनात्मक पीड़ा व्यक्त करने मात्र का नहीं बल्कि गंभीर सामूहिक चिंतन का विषय है। देश में विगत कुछ वर्षों में हाथियों के साथ हो रही क्रूरता का आकलन पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी द्वारा प्रस्तुत उस तथ्य से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने बताया है कि पिछले 20 साल से एक भी हाथी की मौत प्राकृतिक कारणों से नहीं हुई है। बल्कि जितने भी हाथियों की मृत्यु हो रही है, उसकी वजह मानवीय हिंसा और इंसानी लापरवाही ही प्रमुख कारण है। केरल में पिछले कुछ समय में 600 हाथियों को मौत के घाट उतार दिया गया है। मेनका गांधी द्वारा प्रस्तुत ये आंकड़े इसलिए भी चिंता पैदा करते हैं क्योंकि पिछले कई दशकों से मेनका गांधी हाथियों समेत पशुओं के अधिकारों की लड़ाई में नागरिक संगठनों को नेतृत्व प्रदान करती रही हैं।
मल्लापुरम में हाथियों के साथ निर्दयता का यह पहला मामला नहीं है, यहां हाथियों को मौत के घाट उतारने और उससे आर्थिक लाभ अर्जित करने का पूरा संगठित गिरोह संचालित किया जाता रहा है। पशुओं के साथ क्रूरता के लिए यह क्षेत्र दुनिया भर में कुख्यात हो चुका है। देश में सर्वाधिक शिक्षित जिलों में शुमार होने के बाद भी यहां ऐसा शायद ही कोई दिन और सप्ताह रहा हो जब पशु-पक्षियों को मारे जाने के समाचार न आते हों। पक्षियों और जानवरों को मौत के घाट उतारने के लिए यहां ऐसे बर्बर तरीके अपनाए जाते हैं, जो मानवीय संवेदनाओं पर प्रश्नचिह्न है। कभी सड़कों, नदी और तालाब में जहरीला रसायन फैलाकर पशु-पक्षियों और जलीय जंतुओं को मौत के घाट उतारने के मामले हों या फिर हाथियों का बीमा कराकर उनके शरीर में जंग लगी कील ठोककर उन्हें मौत देकर मुआवजा व उनके दांत, मांस आदि बेचकर आर्थिक लाभ प्राप्त करने के कृत्य हों। यह सबकुछ संगठित गिरोह के रूप में अंजाम दिया जाता है।
लंबे समय से पर्यावरण प्रेमी इनके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, लेकिन केरल सरकार की हठधर्मिता के आगे तमाम पर्यावरण व पशु प्रेमियों के प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं। पशुओं के अधिकारों के प्रति असंवेदनशील केरल सरकार ने शायद ही कभी पशुओं के साथ क्रूरता करने वाले और उन्हें शह देने वाले अधिकारियों पर शिंकजा कसने का प्रयास किया हो। यह पशुओं के सामूहिक कत्ल को रोकने को लेकर गंभीर उदासीनता नहीं तो क्या है। दुर्भाग्य से पशुओं की क्रूरता और विशेष रूप से हाथियों के संरक्षण को लेकर लड़ी जा रही कानूनी लड़ाई भी पिछले कई साल से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। यहां कई नागरिक संगठनों ने हाथियों पर निजी स्वामित्व समाप्त करने की गुहार लगाते हुए उसे अनुसूची-एक में शामिल किए जाने की मांग की है, लेकिन कई सालों बाद भी अबतक सुनवाई नहीं हो सकी है।
हमारे पर्यावरण व पारिस्थितिक तंत्र की अनुकूलता के लिए हाथियों का होना कितना अहम है, इस पर समय-समय पर अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय संस्थाएं प्रकाश डालती रही हैं। हाथियों के विलुप्त होने के पीछे उनकी क्रूरता के साथ पर्यावरण के साथ हो रहे छेड़छाड़ भी कम जिम्मेदार नहीं है। उनके पर्यावास को हमने तहस-नहस करने का कार्य किया है। 2019 में नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस संकट की ओर संकेत करती है, जिसमें कहा गया है कि जंगल से हाथी विलुप्त हो गये तो ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा 7 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। इससे ओजोन की परत पिघलने जैसे घातक परिणाम सामने आएंगे।
दरअसल हाथियों को बड़े पौधों के बीज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रसारित करने में सहायक माना जाता है, यानी इनकी उपस्थिति से पर्यावरण में बड़े वृक्षों की संख्या बढ़ती है। आज अफ्रीका में घटते वनों के पीछे एक अहम वजह वहां हाथियों का विलुप्त होना भी है। कुछ दशकों पूर्व अफ्रीका के वन दुनिया भर में हाथियों की प्रजाति के लिए मशहूर थे, लेकिन वर्तमान में वहां सिर्फ 10 प्रतिशत हाथी रह गए हैं। पादप वैज्ञानिकों के मुताबिक भारत में 300 से अधिक पादप प्रजातियां भी हाथियों के साथ विलुप्त हो जाएंगी। ऐसे में आवश्यकता है पशुओं के साथ क्रूरता के ऐसे किसी भी कृत्य पर कड़ाई से रोक लगाई जाए। यदि देश में विलुप्त होते हाथियों को अब नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हाथी सिर्फ किस्से और कहानी का हिस्सा बन कर रह जाएंगे जो पर्यावरणीय संतुलन के लिए यह घातक सिद्ध होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)