पं. रामप्रसाद बिस्मिल: बेमिसाल देशभक्त
– डॉ. नाज़ परवीन
भारत माता के होनहार सपूत जिन्होंने गुलामी की बेड़ियां तोड़ी और आजादी से मोहब्बत की। ब्रिटिश हुकूमत जिन्हें फूटी आंख न सुहाती थी। उनके कदमों के निशां लाखों युवाओं के लिए पथ प्रदर्शक बने। जिन्होंने अपने लहू से स्वतंत्रता के वटवृक्ष को पल्लवित किया। नवयुवकों का नेतृत्व करने वाले पं. रामप्रसाद बिस्मिल कई प्रतिभाओं के धनी थे। राष्ट्रप्रेम की कविताओं से शायरी तक कमाल का हुनर रखते थे। इनकी कविताएं और शायरी आज भी युवाओं के ज़ेहन में क्रान्ति का सैलाब भर देती हैं। बिस्मिल के क्रान्तिकारी अल्फाज़ों ने स्वतंत्रता आन्दोलन में अहम् रोल अदा किया- ’सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है जोर कितना, बाजु-ए-कातिल में है…।’
आज हम जिस विकसित भारत की कल्पना में लगे हैं, उसी श्रेष्ठ भारत एक भारत का स्वप्न भारत के बेमिसाल देशभक्त पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने देखा था। उन्होंने मात्र 30 वर्ष की आयु में अपने प्राणों को न्यौछावर कर, भारत को आजाद कराने का गज़ब का जज्बा कायम किया। उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में श्री मुरलीधर और मूलमती जी के घर 11 जून 1897 को बालक राम ने जन्म लिया। माता-पिता दोनों ही भगवान राम के आराधक थे। इसलिए उन्होंने इनका नाम राम प्रसाद रखा। कहते हैं कि बचपन में एक ज्योतिषी ने बालक राम की कुन्डली एवं हाथों की रेखाओं के आधार पर भविष्यवाणी की थी कि यदि बालक राम का जीवन किसी तरह बचा रहा, जिसकी सम्भावना बहुत कम है, तो बालक को चक्रवर्ती सम्राट बनने से कोई नहीं रोक सकता। बालक राम ने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी में निपुणता हासिल की। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। कक्षा 9वीं के बाद बालक राम आर्यसमाज के संपर्क में आये और उनके जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव हुआ। बालक राम ने 18 वर्ष की आयु में ’मेरा जन्म’ शीर्षक से एक कविता लिखी जिसमें अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति की प्रतिबद्धिता साफ तौर पर दिखाई देती है। बचपन से ही उनके मन में ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने की प्रबल इच्छा ने जन्म लिया। जिसे उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान देकर पूरा किया।
1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नरम दल के विरोध के बावजूद बाल गंगाधर तिलक की शोभायात्रा पूरे लखनऊ में निकाली। यहीं पर इनकी मुलाकात केशव बलिराम हेडगेवार और सोमदेव शर्मा एवं मुकुन्दीलाल से हुई। तत्पश्चात् अपने कुछ साथियों की मदद से इन्होंने ’अमेरिका की स्वतंत्रता का इतिहास’ नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसपर उत्तर प्रदेश में प्रकाशित होते ही रोक लगा दी गयी। बिस्मिल जी ने मातृवेदी नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। इसमें उनकी मदद औरैया के पंडित गेंदा लाल दीक्षित ने की। दोनों ने मिलकर इटावा, मैनपुरी, आगरा, शाहजहांपुर जिलों के युवाओं को मातृभूमि की रक्षा के लिए संगठित किया। 1918 में दिल्ली अधिवेशन के दौरान पुलिस ने उन्हें एवं उनके संगठन के सदस्यों पर प्रतिबन्धित साहित्य बेचने के लिए छापा डाला। जिसमें रामप्रसाद बच निकलने में सफल रहे। पुलिस के पीछा करने पर यमुना नदी में छलांग लगा दी और वर्तमान में गौतम बुद्ध नगर कहे जाने वाले स्थान के जंगलों में भटकते हुए गौतम बुद्ध नगर के रामपुर गांव में शरण ली। मैनपुरी षड्यंत्र केस में ब्रिटिश जज ने रामप्रसाद बिस्मिल और दीक्षित जी को भगोड़ा करार दिया था। अपने लेखन से लोगों में जागरुकता फैलाने के साथ क्रान्तिकारी गतिविधियों में परस्पर सहभागिता देते हुए, कुछ समय इधर-उधर भटकते रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने फरवरी 1920 में मैनपुरी षड्यंत्र के सभी बंदियों को रिहा कर दिया। फलस्वरूप बिस्मिल भी अपने शहर शाहजहांपुर वापस आ गए।
सितम्बर 1920 में कलकत्ता अधिवेशन में इनकी मुलाकात लाला लाजपत राय जी से हुई। उनसे मिलकर बिस्मिल बहुत प्रभावित हुए। लाला लाजपत राय से प्रभावित होकर सन् 1922 में बिस्मिल जी ने अपनी पुस्तक कैथेराइन को प्रकाशित करवाया। सन् 1921 के कांग्रेस अधिवेशन में अहमदाबाद में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस की साधारण सभा में पारित कराने में अहम भूमिका निभाई। रामप्रसाद बिस्मिल का एकमात्र उद्देश्य था पूर्ण स्वतंत्रता जिसे पूरा कराने के लिए उन्होंने गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और लोगों का विशाल हुजूम तैयार किया, लेकिन चौरी-चौरा हत्याकाण्ड के बाद गांधीजी के आन्दोलन वापस लेने से बहुत निराश हुए। जिसका विरोध सन् 1922 के गया अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल एवं उनके साथियों ने दर्ज कराया। उनके विचारों का प्रभाव साफतौर पर तब दिखाई दिया जब कांग्रेस उदारवादी एवं उग्रवादी विचारधारा अलग-अलग हो गयी। सितम्बर 1923 को दिल्ली के विशेष अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन से असन्तुष्ट युवकों ने देश में नई क्रान्तिकारी पार्टी बनाने का निर्णय लिया। लाला हरदयाल जो उन दिनों विदेश में थे और वहीं से भारत की आजादी की गतिविधियों में जुटे हुए थे, उन्होंने पत्र लिखकर रामप्रसाद बिस्मिल और शचीन्द्रनाथ सान्याल एवं यदु गोपाल मुखर्जी जी से मिलकर नयी पार्टी एवं उसका संविधान बनाने के लिए कहा। जो एच. आर. ए. के रूप में देश के समक्ष आयी।
आजादी की जंग में सबसे अहम घटनाओं में शुमार काकोरी कांड 9 अगस्त 1925 को अंजाम दिया गया जिसका मूल उद्देश्य संगठन के लिए पैसों का बंदोबस्त करना था। वो भी ब्रिटिश खजाने पर सेंध लगाकर। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर
आजाद, सचिंद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मन्मथनाथ गुप्त, मुरारी लाल गुप्ता, मुकुन्दी लाल गुप्ता और बनवारी लाल आदि ने मिलकर घटना को अंजाम दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के 40 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर उनपर मुकदमा चलाया। जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी को मौत की सजा सुनाई गयी। मुकदमे में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर कालापानी की सजा तक सुनाई गयी। 19 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर की जेल में पं. रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दे दी गयी। भारत के इन बेमिसाल देशभक्तों की शहादत ने भारत की स्वतंत्रता के द्वार खोले।सम्पूर्ण भारत अपने इन वीरों को शत-शत नमन करता है। आने वाली सदियां इनकी वीरता के आगे सदैव नतमस्तक रहेंगी।
(लेखिका अधिवक्ता हैं।)