उचित नहीं तेल पर राजनीति
अर्थव्यवस्था का ईंधन कहे जाने वाले पेट्रोल और डीजल की दरों में हुई हालिया वृद्धि को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नूराकुश्ती शुरू हो गई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पहले तो इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की और अब कांग्रेस कार्यकर्ता हाईकमान के इशारे पर लॉकडाउन में भी सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। कांग्रेस मोदी सरकार पर कोरोना संकट में पेट्रोल और डीजल से मिले टैक्स से तिजोरी भरने का आरोप लगा रही है। वहीं भाजपा प्रवक्ताओं के साथ सरकार के मंत्री, कांग्रेस सरकारों द्वारा दामाद और राजीव गांधी फाउंडेशन को पहुंचाए गए फायदे की याद दिला रहे हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि पिछले लगभग एक माह में डीजल 11 रुपए और पेट्रोल 9.12 रुपए प्रति लीटर महंगा हो चुका है। देश की राजधानी दिल्ली में पेट्रोल 80.38 रुपये जबकि डीजल 80.40 रुपए प्रति लीटर के स्तर पर पहुंच गया है। यह पहला मौका है जब डीजल ने पेट्रोल को कीमतों में पीछे छोड़ दिया है। पेट्रोल-डीजल की दरों में मौजूदा वृद्धि पर नाराज विपक्ष का कहना है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें पिछले कुछ महीनों में जिस तरह निचले स्तर पर आई हैं, उसके बाद भी सरकार ने अब तेल की कीमतों में गिरावट का फायदा आम आदमी को नहीं दिया।
दरअसल, पेट्रोल-डीजल की दरें सीधे तौर पर आम आदमी की जेब पर असर डालती हैं। लेकिन जब कोरोना संकट से देश ही नहीं पूरी दुनिया का अर्थतंत्र संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में तेल की कीमतों में मौजूदा बढ़ोत्तरी को पहले की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार और उपभोक्ता दोनों को वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर ही पेट्रोल-डीजल की दरों का विश्लेषण कर समाधान निकालना होगा।
कोरोना त्रासदी की वजह से सरकारों के समक्ष राजस्व का संकट कितना बड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं है। केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के उस बयान से सरकार की आर्थिक चुनौतियों का आकलन किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा कि इस वित्तीय वर्ष में लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का राजस्व कम आएगा। वहीं केंद्र सरकार ने इस बात के भी संकेत दिए हैं कि राजस्व संकट के कारण इस वित्तीय वर्ष में अब नई योजनाएं शुरू नहीं की जाएंगी बल्कि कोरोना से निपटने के लिए जारी राहत कार्य को ही प्रभावी रूप से संचालित किया जाएगा।
क्या आर्थिक गतिविधियों के ठप पड़ जाने पर भी सरकार ने कोरोना से लड़ी जाने वाली लड़ाई को कमजोर होने दिया है, इस बात का भी तटस्थ आकलन करना होगा। स्वास्थ्य अधोसंरचना, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति, रोजगार समेत कई मोर्चे पर सरकार को अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता पड़ रही है। बावजूद इसके लॉकडाउन के शुरुआती दिनों से ही केंद्र सरकार ने राज्यों को कोविड-19 अस्पताल बनाने, जांच की सुविधा प्रदान करने के लिए तत्काल बजट उपलब्ध कराया है। लॉकडाउन की सबसे अधिक मार गरीब परिवारों और श्रमिकों पर पड़ी है इसलिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के जरिए गरीबी रेखा के नीचे रह रहे परिवारों को छह माह तक नि:शुल्क राशन, तीन माह तक उज्ज्वला सिलेंडर प्रदान करने की योजना के जरिए राहत देने का अभूतपूर्व प्रयास हुआ है। प्रधानमंत्री किसान योजना के अंतर्गत लगभग 9 करोड़ किसानों को 2 हजार रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की जा चुकी है। जनधन योजना के अंतर्गत 20 करोड़ महिला खाताधारकों को 1,500 रुपये की राहत राशि सीधे उनके बैंक खातों में जमा करा दी गई है। आंकड़ों के मुताबिक 52,600 करोड़ रुपये डीबीटी के जरिए आर्थिक रूप से गरीब लोगों के बैंक खातों में जमा कराए गए। जबकि सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को राहत पहुंचाने के लिए 3 लाख करोड़ रुपये की इमरजेंसी वर्किंग कैपिटल का प्रबंध किया गया है। इस तरह करीब 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज और गरीब रोजगार योजना के जरिए अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने के बहुआयामी प्रयास भी जारी हैं।
जाहिर है, इन सभी योजनाओं को उसके वास्तविक हितग्राहियों तक पहुंचाने के लिए बड़े आर्थिक संसाधन की आवश्यकता पड़ेगी। इस राजस्व की कमी को पूरा करने के लिए पेट्रोल और डीजल की दरों में वृद्धि ही केंद्र और राज्यों के लिए अहम विकल्प के रूप में सामने आती है। यही वजह है कि केंद्र ही नहीं राज्य सरकारें चाहे वह भाजपा शासित हों या कांग्रेस, सभी ने वर्तमान परिस्थितियों में पेट्रोलियम उत्पादों के जरिए राजस्व जुटाने की नीति को अपनाया है। हाल के दिनों में लगभग 28 राज्यों द्वारा पेट्रोल और डीजल पर वैट में की गई वृद्धि से यह बात प्रमाणित होती है।
कीमतों में वृद्धि को लेकर अपने बचाव में उतरी केंद्र सरकार का कहना है कि लॉकडाउन के बाद अनलॉक की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था में पेट्रोल-डीजल की खपत कम होने के कारण कीमतों में वृद्धि का असर उपभोक्ताओं पर उतना अधिक नहीं पड़ा है, जितना ढ़िढोरा विपक्ष पीट रहा है। वैसे अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में वर्तमान अस्थिरता और भारत में तेल की मांग में अप्रैल-मई महीने में 70 फीसदी तक की गिरावट केंद्र सरकार के पक्ष को प्रमाणित करती है।
ऐसी परिस्थितियों में विपक्ष ने जैसे ही तेल के जरिए सरकार पर खजाना भरने का आरोप लगाया, केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सोनिया गांधी के आरोपों का जवाब देने खुद सामने आ गए। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ये कांग्रेस की सरकार नहीं है जो पेट्रोल और डीजल से मिले राजस्व को दामाद और राजीव गांधी फाउंडेशन के खाते में जमा कराएगी। ये वही धर्मेंद्र प्रधान हैं, जिनकी निगरानी में लॉकडाउन की विषम परिस्थितियों में भी तेल कंपनियों ने न सिर्फ पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति जारी रखी बल्कि घर-घर एलपीजी सिलेंडरों की आपूर्ति को सुनिश्चित किया।
यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार की अस्थिरता के बीच कच्चे तेल के घटे दाम का फायदा उठाते हुए भारत ने भूमिगत तेल भंडारों, टैंकों, पाइपलाइनों में 53.3 लाख टन तेल का भण्डारण कर लिया है। इसी तरह 85 से 90 लाख टन तेल जलपोतों में भी संग्रहित किया गया है। इसके अलावा 65 टन अतिरिक्त तेल का भण्डारण करने के लिए पेट्रोलियम मंत्रालय गंभीरता से काम कर रहा है। इससे तेल के आयात पर होने वाला भारी-भरकम खर्च तो कम होगा ही भविष्य में तेल की उपलब्धता भी सुनिश्चित होगी।
ऐसा नहीं है कि सरकार को आम आदमी पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ और महंगाई की चिंता नहीं है। लेकिन जैसा कि हमारे घर में भी कोई आर्थिक संकट या बड़ा कार्य होता है तो हम आर्थिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करने की नीति अपनाते हैं, ठीक उसी तरह पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हुई मौजूदा वृद्धि को भी देखना चाहिए। केंद्र सरकार पहले ही पेट्रोलियम उत्पादों पर राजस्व के लिए जरूरत से अधिक निर्भरता को कम करने की नीति पर आगे बढ़ रही है। स्वयं पेट्रोलियम मंत्री पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की वकालत कर चुके हैं। हालांकि बहुत-सी भाजपा ही नहीं कई कांग्रेस शासित राज्य सरकारें फिलहाल इसके पक्ष में नहीं हैं। कुछ अन्य उपायों में सरकार पेट्रोल और डीजल के वायदा कारोबार को बढ़ावा देने पर विचार कर रही है।
स्पष्ट है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष को तकरार के बजाय बीच का ऐसा मार्ग निकालना होगा, जिससे राजस्व का विकल्प भी कमजोर न हो और आर्थिक संकट के बीच उपभोक्ताओं पर लॉकडाउन और महंगाई की दोहरी मार भी न पड़े। यह तभी संभव है जब विपक्ष कोरोना संकट के दौरान देश की प्राथमिकताओं को लेकर संवेदनशील हो, क्योंकि तेल की कीमतों को लेकर देश की जनता ने अबतक जिस धैर्य का परिचय दिया है, उसमें हर मुद्दे पर राजनीति का अवसर खोजने वाले हमारे राजनीतिक दलों के लिए बड़ा संदेश छिपा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)