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हम प्रकृति के अंग हैं

– गिरीश्वर मिश्र

सृष्टि में जीवन के स्रोत पर्यावरण को लेकर आज सभी चिंतित हैं। जिस वेग से जलवायु परिवर्तन के असर दिखने लगे हैं उससे धरती पर जीवन के भविष्य को लेकर गहरे सरोकार सामने आ रहे हैं। वैश्विक गर्मी जिस तरह बढ़ रही है वह दुनिया को ऐसे बिंदु पर पहुंचा रही है जिससे बाढ़, भोजन और पेयजल की कमी, लोगों के विस्थापन, संसाधनों के लिए हिंसात्मक संघर्ष की प्रवृत्तियां प्रबल होती जा रही हैं। वनस्पतियों और जीव -जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। जल-प्रदूषण, मल और अपशिष्ट के इकठ्ठा होने, वनों की कटाई आदि से जीवनदायी ओजोन की पर्त में छिद्र हो रहे हैं। मनुष्य द्वारा प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के कारण जैविक संतुलन बिगड़ता जा रहा है।

धरती पर उपलब्ध संसाधनों की तुलना में जनसंख्या अधिक है और यह स्थिति सफल जीवन जीने के लिए उपयुक्त नहीं बैठ रही है। संतुष्टि न हो सकने वाली हमारी उपभोग-वृत्ति और लोभ के कारण निकलता कूड़ा सभी प्राणियों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डाल रहा है। कैंसर जैसे असाध्य रोग की बहुतायत चिंताजनक हो रही है। पहाड़ों, नदियों, घाटियों और वन जो कभी आध्यात्मिक ऊर्जा के स्रोत हुआ करते थे, लुप्त होते जा रहे हैं। पुण्यतोया गंगा का उद्गम जहां से होता है वह ग्लेशियर पीछे खिसकता जा रहा है। नाभिकीय ऊर्जा से सबकुछ समाप्त करने वाला शस्त्रास्त्र बनाने की होड़ बढ़ती ही जा रही है। लाभ और लोभ के लिए सबकुछ दांव पर लग रहा है और पृथ्वी असुरक्षित होती जा रही है। कुल मिलाकर परिवर्तन इतने बड़े पैमाने पर हो रहे हैं कि आदमी के लिए स्वाभाविक नैसर्गिक दशा में जीने और अपनी क्षमताओं का उपयोग करना संभव नहीं हो पा रहा है।

हम अपनी भूमिका निभाने में विफल हो रहे हैं। हमारा राजनैतिक विवेक धरती पर प्राणियों के जीवन और खुशहाली के बारे में मौन है। भौतिकता और उपभोक्तावाद स्वार्थ को ही जीवन सूत्र बनाता जा रहा है। उसकी सर्जनात्मकता इन्हीं की आपूर्ति के लिए सुरक्षित हो रही है। मनुष्य, अन्य जीव-जंतु और भौतिक पदार्थों को एक समष्टि में न देखकर उनके बीच कृत्रिम भेद किया गया है जो दूरगामी दृष्टि से लाभकर नहीं है। आज हमारे पास एक टिकाऊ विश्व व्यवस्था की कोई दृष्टि विकसित नहीं हो पाई है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और व्यापार घोर वैयक्तिकता के नजरिए पर टिके हैं। संस्कृति संरक्षण और पर्यावरण के प्रश्न वैश्विक दबाव में उलझकर विविधता को समाप्त कर रहे हैं। विज्ञान और तकनीकी का विकास सबकुछ को जड़ वस्तु मानकर दुनिया पर स्वामित्व पाने के लिए है। परंतु इसकी दौड़ में जितना भी हासिल किया जाय वह प्रतियोगी लोगों के बीच अपनी स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए नाकाफी ही रहेगा। इस तरह की अपसंस्कृति में प्रचंड उपभोग के लक्ष्य ही सदैव महत्व के बने रहते हैं।

ऐसे में हमें अपने आत्मबोध को विस्तृत करना होगा। शायद पिंड और ब्रह्मांड की एकता और पूरी सृष्टि में परस्पर निर्भरता के सत्य को समझना होगा। एक ऐसे आत्म या स्व की अवधारणा पर विचार करना जरूरी होता जा रहा है जो अपने को सभी प्रकार के जीवन से जोड़ सके। आधुनिक जीवन की बढ़ती जटिलताएं अपने परिवेश को समझने, अधिकार में लेने और नियंत्रण करने की होड़ में हमारे जीवनानुभव के मुख्य हिस्से या जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। फलत: आज चिंता, अवसाद, संशय और अकेलेपन से जूझते व्यक्तियों का हुजूम दिख रहा है। हम पर्यावरण के लिए समस्याओं को पैदा करते जा रहे हैं। यदि हम मांस, प्लास्टिक, जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग के साथ जीना सीख लें, यदि हम विषैले रेडियो विकिरण या रासायनिक अपशिष्ट को नियंत्रित करें तो सृष्टि की देखभाल हो सकेगी। ऐसे में खुशहाली की मृग मरीचिका वाली अनंत खोज की जगह दया और करुणा की संवेदना आवश्यक हो गई है। आधुनिक समाज के घोर व्यसन से उबरना होगा। हमारी मानसिकता को हरित बनाना पड़ेगा। मनुष्य को पूरी प्रकृति के साथ जीवंत सम्बन्ध रखना होगा। समुद्र, नदी, पशु-पक्षियों की आवाजें हमें गहरे छू जाती हैं। बादल, फूल, संध्या काल में डूबते सूरज की आभा का अहसास ऊर्जा देने वाला होता है। मनुष्य की विशिष्टता अन्य मनुष्यों, प्रकृति और सृष्टि के साथ सजग और परस्पर निर्भरता का रिश्ता बनाने में है न कि उनके शोषण में। हमें सभी जीवन रूपों को आदर देना होगा।

वास्तविकता यही है कि मनुष्य की प्रजाति का जीवन परिस्थितिकी के साथ गहरे सम्बंध की स्थापना की अपेक्षा करता है। तभी जीवन का संरक्षण हो सकेगा और हमारे अपने जीवन को सार्थक बनाएगा। पर्यावरण के साथ अधिक समरसता से पारिस्थितिकी के विनाश को संभालने के लिए हम अधिक ठीक तरह से तैयार हो सकेंगे। यदि हम त्रासदियों से बचना चाहते हैं तो हमें नैसर्गिक दुनिया के सुखों और आश्चर्यों से जुड़ने को भी दैनंदिन जीवन में स्थान देना होगा। जीवन के पक्ष में सामाजिक परिवर्तन की जरूरत होगी।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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