टिड्डियों के हमले से हलकान किसान
– योगेश कुमार गोयल
राजस्थान और मध्य प्रदेश के किसान पिछले कई दिनों से टिड्डी दलों के हमले से काफी परेशान हैं। टिड्डियों का यह हमला अब हरियाणा, उत्तर प्रदेश इत्यादि उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों तक पहुंच गया है। कई-कई किलोममीटर लंबे टिड्डी दल फसलों को पूरी तरह तबाह कर आगे बढ़ रहे हैं। पाकिस्तानी सीमा से भारत में आए ये टिड्डी दल राजस्थान के दो दर्जन से अधिक जिलों तथा मध्य प्रदेश के भी कई इलाकों में कई लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसलों को नष्ट कर चुके हैं। अब इन दोनों राज्यों के साथ देश के कई अन्य राज्यों में भी टिड्डी दलों का फसलों पर कहर देखा जा रहा है। टिड्डियों के कई-कई किलोमीटर लंबे दल अलग-अलग स्थानों पर पहुंचकर फसलों को चट करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
भारत में वर्ष 1926 से 1931 के बीच टिड्डियों के कारण तत्कालीन मुद्रा में करीब दस करोड़ रुपये तथा 1940 से 1946 के दौरान दो करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। इसे देखते हुए वर्ष 1946 में लोकस्ट वार्निंग ऑर्गेनाइजेशन (एलडब्ल्यूओ) यानी टिड्डी चेतावनी संगठन की स्थापना की गई थी। एलडब्ल्यूओ केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के वनस्पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय के अंतर्गत कार्यरत है। भारत में 1949-55 के दौरान टिड्डी दलों के हमले से दो करोड़, 1959-62 के दौरान पचास लाख तथा 1993 में करीब 75 लाख रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया था। अभी ऐसे हमलों में नुकसान करोड़ों-अरबों रुपये तक पहुंच जाता है।
महज ढाई-तीन इंच आकार का यह कीट प्रतिदिन अपने वजन के बराबर खाना खा जाता है। संयुक्त राष्ट्र के संगठन ‘फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन’ के अनुसार एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में आठ करोड़ के करीब टिड्डियां हो सकती हैं। मई माह में जब राजस्थान में टिड्डी दलों ने फसलों पर हमला बोला था, तब वहां के कृषि अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने जो टिड्डी दल का काफिला देखा, वह छह किलोमीटर लंबा तथा तीन किलोमीटर चौड़ा था। अब हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में जो टिड्डी दल देखे जा रहे हैं, वे भी काफी लंबे हैं। ऐसे में अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि फसलों पर इतनी सारी टिड्डियों के हमलों से एक ही दिन में कितने बड़े पैमाने पर फसलों का सफाया हो सकता है। ब्रिटेन के खाद्य एवं पर्यावरण संस्थान (फेरा) द्वारा टिड्डियों पर किए गए एक शोध में पाया गया है कि इनकी खाने की क्षमता और उड़ने की रफ्तार मवेशियों से कहीं तेज है। एक अनुमान के अनुसार टिड्डियों का एक बहुत छोटा झुंड भी एकदिन में करीब 35 हजार लोगों का खाना खा जाता है। इनका एक छोटा दल एक दिन में दस हाथियों या पच्चीस ऊंटों के खाने के बराबर फसलें चट कर सकता है। टिड्डी दल दस किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से सफर करता है और एक दिन में 150 किलोमीटर तक उड़ने की क्षमता रखता है। टिड्डी का जीवनकाल प्रायः पांच महीने का होता है।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि अभी रबी फसलों की कटाई और थ्रैशिंग तो कर ली गई है लेकिन जिन क्षेत्रों में हरे चारे के लिए ज्वार, बाजरा तथा सब्जी और मूंग आदि बोई हुई है, वहां टिड्डी दलों से होने वाले नुकसान से बचने के लिए किसानों को कीटनाशक रसायनों का इस्तेमाल करना चाहिए। टिड्डी प्रकोप के समय उन्हें दो पारियों में क्लोरपायरीफोस 20 प्रतिशत ईसी 1200 मिली प्रति हेक्टेयर, क्लोरपायरीफॉस 50 ईसी 480 मिली प्रति हेक्टेयर, डेल्टामेथरिन 2.8 प्रतिशत ईसी 625 मिली प्रति हेक्टेयर, बेन्डियोकार्ब 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी 125 ग्राम प्रति हेक्टेयर, मेलाथियॉन 50 प्रतिशत ईसी 1850 मिली प्रति हेक्टेयर या मैलाथियॉन 25 प्रतिशत डब्ल्यूपी 3700 ग्राम उपलब्धता के अनुसार 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। इन कीटनाशक रसायनों का प्रयोग करते समय किसानों को चेहरे पर मास्क तथा हाथों में दस्ताने अवश्य पहनने चाहिए तथा छिड़काव भी व्यस्क व्यक्ति द्वारा ही किया जाना चाहिए।
पाकिस्तान की तरफ से आए टिड्डी दलों ने पिछले साल भी भारत में 21 मई को दस्तक दी थी लेकिन तब उस हमले को हल्के में लिया गया था। जैसे-जैसे इनका दायरा विस्तृत होता गया, वैसे-वैसे यह बात साफ होती गई कि यह हमला 1993 से भी बड़ा है। अगस्त-सितंबर 1993 में भारत-पाकिस्तान सीमा के पास भारी बारिश के कारण टिड्डियों के प्रजनन के लिए अनुकूल स्थिति बन गई थी और तब राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में टिड्डी दल का सबसे खतरनाक हमला देखा गया था। हालांकि फिर ठंड बढ़ने के कारण अक्तूबर माह में वह प्रकोप खत्म हो गया था। 2019 में राजस्थान के जैसलमेर इलाके में रेगिस्तानी टिड्डी दलों के हमले की शुरुआत के बाद इनका प्रकोप करीब नौ महीनों तक देश के कई हिस्सों में देखा गया। वर्षा के बाद जिन इलाकों में मौसम ठंडा हुआ, टिड्डी दल उसे छोड़ अपेक्षाकृत गर्म इलाकों की ओर प्रस्थान करता गया था।
खाद्य और कृषि संगठन ने पिछली जुलाई में कहा था कि टिड्डियों का प्रकोप अधिकतम नवंबर माह तक रह सकता है लेकिन यह सिलसिला जब दिसंबर और जनवरी के ठंडे मौसम में भी बरकरार रहा तो कृषि वैज्ञानिक चौंके। टिड्डियां सर्दियों में अपने आप ही खत्म हो जाती हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन या किसी और वजह से इनका व्यवहार बदल गया है और ये कड़ाके की ठंड में भी कहर बरपाने लगी हैं। जहां अक्तूबर 1993 में ठंड के कारण सारी टिड्डियां मर गई थी, वहीं पिछले साल गर्मी में शुरू हुआ उनका प्रकोप इस वर्ष सर्दी का मौसम चरम पर होने के बावजूद जारी रहा। वैज्ञानिक अब यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर सर्दियों में खत्म हो जाने वाली टिड्डियां भीषण ठंड में भी कैसे अपना अस्तित्व बचाने में सफल हो रही हैं। वैज्ञानिकों का अभीतक यही मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसमों के बदलते पैटर्न ने ही टिड्डियों के जैविक व्यवहार में यह बदलाव किया है। संभवतः उन्हें घनघोर जाड़ों में भी किसी क्षेत्र विशेष में ज्यादा समय तक सुरक्षित रहने का अवसर मिल रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)