न्यायपालिका को सत्ता की पटरानी बनाने के पुराने पन्ने
– डॉ. अजय खेमरिया
सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के दौरान मोदी सरकार के विरुद्ध लाई गईं तीन याचिकाएँ न केवल खारिज की बल्कि प्रशांत भूषण जैसे वकील को यहां तक कहा कि आप पीआईएल लेकर आये हैं या पब्लिसिटी याचिका। सप्रीम कोर्ट का यह कहना कि अगर हम आपके मन मुताबिक निर्णय दें तो ठीक, नहीं दें तो कोर्ट पक्षपाती यह नहीं चलेगा। असल में राममंदिर, 370, राफेल, तीन तलाक, पीएम केयर फ़ंड, सीएए पर सुप्रीम अदालत के निर्णय मोदी विरोधियों के मन मुताबिक न होने से राजनीतिक, मीडिया, पूर्व ब्यूरोक्रेट, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय लोगों का बड़ा तबका परेशान है। उसे भारत में न्यायिक आजादी की चिन्ता सताने लगी है। एक धारणा गढ़ी जा रही है कि जज डरे हुए हैं। दुष्प्रचार किया जा रहा है कि जज सरकार के अतिशय दबाव में हैं।
राममन्दिर, राफेल, पीएम केयर, कोरोना, प्रवासी मजदूर पर यह झूठ खड़ा किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के आगे नतमस्तक है। इस नए नैरेटिव के बीच सवाल यह है क्या वाकई न्यायपालिका को सत्ता ने भयादोहित कर रखा है? क्या भारत में न्यायपालिका सदैव गैर राजनीतिक प्रतिबद्धता के उच्च आदर्शों के अनुरूप काम करती रही है? कुछ पुरानी तारीखों में छिपी भारत की न्यायिक आजादी को खंगालने की कोशिशें की जाए तो पता चलता है कांग्रेस ने कोर्ट्स को सदैव सत्ता की पटरानी बनाने का प्रयास किया। बकायदा कोर्ट के जरिये अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने से परहेज नहीं किया गया।
1971 इंदिरा गांधी 352 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी करती हैं। उनके मन में सुप्रीम कोर्ट को ठिकाने लगाने का प्रबल संकल्प हिलोरें ले रहा था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट लगातार उनकी तानाशाही में अवरोधक बना हुआ था। 1967 गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया “सरकार भारत के नागरिकों के मूल अधिकारों में कटौती नहीं कर सकती है।” 1969 में आर्डिनेंस लाकर 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1971 देशी राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म कर दिये गए। सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों को असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया। इंदिरा गांधी ने बहुमत के बल पर कोर्ट के तीनों आदेश पलट दिये और सार्वजनिक रूप से प्रतिबद्ध न्यायपालिका और ब्यूरोक्रेसी को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता घोषित किया। इन तीन निर्णयों से इंदिरा गांधी बुरी तरह कुपित थीं। इस बीच केरल के बाबा केशवानंद का प्रकरण सुप्रीम कोर्ट पहुँचता है। मामला था इडनीर ट्रस्ट के अधिग्रहण का लेकिन जो निर्णय इसमें हुआ वह भारत के लोकतंत्र का आधार स्तंभ तो बना, साथ ही इंदिरा गांधी द्वारा न्यायपालिका को भयादोहित, नियंत्रित और कब्जाने की असफल नजीर भी साबित हुआ।
24 अप्रैल 1973 की तारीख को इस केस में निर्णय हुआ। 68 दिन जिरह हुई। इंदिरा सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट में शिकस्त खा गईं। भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार 13 जजों की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। 7-6 के बहुमत से निर्णय हुआ कि संसद को संविधान संशोधन का अधिकार तो है लेकिन “आधारभूत संरचना” बेसिक स्ट्रक्चर से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। संवैधानिक सर्वोच्चता, विधि का शासन, कोर्ट की अक्षुण्य आजादी, संसदीय शासन, निष्पक्ष संसदीय चुनाव, गणतन्त्रीय ढांचा, सम्प्रभुता आधारभूत ढांचे में परिभाषित किये गए। इनमें किसी भी प्रकार के संशोधन निषिद्ध कर दिये गए।
13 जजों की पीठ में 7 जज फैसले के पक्ष में थे। इनमें मुख्य न्यायाधीश एस एम सीकरी, के एस हेगड़े, एके मुखरेजा, जे एम शेलाट, एन एन ग्रोवर, पी जगनमोहन रेड्डी और एच आर खन्ना। 6 जज सरकार के साथ थे जस्टिस ए एन राय, डीजी पालेकर, के के मैथ्यू, एच एम बेग, एस एन द्विवेदी और वाय चन्द्रचूड़। इस निर्णय से नाराज इंदिरा गांधी के दफ्तर से 25 अप्रैल 1973 को जस्टिस एन एन राय के घर फोन की घण्टी बजती है। क्या उन्हें नए सीजेआई का पद स्वीकार है? जवाब देने के लिए मोहलत मिली सिर्फ दो घण्टे की। 26 अप्रैल 1973 को जस्टिस ए एन राय को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता है। तीन सीनियर जज जस्टिस शेलट, ग्रोवर और हेगड़े को दरकिनार कर दिया गया। तीनों जज उन 7 जजों में थे जिन्होंने सरकार को असिमित संविधान संशोधन देने से असहमति व्यक्त की थी। जस्टिस राय को सरकार के पक्ष में खड़े होने का इनाम मिल चुका था। शपथ ग्रहण के दो रोज बाद अटॉर्नी जनरल नीरेंन डे सुप्रीम कोर्ट आते हैं। ए एन राय ने फिर 13 जजों की पीठ बनाकर मास्टर ऑफ रोस्टर का दुरुपयोग किया। केशवानंद भारती केस का रिव्यू आरम्भ हो गया। जस्टिस राय इंदिरा भक्ति में इतने लीन थे कि बगैर पिटीशन के ही रिव्यू के लिए 13 जज बिठा दिये।
1975 में इंदिरा गांधी ने 39 वां और 41वां संशोधन कर कानून बनाया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, स्पीकर के चुनाव को कोर्ट में किसी भी आधार पर न चैलेंज किया जा सकता न कभी कोई मुकदमा दर्ज होगा।
केशवानंद केस के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों संशोधन को खारिज कर दिया था। 1975 में एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस आपातकाल में मौलिक अधिकारों की बहाली को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा। पांच जजों की पीठ ने 4-1 के बहुमत से सरकार के पक्ष में निर्णय दिया।अकेले जस्टिस एच आर खन्ना ने सरकार से असहमत होते हुए निर्णय लिखा। जस्टिस खन्ना सबसे सीनियर थे लेकिन अपने इस निर्णय के चलते इंदिरा गांधी के निशाने पर आ गए। उन्हें सुपरसीड करते हुए एम एच बेग को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। एच एम बेग केशवानंद केस में भी सरकार के साथ खड़े थे इसलिए उन्हें भी जस्टिस राय की तरह स्वामी भक्ति का इनाम मिला। वहीं जस्टिस खन्ना उस केस में भी सरकार के विरुद्ध थे।इसलिए उन्हें सजा दी गई। बेग 1978 तक सीजेआई रहे फिर 1981 से 1988 तक अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष और वहां से हटने के बाद कांग्रेस के मुखपत्र दैनिक हेराल्ड के संचालक।
बहरूल इस्लाम के किस्से तो सबको पता ही हैं कि उन्हें जब चाहा सांसद, जब चाहा हाईकोर्ट जज, जब चाहा सुप्रीम कोर्ट जज बना दिया गया।
जस्टिस जगनमोहन रेड्डी की किताब “वी हैव रिपब्लिक” में केशवानंद भारती केस की तथाकता विस्तार से लिखी हुई है।
इन खुली तारीखों के अलावा भी बहुत सी कहानियां हैं देश की न्यायपालिका को सत्ता की पटरानी बनाने की। इंदिरा के कानून मंत्री रहे एच आर गोखले और इस्पात मंत्री कुमार मंगलम कैसे जजों को धमकाते रहे, इसे जानने के लिए नानी पालखीवाला, शांतिभूषण, जस्टिस जगनमोहन रेड्डी के संस्मरणों को पलट कर देखा जा सकता है। पूर्व सीजेआई रंगनाथ मिश्रा बकायदा कांग्रेस के टिकट से राज्यसभा में विराजते हैं। कैसे उनके भतीजे तमाम आरोपों के बाद सीजेआई तक बन जाते हैं।
कल्पना की जा सकती है कि केशवानंद केस में जस्टिस खन्ना का निर्णायक मत उस पीठ के साथ नहीं जुड़ता तो आज देश में पीएम नहीं राजा या रानी राज कर रहे होते। अफजल की फांसी टालने के लिए आधी रात को खुलता सुप्रीम कोर्ट सेक्युलर था। गुजरात दंगों, शोहराबुद्दीन, इशरत जहां के मामलों में कोर्ट अच्छे थे क्योंकि निर्णय मोदी, अमित शाह के विरुद्ध और लिबरल गैंग के एजेंडे के अनुरूप थे। लेकिन रामलला के हक में निर्णय आते ही कोर्ट पक्षपाती और डरे हुए हो गए। यह दुराग्रही दुष्प्रचार न्यायपालिका को बदनाम करने का प्रयास है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)