कैसे चीन को खुश करने में लगे हैं राहुल गांधी
– आर.के.सिन्हा
आज सारा देश देख रहा है कि भारत वर्तमान में वैश्विक महामारी कोरोना और चीन की शरारतपूर्ण सीमा विवाद के रूप में दो घोर चुनौतियों से प्रतिदिन सामना कर रहा है। भारत इन दोनों चुनौतियों का मुकाबला भी कर रहा है, पर कांग्रेस और उसके नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी सरकार से प्रतिदिन इस तरह के सवाल कर रहे हैं मानों वे भारत के साथ नहीं बल्कि चीन के साथ खड़े हों। कभी-कभी लगता है कि उनकी चर्चा करना व्यर्थ है क्योंकि ये सुधरने वाले तो हैं नहीं। ये वक्त की नजाकत को समझने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को बता चुके हैं कि चीन ने भारत की एक इंच भी जमीन पर अतिक्रमण नहीं किया है, तो सवाल पर सवाल करने का मतलब ही क्या है? मोदी ने कहा, ”जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। देश की संप्रभुता सर्वोच्च है। देश की सुरक्षा करने से हमें कोई भी रोक नहीं सकता। हमारे दिवंगत शहीद वीर जवानों के विषय में देश को इस बात का गर्व होगा कि वे दुश्मनों को मारते-मारते ही शहीद हुए हैं।”
क्या आपको देश के सूरते हाल पर प्रधानमंत्री से भी अधिक विश्वसनीय जानकारी कोई दे सकता है? पर यह छोटी-सी बात सोनिया या राहुल गांधी को समझ नहीं आ रही है। वे बार-बार यही कह कर देश को गुमराह कर रहे हैं कि चीन के साथ हुई झड़प पर संसद का सत्र बुलाया जाए। क्या कोरोना काल में यह करके वे सबकी जान जोखिम में डालना चाहते हैं। वास्तव में राहुल गांधी संकट की इस घड़ी में ओछी राजनीति कर रहे हैं। उनके बयानों को सुन-पढ़कर चीन अवश्य खुश होता होगा कि आखिर “राजीव गाँधी फाउंडेशन” को कई लाख डालर का दिया गया चंदा काम आ गया।
1962 की जंग से डोकलाम विवाद तक
आज दुश्मन की भाषा बोलने वाले जरा 1962 की हार से लेकर डोकलाम विवाद तक के पन्नों को खोलकर देख लें। पंडित नेहरू की अदूरदर्शी चीन नीति का परिणाम यह रहा था कि देश को अपने मित्र पड़ोसी बौध राज तिब्बत के अस्तित्व को खोना पड़ा, 1962 में युद्ध लड़ना पड़ा और युद्ध में मुंह की खानी पड़ी। उस जंग के 58 साल गुजरने के बाद भी चीन ने हमारे अक्सई चिन पर अपना कब्जा जमाया हुए है। अक्सई चिन का कुल क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है। यह एक रणनीतिक क्षेत्र है। जल संसाधनों और खनिजों से भरपूर है और हमारे हिन्दू आस्था केन्दों के नजदीक है। क्या इसपर वापस कब्जा करने की चिंता पिछले 58 वर्षों में नहीं होनी चाहिये थी। नेहरू ने ही संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भारत का स्थान ठुकराकर चीन का नाम प्रस्तावित किया था। उस समय तो नेहरू गुटनिरपेक्षता के वायरस से ग्रस्त थे और वे विश्व नेता बनना चाह रहे थे। न तो वह कर पाये न ही अपनी सीमाओं को सुरक्षित रख पाये। पूरी कश्मीर समस्या के जन्मदाता भी वही हैं। यदि उन्होंने कश्मीर को अपने हाथ में रखने की जिद न की होती तो सरदार पटेल कब का समाधान कर चुके होते।
पंडित नेहरू अपने से बड़ा और समझदार विदेश मामलों का जानकार किसी को मानते ही नहीं थे। इसीलिये उनकी जिद में देश फँसा। उन्हें कैबिनेट की विदेश मामलों की समिति के मेंबर गृह मंत्री सरदार पटेल ने 1950 में एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्ब्त के प्रति नीति से सावधान रहने को कहा था। अपने पत्र में पटेल ने चीन को “भावी शत्रु” तक घोषित कर दिया था। पर, नेहरू ने उनकी एक नहीं सुनी और पटेल की भविष्यवाणी ठीक 12 वर्षों के बाद 1962 में सच निकली।
कैसे भड़कते थे नेहरू
भारतीय संसद में 14 नवंबर,1963 को चीन के साथ युद्ध के बाद की स्थिति पर चर्चा हुई। नेहरू ने प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा- “मुझे दुख और हैरानी होती है कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावा करने वाला चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शेकदम पर चलने लगा।” वे बता रहे थे कि चीन ने किस तरह भारत की पीठ पर छुरा घोंपा। वे बोल ही रहे थे कि करनाल से सांसद स्वामी रामेश्वरनंद ने व्यंग्य भरे अंदाज में कहा, ‘चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा।’ इसपर, नेहरू नाराज हो गए और स्वामी रामेश्वरनंद की टिप्पणी पर क्रुद्ध होकर कहने लगे, “अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है।” सदन को नेहरू जी की यह बात समझ नहीं आई। पंडित नेहरू प्रस्ताव पर बोलते ही जा रहे थे। तब एक और सदस्य एच.वी. कामथ ने कहा, “आप बोलते रहिए। हम बीच में व्यवधान नहीं डालेंगे।” अब नेहरू जी विस्तार से बताने लगे कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले कितनी तैयारियां की हुई थी। पर उन्होंने ये नहीं बताया था कि चीन के मुकाबले भारत की तैयारी किस तरह और क्या तैयारी थी। इसी बीच, स्वामी रामेश्वरानंद ने फिर तेज आवाज में कहा, ‘मैं यह जानने में उत्सुक हूं कि जब चीन तैयारी कर रहा था, तब आप क्या कर रहे थे।’ सवाल वाजिब था। पर अब नेहरू जी अपना आपा खोते हुए कहने लगे, ‘मुझे लगता है कि स्वामी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा। मुझे अफसोस है कि सदन में इतने सारे सदस्यों को रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है।” मतलब तीखा सवाल पूछ लिया तो वे खफा हो गए।
बुरा मत मानिए कि जिस शख्स को बहुत ही लोकतान्त्रिक नेता माना और बताया जाता है, वह कभी भी स्वस्थ आलोचना झेलने का माद्दा नहीं रखता था। अपने को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का मुखिया बताने वाले नेता, चीन के साथ संबंधों को मजबूत करना तो छोड़िए, संबंधों को सामान्य बनाने में भी मात खा गये थे। अक्साई चिन की 37000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा पर बोलते हुए पंडित नेहरू ने कहा कि ” इस अक्साई चिन का क्या करना? वहां तो घास भी पैदा नहीं होती? नेहरू जी गंजे थे। एक सदस्य ने कहा, “तब तो सारे गंजों को सिर कटवा लेना चाहिये।”
आंखों में आंख डालकर बात
अब तो यह स्थिति आ गई कि चीन से सम्मान और अपनी भूमि खोने वाला भारत भी उससे आंखों में आंखें डालकर बातें तो कर रहा है। मोदी सरकार ने चीन को डोकलाम विवाद में ही उसको औकात समझा दी थी। वो डोकलाम पर मात खाने के बाद चुप हो गया। अब तो भारत चीन का हर स्तर पर मुकाबला करने के लिए तैयारी भी कर चुका है। जल, थल और नभ में हम तैयार हैं। हाँ, भारत ने कभी वार्ता के दरवाजे बंद नहीं किए। लद्दाख की गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद से भारत का रुख भी आक्रामक बना हुआ है। भारत गलवान घाटी की घटना के लिए सीधे तौर पर चीन को जिम्मेदार ठहरा चुका है। यह बात विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी चीनी विदेश मंत्री को टेलीफोन पर बातचीत के दौरान साफ कर दी थी। भारत के इसी रवैये के कारण अब चीन, सीमा पर तनाव खत्म करना चाहता है। चीन समझ गया है कि यदि युद्ध की स्थिति आई तो पूरा विश्व भारत के साथ खड़ा होगा और उसके साथ पाकिस्तान के अतिरिक्त कोई न होगा। भारत की भी यही चाहत है।
गलवान में अपने 20 सैनिकों को खोने वाले भारत ने चीन के 40 से अधिक सैनिकों और उसके कमांडिंग ऑफिसर को मार डाला था। भारत इस बार आर-पार के संघर्ष के लिए तैयार है। वह हालात पर नजर बनाए हुए है। हालांकि वह यही चाहता कि दोनों देश बातचीत के जरिए विवाद को सुलझाएं। हिंसा से तो किसी को फायदा नहीं होगा। पर इस बार हिंसा या जंग का जवाब शांति की अपील से नहीं दिया जाएगा। बुद्ध, महावीर और गांधी को अपना आदर्श मानने वाले भारत में अर्जुन, कर्ण, छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप और रानी लक्ष्मीबाई को भी राष्ट्रनायक माना जाता है। अब इस तथ्य से चीन जितना जल्द वाकिफ हो जाए वही बेहतर है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)