शिक्षा तंत्र में बदलाव की आवश्यकता
डॉ. अंशुल उपाध्याय
कोरोना के बाद फिर समय चक्र तेजी से घूम रहा है। जहां एक ओर भारत जैसे विकासशील देश में युवा शक्ति से अत्यधिक अपेक्षाएं की जा रही हैं। दूसरी तरफ भारत में बालकों-युवाओं की शिक्षा में गुणवत्ता वृद्धि के प्रयास नहीं किये जा रहे। समय की मांग के अनुरूप देखा जाये तो आज संपूर्ण भारत की शिक्षा प्रणाली में बहुत से सुधारों की अवाश्यकता है।
जैसा सर्वविदित है, भारत एक कृषि प्रधान देश है। उस लिहाज से आकलन किया जाये तो यहां अधिकांश परिवार जिनका जीवन खेती किसानी पर आधारित है वे गाँवों और कस्बों में निवास करते हैं और एक साधारण जीवन जीते हैं। ऐसे में इनमें अधिकांशतः प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं। जो ग्रामीण कुछ शिक्षा ग्रहण भी करते हैं वह उस दर्जे की नहीं होती जिससे उन्हें वैकल्पिक तौर पर किसी अन्य जगह काम का मौका मिल सके। या वे अपने बच्चों को पढ़ा सकें। ऐसे में कुछ बच्चे ही अच्छे रोजगार प्राप्त कर पाते हैं बाकी पुनः उसी भीड़ का हिस्सा बनकर रह जाते हैं जिन्हें उनकी शिक्षा के आधार पर अच्छी नौकरी मिलना कठिन है। इस परिस्थिति में ऑनलाइन शिक्षा के मायने ही सवालों के घेरे में है।
अब बात करें, अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तो इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे जो मध्यमवर्गीय परिवारों से आते हैं वे घर के वातावरण और अपने विद्यालय के वातावरण के मध्य सामंजस्य बैठाने में सदैव संघर्षरत रहते हैं। एक बालक को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए कौन-कौन सी चीजें बाधक हैं, इस बात का पता लगाने पर हम पाएंगे कि सबसे महत्वपूर्ण है शिक्षा की भाषा। किस भाषा में बच्चे को पढ़ाया जा रहा है, वह उसे कितना समझ रहा है जो उसे पढ़ाया गया। दूसरी बात है आपका सामाजिक स्तर। “सर्वशिक्षा अभियान” के अंतर्गत अगर किसी बच्चे को बड़े स्कूल में दाखिला मिल गया तो वह बच्चा जो किसी सामान्य परिवार से ताल्लुक रखता है, सुविधा संपन्न परिवार के बच्चों जैसा जीवन स्तर पा सकता है? वर्तमान शिक्षा तंत्र में ऐसी कई कमियां मौजूद हैं।
अगर हम मूल्य आधारित शिक्षा की बात करें तो इसके अंतर्गत श्रोता और प्रषेण अर्थात् छात्र और शिक्षक के मध्य मित्रवत संबंध होना चाहिये। निजी हो या सरकारी विद्यालय, प्रत्येक विद्यालय का मुख्य मकसद केवल शिक्षा प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए बल्कि बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति का विकास होना चाहिए। बच्चों की समझ के दायरे का विकास हो। किताबी ज्ञान के आकलन के आधार पर मेरिट निर्धारित ना करें बल्कि अतिरिक्त क्रियाकलापों में भी बच्चों ने कैसा प्रर्दशन किया है, उनके अंकों की रिपोर्ट कार्ड में स्थान होना चाहिये। बच्चों के समझने और उनके प्रतिक्रिया देने के आधार पर ही हम उनका सही आकलन कर सकते हैं।
अक्सर कुछ बालक जो कक्षाओं में सदैव प्रथम आते हैं, व्यवहारिक ज्ञान से अपरिचित होते हैं। साथ ही खेलकूद जैसे अन्य क्रियाकलापों या प्रतियोगिताओं में ज्यादा रुचि नहीं दिखाते। आगे जाकर इनमें से कुछ ही महाविद्यालय और समाज में उच्च दर्जा प्राप्त करते हैं, अधिकांशतः साधारण नौकरी के साथ जीवन गुजार देते हैं। किन्तु जिन बच्चों का पढ़ाई में स्तर मध्यम भी होता है, वे अन्य क्रियाकलापों में रुचि के चलते उच्च शिक्षा भी ग्रहण कर पाते हैं और अपने हुनर के अनुरूप रोजगार प्राप्त करके एक सफल और उत्कृष्ट जीवन जीते हैं।
कहने का तात्पर्य बस इतना है कि वर्तमान समय में आपका केवल किताबी ज्ञान लेना ही उचित नहीं है, किताबों में जो लिखा है वो कई साल पूर्व के अनुभव होते हैं जो सिर्फ आपकी बुनियाद मजबूत कर सकते हैं। उसके आगे की इमारत आपको अपनी सीखने की क्षमता के आधार पर बढ़ानी होती है। एक कक्षा में होशियार और कमजोर दोनों तरह के छात्रों को एक-सा ज्ञान दिया जाता है। होशियार छात्र तो पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं पर जो कमजोर हैं उन्हें प्रताड़ना के सिवा कुछ नहीं मिलता। जबकि अब हमारे शिक्षा तंत्र में कमजोर छात्रों पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्कयता है। स्कूलों से रोजगार काउंसलिंग का पूरा पैनल होना चाहिये, जो बालकों को उनके बुद्धि के स्तर पर चुनने और उसमें क्या रोजगार की संभावना हो सकती है, उसके मुताबिक बदलने का कार्य करें।
शिक्षा सदैव मूल परक और रोजगारोन्मुखी होनी चाहिये। हर बच्चे की किताबी पढ़ाई में रुचि और दिमाग एक-सा नहीं होता इसलिए माता-पिता को भी चाहिये कि वे केवल बच्चों को किताबी पढ़ाई में अव्वल आने के लिए प्रेरित ना करें। बल्कि यह भी समझें कि उनका बालक या बालिका किसा क्षेत्र में अग्रणी है, उसे वैसी शिक्षा प्रदान करवाये। इस तरह अगर बदलते वक्त और आधुनिकरण के दौर में हम अपने समाज को पिछड़ने नहीं देना चाहते तो हमें वर्तमान शिक्षा तंत्र में सुधार की अत्यधिक आवश्यकता है।
(लेखिका यूजीसी की पूर्व सीनियर एसोसिएट हैं।)