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कोरोना बड़ा या ‘मैं’

– आर.के. सिन्हा

आज पूरे विश्वभर में, घर-घर में, गली में, गाँव में, शहरों में चर्चा का एक ही विषय है कि कोरोना जैसी महामारी से निपटा कैसे जाये। कोरोना वायरस यानि कोविड-19, एक इतना छोटा-सा जन्तु जो नंगी आंखों से तो छोड़ दीजिए, सामान्य माइक्रोस्कोप से भी दिख नहीं सकता। इसको देखने के लिए भी इलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप की जरूरत होती है। अब इस छोटे-से पिद्दीनुमा वायरस ने पूरे विश्व को तबाह करके रख दिया है। किसी भी मनुष्य के ही नहीं समस्त जीव-जन्तु के शरीर में हजारों लाखों की संख्या में बैक्टीरियानुमा जीव-जन्तु विद्यमान रहते हैं। इन्हीं कारणों से समस्त प्राणियों में जीवन की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहती है। इनमें कुछ ऐसे अर्ध विकसित जीव होते हैं, जिन्हें वायरस कहते हैं जो हानिकारक प्रभाव पैदा करते हैं। इन हानिकर प्रभावों को रोकने के लिए और ऐसे वायरस को शरीर से खत्म करने के लिए चिकित्सा विज्ञान ने बहुत सारी एन्टिबायोटिक दवाइयां भी इजाद कर ली है, जिनके प्रयोग से ये वायरस समाप्त भी हो जाते हैं। चूँकि वायरस अर्ध-विकसित जन्तु होते हैं, ये अपने आप अपना विकास नहीं कर सकते तो इन्हें अपने विकास के लिये कोई माध्यम चाहिये- मनुष्य, जानवर या पशु-पक्षी का शरीर। लेकिन, यह वायरस कहां से आया और कैसे आया यह तो बाद में पता चलेगा। कहा जाता है कि चीन के बुहान शहर की एक मेडिकल प्रयोगशाला से यह कोविड-19 निकला। जिस प्रयोगशाला से यह निकला उसे वित्तीय सहायता तो अमेरिका ही कर रहा था। किन्तु, जब कोरोना की महामारी फैली तो विश्व की बड़ी-बड़ी शक्तियों ने मॅुंह बिचकाकर कहा “हुंह, ऐसे बहुत से वायरस देख चुके हैं, इसे भी आने दो।” जिन लोगों ने मॅुंह बिचकाया, ऐसे तमाम लोगों का नतीजा अब पूरी दुनिया के सामने है।

पूरे विश्व के जनमानस के सामने आज का मौलिक प्रश्न यह है कि वायरस बड़ा या “मैं”। प्रकृति बड़ी या वैज्ञानिक उपलब्धियां। यह प्राकृतिक आपदा पहली बार नहीं आ रही है। पहले भी स्पेनिश फ्लू के प्रकोप से 1918-20 के बीच पचास मिलियन यानि पांच करोड़ से ज्यादा लोग मारे गये थे। कुछ अनुमान तो दस करोड़ का भी है। जब विश्व की जनसंख्या आज की जनसंख्या के मुकाबले एक चौथाई भी नहीं थी। आवागमन के साधन भी नहीं थे। हवाई यात्राएं भी नहीं होती थी। सड़कें भी नहीं थी। ट्रेंने भी नहीं थी। आवागमन का एकमात्र मार्ग समुद्री जहाज था। तब तो इतना बड़ा नुकसान हुआ। सिर्फ भारत में स्पैनिश फ्लू से लगभग दो करोड़ भारतीयों की मृत्यु हुई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के भारतीय सैनिकों को जो स्पैनिश फ्लू से ग्रस्त थे, मुंबई के बंदरगाह पर वापस लाकर छोड़ दिया गया। वे अपने राज्यों में गये और उनसे यह महामारी फैली।

1815 में गुजरात में प्लेग आया और लगभग सौ वर्षों तक भारत में रहा। प्लेग की महामारी में कितने लाख लोग मारे गये, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा भी नहीं है। लेकिन, महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि जब वे प्लेग के दौरान कलकत्ता से उन्नाव अपनी ससुराल गये तो ससुराल के सारे लोग तबतक प्लेग से मर गये थे और गंगा में उनके शवों को विसर्जन करने के लिए जब मुश्किल से कुछ लोग गंगा किनारे पहुंचे, तब गंगा उफन रही थी। निराला ने यहां स्पष्ट किया है कि गंगा का यह उफनना बाढ़ के कारण नहीं था। गंगा का यह उफनना, गंगा में फेंके गये शवों की इतनी ज्यादा संख्या के कारण था, जिसके कारण शायद गंगा का जल दूषित भी हो रहा था और क्रोधित भी।

अब लगभग सौ-सवा सौ साल के बाद यह कोरोना का कहर आया है। कोरोना का कहर शुरू तो चीन के बुहान शहर से हुआ। वैसे कहा तो यह जाता है कि इस प्रकार के वायरस पर चीन के बुहान शहर की एक प्रयोगशाला में रिसर्च भी चल रहा था। यह भी कहा जाता है कि इस रिसर्च में अमेरिका की सहायता भी मिल रही थी। यह भी जानकारी आई है कि हाल ही में अमेरिका ने उस प्रयोगशाला को अठाईस करोड़ की सहायता भी भेजी थी। इसके कई प्रमाण अखबारों में भी आये थे। अतः कुछ जानकार यह भी कह रहे हैं कि यह आविष्कार जैविक हथियार बनाने के लिये हो रहा था। खैर इन बातों पर अन्वेषण करने का समय नहीं है। सभी जानते हैं कि चीन के बुहान शहर में कोरोना का यह वायरस फैला। फिर चीन से इटली, इटली से ईरान, वहां से बेल्जियम, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, स्पेन, अमेरिका से घूम-फिर कर भारत में भी आ गया। क्योंकि, भारत के हजारों व्यापारी खासकर चमड़ा व्यापारी इटली और कम्प्यूटर, फर्नीचर और इलेक्ट्रॉनिक के व्यापारी कच्चे माल के लिए चीन से बहुत करीबी का संबंध बनाकर रखते हैं और आते-जाते रहते हैं।

अब मैं मूल प्रश्न पर फिर वापस आता हूँ कि कोरोना का प्रकृति आपदा के रूप में क्या संबंध है। यह तो सबों ने माना ही है कि कोरोना एक प्राकृतिक आपदा है। लेकिन, यह एक आध्यात्मिक प्रश्न है कि प्राकृतिक आपदाएं आती ही क्यों हैं, प्रकृति ने ही तो हमें सबकुछ दिया है। हवा, पानी, अग्नि, आकाश, उर्वरा भूमि सारा कुछ तो प्रकृति का ही प्रदान किया हुआ है। लेकिन, प्राकृतिक आपदाएं आती तब हैं, जब हम प्रकृति को चुनौती देने लगते हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन-शोषण करने लगते है? जब हमें ऐसा लगने लगता है कि यह प्रकृति क्या है? इससे तो कहीं बड़े हम हैं। सारे प्राकृतिक संसाधनों पर हम बुद्धिमान मनुष्यों का ही तो एकाधिकार है। हम तो अंतरिक्ष पर चले गये। हमने तो चाँद और मंगल ग्रह तक पर अपनी पैठ पहुंचा दी। हमने बड़े-बड़े वैज्ञानिक शोध कर डाले तो प्रकृति तो कुछ है ही नहीं। सब कुछ मनुष्य का ही है। यह सारी प्रकृति मनुष्य और मनुष्य के दिमाग की गुलाम है- ज्यादा चतुर इंसान ऐसा मानते हैं और जिन्होंने ऐसा माना, इसका परिणाम उन्होंने भी अच्छी तरह भोगा और सारी दुनिया को भोगने पर मजबूर किया। प्रकृति में करोड़ों तरह के अरबों-खरबों वृक्ष हैं। ये सभी जीव हैं हमारी ही तरह। करोड़ों तरह के जीव-जन्तु हैं। ये भी जीव हैं जैसा कि हम सब मनुष्य हैं। उन करोड़ों जानवरों में एक यदि मनुष्य यह सोचने लगे कि मैं प्रकृति से बड़ा हो गया तो इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है? कुछ भौतिकवादी वैज्ञानिक और अपने को प्रगतिशील या वामपंथी कहे जाने वाले लोग यह समझते हैं कि मनुष्य ही सबसे बड़ा है विश्व में। और मनुष्य के कारण ही, और मनुष्य के लिए ही, मनुष्य के द्वारा ही सारे विश्व का संचालन होता है। यहीं हम भूल कर बैठते हैं। इसी भूल का नतीजा हम भुगत रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर मनुष्य का जितना अधिकार है उतना ही बाघ, हाथी, गाय, कुत्ते, बिल्ली और चींटी का है।

जरा सोचिए, एक इतना पिद्दी-सा कोरोना का छोटा-सा वायरस। इस पिद्दी कोरोना ने दुनिया को हिला कर रख दिया है। इसने आख़िरकार क्या सिद्ध किया? इसने तो यही सिद्ध किया है न कि रे, मूर्ख मनुष्य ! तू प्रकृति से बड़ा नहीं है। प्रकृति का मात्र एक छोटा-सा अंश है और जबतक प्राकृतिक संपदा का सम्मान करेगा तभी तक तेरा अस्तित्व सुरक्षित रह पायेगा।

भारतीय उपनिषदों में पहला उपनिषद है, ईशा वास्योपनिषद । ईशा वस्योपनिषद का पहला श्लोक है-

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

इसका अर्थ यह है कि जिस ईश्वर ने इस प्रकृति की संरचना की है, वह प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण है। लेकिन, इन प्राकृतिक संपदाओं का उपयोग किस प्रकार होना चाहिए? “तेन त्यक्तेन भुंजीथा” यानि त्यागपूर्वक होना चाहिए। त्यागपूर्वक कहने का क्या अर्थ है जितनी आवश्यकता हो उससे थोड़ा कम उपयोग होना चाहिए। आवश्यकता भी पूर्ण करने के चक्कर में नहीं रहना चाहिए। बिना जरूरत के कुछ भी उपयोग हो ही नहीं। अगर चार रोटी से पेट भरता हो तो तीन रोटी से ही काम चला लेना चाहिए। तब लोग यह कहना शुरू करेंगे कि इतनी फसलें हम क्यों उगा रहे हैं” उसका क्या होगा। अरे, भाई! इन फसलों में जो कुछ उगा रहे हो यह सिर्फ तुम्हारे लिए ही थोड़े है। यहां पर “कमाने वाला खायेगा”, वाली बात नहीं है। यहां तो कमाने वाला खिलायेगा और पूरी दुनिया खायेगी, वाली बात व्यावहारिक और युक्ति संगत है। उत्पादन तो होना ही चाहिए। उत्पादन ज्यादा से ज्यादा हो। मनुष्य को अपने लिए करना चाहिए ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और जो नहीं कमा रहे हैं ऐसे तमाम लोगों के लिए भी करना चाहिए। जो अपंग हैं, अपाहिज हैं, उनके लिए क्या नहीं करना चाहिए। जीव-जन्तु,पशु-पक्षी, वृक्ष प्रकृति ने ही तो हमें दिये हैं, जो स्वयं उत्पादन नहीं कर सकते। लेकिन, उनके भी पेट भरने की तो जरूरत होती है। उनके लिए भी तो उत्पादन करना हो होगा न? यही हम भूलते जा रहे हैं।

यदि इसको विस्तृत रूप से जानना चाहते हैं तो हमारे यहां एक ग्रंथ है, जिसका नाम है, “अन्न पुराण।” सिर्फ अन्न के बारे में ही इसमें चर्चा की गयी है। उसे पढ़ लें, तो हमारे मनीषियों, ऋषियों, दार्शनिकों की जो विचारधारा है, जो चिंतन है, जो भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है, वह सब स्पष्ट हो जायेगा। समझ में आ जायेगा कि मनुष्य को बुद्धि दी गई है और मनुष्य को एकमात्र ऐसा प्राणी बनाया गया है, प्रकृति के द्वारा जो कि स्वयं सबकुछ उत्पादन कर भी सकता है। उसका उद्देश्य है कि वह सबके लिए उत्पादन करे और प्रकृति के संरक्षण के भी उपाय करें। न कि सिर्फ अपने बारे में सोचे और प्रकृति के विनाश का उपाय करे। जब-जब हमने प्रकृति के सामने चुनौती भरे लहजे में यह कहने की कोशिश की है कि “मैं”, मैं सबसे बड़ा, या मैं ही आपका सबसे बड़ा दुश्मन हूँ। और जब-जब हमने बात की है कि मैं नहीं सारा विश्व, सारी सृष्टि, सबके सुख की कल्पना की है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्। जब-जब हमने अपना भी कल्याण किया है और प्रकृति के संरक्षण की भी बात की है।

अब मैं अपनी बातों को समाप्त करूँ, इसके पहले यह बताना चाहता हूँ कि प्रकृति के साथ चुनौती भरे लहजे में पेश आना और खुद को तीसमार खां समझने का परिणाम क्या हो सकता है? जब जॉन हॉपकिंग्स विश्वविद्यालय ने विश्व के तीस बड़े देशों से आंकड़ा इकट्ठा किया, यह जानने के लिए कि किस देश में उस देश के प्रति लाख आबादी के मुकाबले कितने प्रतिशत व्यक्तियों की मौत हुई? यह आंकड़ा बहुत ही आश्चर्यजनक और आँखें खोलने वाली है। सबसे ज्यादा मौतें स्पेन में हुईं, वहां संक्रमित कुल मरीजों की संख्या की 10.4 प्रतिशत थी और स्पेन की प्रति लाख आबादी पर 38 मौतें हुई। इसी से मिलता-जुलता आकड़ा इटली का भी था। इटली में 20465 मौंतें हुई जो कि पॉजिटिव मरीजों की संख्या के मुकाबले 12.8 प्रतिशत थी और प्रति लाख आबादी पर 33.86 मौंतें हुई। इसके बाद का नम्बर आता है बेल्जियम का। यहां भी पुष्ट मरीजों की संख्या के मुकाबले 12.8 प्रतिशत मौतें हुई, जो कि आबादी के हिसाब से प्रति लाख आबादी पर 34.17 मौतें हुईं। इसी प्रकार नीदरलैंड में मरीजों के पुष्ट मामलों के मुकाबले 10.6 प्रतिशत मौंते हुई जो कि प्रति लाख आबादी पर 16.44 मौतें थी। स्वीट्जरलैंड में भी 4.4 प्रतिशत मरीजों की मौतें हुई जो कि आबादी के मुकाबले प्रति लाख आबादी पर 13.6 मौतें थी। स्वीडन में भी मरीजों के पुष्ट मामलों के मुकाबले 8.4 प्रतिशत मौतें हुई जो प्रति लाख आबादी पर 9.02 मौतें थीं। अमेरिका भी पीछे नहीं है। जहाँ 682619 पुष्ट मामलों के मुकाबले 23529 मौंते हुई जो कि अबतक विश्व में किसी भी देश में सबसे ज्यादा है और पुष्ट मरीजों का 3.4 प्रतिशत है, जो कि प्रति लाख आबादी पर 7.19 मृत्यु प्रतिशत है। अब जरा अपने भारत की ओर भी देखें। भारत में अभीतक 10453 पुष्ट मामले सामने आये हैं, जिसमें 358 लोगों की मौतें हुई। यानि पुष्ट मरीजों की संख्या के मुकाबले 3.4 प्रतिशत मौतें हुई। लेकिन, प्रति लाख आबादी पर जनसंख्या के मुकाबले यह तो नगण्य है। मात्र 0.03 प्रतिशत। यानि लगभग साढ़े तीन लाख आबादी पर एक मौत मान सकते हैं। यह सारा कुछ इसलिए हुआ कि हमने प्रकृति से उतना ज्यादा संघर्ष नहीं किया।

यह सारा कुछ इसलिए हुआ कि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी जी ने, जो वैसे भी एक राजनीतिक नेता होने के साथ-साथ उच्च कोटि के आध्यात्मिक पुरुष भी हैं और उनका कुशल व व्यावहारिक नेतृत्व। उन्होंने प्रकृति के सामने घुटने टेके। हाथ जोड़कर नमस्कार किया। कोरोना की शक्ति को पहचाना और उसे पिद्दी-सा जीव न मानकर प्रकृति के द्वारा सृजित एक जीव के रूप में ससम्मान दिया, उसकी संक्रमण शक्ति को पहचाना और सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के जरिये इस आपदा से संघर्ष करने की ठान ली। हमारे प्रधानमंत्री ने जब इस देश में एक भी कोरोना का पॉजिटिव मरीज नहीं था, तब से विदेशों से आने वाले लोगों को हवाई अड्डे पर ही स्क्रीनिंग करके कोरेंन्टाइन कराने का काम शुरू कर दिया। लेकिन, दुर्भाग्य है कि उससे पहले ही सैकड़ों विदेशी संक्रमित तब्लीगी जमात के मरकज में पहुँच चुके थे। अब इस षड्यंत्र का तो पुख्ता इलाज होना ही चाहिए। जब मरीजों की संख्या भारत में 500 से ऊपर पहुंची तो दो हफ्ते का लॉकडाउन कर दिया। अब दो हफ्ते की लॉकडाउन में जितनी सफलता मिलनी चाहिए थी उतनी नहीं मिली, यह बात अलग है। इसका मुख्य कारण यह रहा कि कुछ नासमझ लोगों ने इसे समझने की कोशिश ही नहीं की और सिर्फ उन बातों को ही समझा जो उनके धर्मगुरुओं ने सिखाया था। इसके कारण भारी नुकसान तो हुआ ही । लेकिन, इतने नुकसान के बावजूद लॉकडाउन के पहले संक्रमित मरीजों की संख्या जो मात्र चार दिनों में दुगुनी हो रही थी अब तीन सप्ताह के बाद वह अब लॉकडाउन के बाद छह दिनों में दुगुनी हो रही है और अभी भी दर्जनों ऐसे जिले हैं जहां एक भी मरीज नहीं है। यह क्या कम बड़ी सफलता मानते हैं।

अतः यदि हमें इस प्राकृतिक आपदा से सफलतापूर्वक निपटना है और कम से कम क्षति हो इसका इंतजाम करना है तो इसका एक ही उपाय करिये कि प्रकृति के सामने घुटने टेकिये। प्रकृति के सामने बहादुर बनने की कोशिश हरगिज मत कीजिए। एक पुरानी कहावत है कि “जो डर गया वह मर गया।” लेकिन इस महामारी के संकट की घड़ी में कहावत उल्टी हो गयी है- “जो डरेगा वही बचेगा। जो नहीं डरेगा वह जरूर मरेगा। अतः आज का दिन सबके लिये आत्मचिंतन का है और यदि भविष्य की पीढ़ियों की हमें जरा भी चिंता है तो उचित यही होगा कि हम इस महायुद्ध में अपने सुप्रीम कमांडर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के निर्देशों का शत-प्रतिशत पालन करें। उनके कहे अनुसार पूर्णतः लॉकडाउन के मार्ग पर चलें। लाखों-करोड़ रुपयों के पैकेज गरीबों के लिए उन्होंने दिये हैं। छोटे उद्योगों, कृषि और रोजगार पैदा करने वाले उद्योगों के लिए भी अन्य पैकेजों की घोषणा जल्दी होने वाली है। प्रधानमंत्री ने जो किसी को भूख से नहीं मरने देने का प्रण लिया गया है, उसे पूरा किया जायेगा। लेकिन लोग सड़कों पर न आयें। जो घटनाएं मुम्बई और ठाणे में कल देखी गयी, आज जमुना किनारे दिल्ली में और दूसरी उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुई वह दूर्भाग्यपूर्ण है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पूर्णावृत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो उनके साथ भी सरकार को वैसा ही बर्ताव करना चाहिए जैसा आतंकवादियों के साथ किया जाता है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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