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वायरस और मानव सभ्यता

– डॉ. ललित पाण्डेय

विश्व इतिहास का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि नवपाषाणकाल में आज से लगभग 12000 वर्ष पूर्व जनसंख्या बढ़ने पर मानव शरीर में वायरस पनपा, उस समय से निरंतर एक अनियमित अंतराल के पश्चात वायरसजनित व्याधियों से हम ग्रसित होते रहे हैं। इसके पश्चात यूनान के एथेन्स में लगभग दो हजार पांच सौ वर्ष पूर्व 430-426 ईपू. में वायरसजनित बीमारी ने बड़े पैमाने पर मानव जीवन को नुकसान पहुंचाया। वायरस के जीवन और इसके मानव जीवन पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य में वायरस का प्रवेश पशुओं से हुआ। एक अध्ययन से पता चला है कि चूहे मनुष्यों में वायरस के प्रवेश के लिए मुख्यत: जिम्मेदार रहे हैं। पुरातत्व की एक शाखा जैव पुरातत्व के विद्वानों ने खुदाई से प्राप्त चूहे के कंकालों में सुरक्षित रहे दांतों के वैज्ञानिक अध्ययन से यह सिद्ध भी किया है।

इस घटना के बाद छठी शताब्दी ईस्वी में 542-546 के मध्य यूरोप में जस्टिनिअन प्लेग व्यापक रूप से फैला और इसने यूरोप के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन में उथल-पुथल मचा दी। प्रारंभिक इतिहास की इस घटना के बाद चौदहवीं शताब्दी में 1346-1353 के मध्य में ब्रेक डेथ नाम की बीमारी ने व्यापक रूप से हानि पहुंचाई, ऐसा माना जाता है कि इस बीमारी ने यूरोप की तीस से साठ प्रतिशत जनहानि की। इस बीमारी का प्रारंभ चीन से हुआ था और यह इंसानों में चूहों से फैला था। इस बीमारी की भयावहता के विवरण आज भी रूह कंपा देने के लिए काफी हैं। क्षेत्रवार प्रसार की दृष्टि से यह संक्रामक रोग आइसलैंड, स्केंडेविनिया से होते हुए बगदाद यमन तक फैल गया था। एक अनुमान के अनुसार इस महामारी से यूरेशिया और उत्तरी अफ्रीका में 75 से 200 मिलियन लोग काल कवलित हुए थे। अधिकतर इतिहासकार यह मानते हैं कि इस महामारी के प्रकोप से यूरोप में हुई मौतों से एक ऐसी अव्यवस्था पैदा हो गयी थी जिसे संतुलित होने में दो से तीन शताब्दियां लग गई थीं।

एक अन्य जानकारी के अनुसार यह बीमारी मध्यम एशियाई अथवा पूर्व एशियाई इलाके से होती हुई रेशम मार्ग से क्रीमिया पहुंची थी और इस बीमारी के फैलने का कारण काले चूहों में पाए जाने वाले पिस्सुओं से मनुष्यों तक पहुंचान सामने आया। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से इस बीमारी से भारत प्रभावित नहीं हुआ था। इस संबंध में कुछ लेखकों की मान्यता है कि यह बीमारी ‘मंगोल होमलैंड’ से होती हुई दक्षिण की ओर गई। अभी कुछ दशक पूर्व हुई खोजों से यह जानकारी मिलती है कि भारत में इस महामारी का प्रभाव नगण्य रहा था क्योंकि यह वह समय था जब उत्तरी भारत में मुहम्मद बिन तुगलक का शासन था और दक्षिण में समृद्ध बहमनी और विजयनगर साम्राज्य अपने चरम पर थे। इस समय के एक समकालीन यात्री इब्नबतूता ने लिखा है कि इस समय वारंगल और मदुरै में एक बीमारी फैली थी और स्वयं सुल्तान इसका शिकार हुआ था और वह शीध्र ही स्वस्थ भी हो गया था।

इब्नबतूता के अनुसार यह बीमारी ब्लेक डैथ नहीं थी। इब्नबतूता का यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसे इस बीमारी की जानकारी थी। भारत में जनहानि के स्थान पर जनसंख्या में वृद्धि हुई थी।1986 में टॉवर आॉफ लंदन के समीप स्थित एक कब्रगाह में संपन्न पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त कंकालों के वैज्ञानिक अध्ययन से यह जानकारी मिलती है कि यहां एक साथ दो हजार चार सौ शव दफनाए गए थे, इस कब्रिस्तान का काल वायरस जनित संक्रमण के काल के समानांतर ही था।

चौदहवीं शताब्दी की इस महामारी के पश्चात सत्रहवीं शताब्दी में फैले वायरसजनित रोग ने व्यापक रूप से प्रभावित किया था। यह प्रकोप जहांगीर के शासन में हुआ था, इस समय के लिपिबद्ध विवरणों से जानकारी मिलती है कि किस प्रकार से यह महामारी का प्रथम शिकार एक युवती हुई और इसमें इसका प्रसार एक चूहे से हुआ और इस चूहे को बिल्ली ने संक्रमित किया था। यह एक अत्यंत दुर्दांत प्लेग था। तत्कालीन लिखित साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि एकाएक इस युवती को बहुत शीघ्रता से तेज बुखार हुआ था जिससे वह अत्यंत बेचैन हो जाती थी और धीरे-धीरे यह अत्यंत कमजोर हो गई थी और इसकी त्वचा का रंग पीला हुआ और फिर युवती का शरीर काला हो गया। तत्पश्चात अगले दिन वह पेचिस का शिकार हो गई और इसके बाद इसकी दर्दनाक मृत्यु हो गई।

सत्रहवीं शताब्दी की महामारी के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में फैले प्लेग ने चीन और भारत को व्यापकता से प्रभावित किया जिसमें बड़े पैमाने पर जनहानि हुई। इसका प्रारंभ 1896 में हुआ था लेकिन 1897 में इसकी वैक्सीन की खोज के बाद इसका प्रसार थम भी गया था। आज हम एकबार फिर वायरस जनित महामारी से त्रस्त हैं। एकबार फिर मानवता की मृत्यु से जंग जारी है और निश्चय ही इस महासंग्राम में एकबार फिर मानवता की जीत होगी।

(लेखक वरिष्ठ इतिहासविद् व पुरावेत्ता हैं।)

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