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कोरोना संकटः अपनी बोली, अपना गांव

– डॉ. पवनपुत्र बादल

कोरोना से आज भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व इसकी चपेट में है। इस महामारी ने विश्व में ऐसी तबाही मचा रखी है कि मानवता भी कराह उठी है। विश्व की महाशक्तियाँ इसके आगे धराशायी हो गयी लेकिन भारत में आज भी उम्मीद की किरणें दिखाई दे रही हैं। अभीतक हम इस महामारी और इससे उत्पन्न दुश्वारियों पर यथासम्भव नियन्त्रण करने में सफल रहे हैं। जब सारा देश अपने घरों में कैद होने को मजबूर है, सम्पूर्ण देश के शहर, गाँव-गली ढाई महीने तक लॉकडाउन की स्थिति में रहने के बाद आज भी जीवन्त नहीं हो पा रहे हैं, आवागमन के साधन यहाँ तक कि आवश्यक सेवाओं को छोड़कर दोपहिया वाहन भी तीन महीने से खड़े हैं।

औद्योगिक प्रतिष्ठान, व्यापारिक केन्द्र, दुकानें आदि बन्द पड़ी हैं, लोगों के सामने विशेषकर रोजाना कमाने खाने वालों के सामने रोजगार का संकट है। ऐसे समय में सामाजिक संस्थाओं, विशेष रूप से संघ और उसके आनुशंगिक संगठनों ने असहाय, गरीबों, जरूरतमन्दों की सेवा का बीड़ा उठाया और कार्यकर्ता सेवा कार्य के लिए निकल पड़े घरों के बाहर। नर सेवा-नारायण सेवा का मूलमन्त्र ही राष्ट्रभक्ति का ध्येय होता है, अतः इस संकट के समय निर्बल निरीहों की सहायता को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् ने अपना लक्ष्य बनाया। इस महामारी के समय संगठन की गतिविधियाँ सामान्य समय से बहुत बढ़ी हुई रहीं। अपने सहयोगियों के साथ जुट पड़ने का आह्वान किया और इस पुनीत कार्य में देखते-देखते अनेक बुद्धिजीवी, साहित्यकार बंधु, बहिनें, जीवन की परवाह किये बिना, अपने शहर-गाँव की निर्धन बस्तियों में जा-जाकर सेवा कार्य करने लगे। उन्हें भोजन सामग्री, मास्क, सेनेटाइजर एवं अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं, दवायें आदि वितरित कर कोरोना से बचाव के तरीके बताकर उन्हें जागरूक किया जाने लगा। यह क्रम लगातार ढाई महीने तक चलता रहा। लेखनी पकड़ने वाले हाथ सेवाकार्य से जुड़कर यहाँ भी उत्तम से उत्तम कार्य करने में अग्रणी रहे।

इस संकटकाल में कुछ राष्ट्र विरोधी संगठन एवं असामाजिक तत्व भी सक्रिय हो गये जो सामाजिक ताना-बाना बिगाड़कर जातिगत, क्षेत्रगत विद्वेष फैलाकर देश को कमजोर करना चाहते थे। ऐसे लोगों ने देश के विभिन्न प्रदेशों के बड़े औद्योगिक नगरों में अन्य प्रदेशों के कामगार बंधुओं-मजदूरों के प्रति झूठी अफवाहें फैलाकर क्षेत्रवाद व जातिवाद के नारे उछालकर, लोगों को भड़काकर, वैमनस्य उत्पन्न करके पलायन करने को मजबूर कर दिया। देश में स्थिति एकबार सन 1947 के विभाजन जैसी पलायन की हो गयी। फलस्वरूप लाखों कामगार मजदूरों को शहर छोड़कर सैकड़ों हजारों किमी दूर अपने गाँव जाना पड़ा। पैदल ही सुदूर गांव जा रहे मजदूरों के लिये मुख्यमंत्री ने पूरी संवेदना के साथ साधन व सुविधाएँ उपलब्ध करायी।

एक तरफ अन्धेरा है तो दूसरी ओर प्रकाश भी होता है। प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री ने जिस संवेदना के साथ सभी का साथ दिया। परिवहन, भोजन, दवाइयों और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध करवायी, इसे देख सभी कामगार मजदूर आत्मविश्वास के साथ अपने गाॅव लौटे। जैसे ही संघ व अन्य संगठनों को इसकी जानकारी हुई यहाँ भी हम अपने लोगों की सेवा करने में, भोजन-पानी, दवा आदि देकर तथा यथासम्भव स्थानीय प्रशासन व उदारवादी दानशील लोगों के सहयोग से परिवहन साधन की व्यवस्था कराकर उन्हें उनके गन्तव्य तक पहुँचाने में सहयोग करते रहे। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के कार्यकर्ता भी विभिन्न जिलों में सेवा भारती के साथ मिलकर सेवाकार्य में जो सहयोग किये वह प्रशंसनीय है।

साहित्य परिषद् की राष्ट्रीय स्तर पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश के सभी प्रदेशों के पदाधिकारियों ने ई-वेबिनार के रूप में प्रतिभाग किया। संगोष्ठी का विषय-‘स्वदेशी अवधारणा और यथार्थ’ था, जिसमें देश के विद्वान वक्ताओं ने स्वदेशी की अवधारणा पर अपने उद्बोधन से मार्गदर्शन किया। वेबिनार का आयोजन अलग-अलग तिथियों में किया गया। जिसके तीन मुख्य विषय थे, पहला ‘स्वदेशी अवधारणा और यथार्थ’ दूसरा ‘अपनी बोली अपना गाँव’ एवं तीसरा ‘अपने लोक देवता-ग्राम देवता’। तीनों विषयों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की जड़ें ग्राम्य स्तर तक किस तरह जुड़ी हुई हैं, इस पर विस्तार से चर्चा की गयी।

उत्तर प्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा प्रान्त स्तर पर उत्तर प्रदेश के छहों प्रान्तों की संगोष्ठी का आयोजन क्षेत्रवार ‘अपनी बोली अपना गाॅंव’ विषय पर किया गया। जिसमें सभी 75 जिलों में गाॅंवों तथा महानगरों के पदाधिकारियों सहित प्रान्तीय कार्यकर्ताओं की सहभागिता रही। इतने व्यापक आयोजन के लिए हम अपने समस्त सहयोगियों को साधुवाद देते हैं। साहित्य परिषद् की इन ई-गोष्ठियों का मूल उद्देश्य भारत की मूल ईकाई गाॅंव की भूमिका, स्थानीय बोली एवं ‘अपने लोक देवता-ग्राम देवता’ से जुड़कर देश की संस्कृति को अक्षुण्ण तथा शक्तिशाली बनाने का लक्ष्य रहा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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