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हवन : सृष्टि के लिए वरदान

– डॉ. मोक्षराज

मनुष्य की उत्पत्ति का इतिहास जितना प्राचीन है, उतना ही पुराना यज्ञ का इतिहास भी है। भारतीय वैदिक ज्योतिष के आधार पर मनुष्य की उत्पत्ति को 196 करोड़ वर्ष हो चुके हैं तथा भारतीय परंपरागत साहित्य के आधार पर मनुष्य की प्रथम पीढ़ी ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल पहली बार जब अपने नेत्र खोले और ऋग्वेद के पहले मंत्र- “अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्” से अग्नि (ईश्वर) की यज्ञ द्वारा स्तुति करने की प्रेरणा पाई तथा ऋत्विज, पुरोहित, होता का दायित्व समझा, सामवेद की पहली ऋचा ने “….गृणानो हव्यदातये” गाकर हवि का उल्लेख किया। यजुर्वेद के पहले मंत्र ने “…पशून् पाहि” कहकर गौ आदि पशुओं की रक्षा के लिए प्रार्थना की, ताकि उनसे हवन के लिए दुग्ध (पय) आदि प्राप्त किया जा सके। अर्थात् वेदों ने 1. अग्नि 2. ऋत्विज 3. यजमान 4. हवि व उसका आधार 5. पशु का वर्णन कर सर्वप्रथम यज्ञ के विषय को उद्घाटित कर उसका महत्व प्रतिपादित किया। क्योंकि उक्त तत्त्व ही यज्ञ के प्रमुख आधार भी हैं। यज्ञ द्वारा ही 21 तत्वों अर्थात् संपूर्ण ब्रह्माण्ड को संतुलित रखा जा सकता है। इस बात का उल्लेख अथर्ववेद के पहले मंत्र ने “ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा“ कहकर व्यक्त किया है। चारों वेदों में यज्ञ व उसके प्रभाव का सर्वप्रथम उल्लेख मिलना इस बात की ओर भी संकेत करता है कि मनुष्य का जीवन यज्ञमय होना चाहिए। संपूर्ण भूमंडल पर वेद से प्राचीन कोई ग्रंथ नहीं है, अत: यज्ञ का इतिहास भी 196 करोड़ वर्ष पुराना ही है । कालांतर में श्रौतयज्ञों की विधि व विज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए कल्प, ब्राह्मण ग्रन्थ, पूर्व-मीमांसा, धर्मशास्त्र, स्मृतियों व रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों ने इसे जीवन के विभिन्न पहलुओं से जोड़कर रखा।

यज्ञ में हिंसा का विधान नहीं

वैदिक सिद्धान्तों के निश्चय के लिए वेदों को स्वत: प्रमाण एवं परम प्रमाण माना जाता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम सूक्त के चौथे मंत्र “…यज्ञमध्वरम् “ कहकर स्पष्ट कर दिया है कि यज्ञ वही कहलाता है, जिसमें किसी प्रकार की हिंसा न हो। ध्यातव्य है कि वेदों में परस्पर विरोधी सिद्धान्त नहीं होते हैं। जो लोग यज्ञ में हिंसा की बात करते हैं या यज्ञ की हिंसा को हिंसा नहीं मानते वे भ्रमित हैं, अज्ञानी हैं, हृदयविहीन हैं या भारत की संस्कृति को कलंकित करने वाले किसी विदेशी षड्यंत्र के शिकार हैं। उन्हें यह जानना आवश्यक है कि कर्मकांड के लिए सर्वोच्च प्रमाण यजुर्वेद है। यज्ञ में हिंसा की गुत्थी को सुलझाने के लिए, ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देने वाले महान समाज सुधारक व धर्म संशोधक महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा सर्वप्रथम इसी वेद का यौगिक एवं योगरूढ़ भाष्य किया गया व यजुर्वेद में यज्ञीय हिंसा का उल्लेख नहीं मिला। वेद को भलीभाँति जाने बिना ‘यज्ञ में हिंसा’ के मिथ्या आरोप लगाए जाते रहे हैं व उन भ्रांतियों के कारण कुछ संप्रदाय वेद व यज्ञ के विरोधी भी हो गए थे, जिनके कारण भारत के क्षात्रबल व ब्रह्मबल को अत्यधिक क्षति पहुँची। परिणामस्वरूप आर्यावर्त्त सदियों तक लूट का शिकार होता रहा। 4000 वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व में यज्ञ होते थे

दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में पेरू देश स्थित एंडीज की पर्वतमालाओं में 5 हज़ार वर्ष पुरानी यज्ञवेदियों का मिलना, अफ़्रीका के मस्नार में कण्व ऋषि द्वारा यज्ञ संचालित रखना तथा वहीं हज़ारों वर्ष पूर्व भरत राजा द्वारा यज्ञ के उपरांत हाथियों को सोने के मुकुट पहनाकर दान करना, आस्ट्रेलिया में 8.69 लाख वर्ष पूर्व पुलस्त्य ऋषि द्वारा यज्ञ कराना, यव (जावा) एवं बाली द्वीप में 535 वर्ष पहले तक यज्ञ की परंपरा का अनवरत संचालित रहना, हरिवर्ष (यूरोप) ईरान, गान्धार, साइबेरिया, चीन व अरब देशों में 1700 वर्ष पहले तक तथा नेपाल, भूटान, ब्रह्मा (बर्मा) आदि में आज भी यज्ञीय चिह्नों का मिलना यज्ञ की उपयोगिता एवं व्यापकता को प्रदर्शित करता है। परवर्ती सांस्कृतिक हमलों ने कहीं-कहीं हवन को अग्यारी, दीपक, धूपबत्ती, अगरबत्ती, लोबान, कैंडल जलाने तक में सीमित कर दिया।

अमेरिका में हवन

सन् 1875 के बाद अर्थात् 19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के आरंभ में त्रिनिदाद, मॉरिशस, यूगांडा, गयाना, फीजी व दक्षिण अफ़्रीका के साथ-साथ विश्व के प्रमुख धर्मनिरपेक्ष देशों में आर्यसमाज द्वारा पुन: यज्ञ का प्रचार किया गया। आज भी आर्य प्रतिनिधि सभा अमेरिका के साथ जुड़ी हुई व विभिन्न स्वायत्त आर्य संस्थाओं, जैसे ह्यूस्टन, न्यूजर्सी, शिकागो, न्यूयार्क व अटलांटा स्थित ओम् टेम्पल, वैदिक मंदिर व वैदिक संस्कृति स्कूलों द्वारा हवन का निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जाता है। यहाँ आयोजित रविवारीय हवन कार्यक्रमों में किसी भी संप्रदाय, जाति, नस्ल व देश के नागरिक शामिल हो सकते हैं। इसी प्रकार मैरीलैंड, वर्जीनिया एवं वाशिंगटन मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र में पिछले 40 वर्षों से वैदिक हवन सभा परिवारों में जाकर हवन करा रही है तथा हाल ही में आर्यसमाज डीसी की स्थापना भी हो चुकी है। दक्षिण भारतीय समाज के लिए विशेष आस्था का केन्द्र, मैरीलैंड स्थित श्री शिवा विष्णु टेम्पल में नित्य हवन किया जाता है। हिंदू टेम्पल, मंगल मंदिर तथा भक्त आंजनेय मंदिर में नैमित्तिक यज्ञ होते हैं। इसी प्रकार वर्जीनिया स्थित दुर्गा मंदिर, राजधानी मंदिर, स्वामीनारायण मंदिर, लोटस टेम्पल आदि अनेक धार्मिक स्थलों में भी नैमित्तिक यज्ञ होते रहते हैं।

सुख चाहो तो यज्ञ करो

16 संस्कारों व पाखंडमुक्त कर्मकाण्ड के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती रचित संस्कारविधि एक अद्वितीय ग्रंथ है तथा उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में यज्ञ के वैज्ञानिक पक्ष को भी उद्घाटित किया है। उन्होंने कहा कि यज्ञ मनुष्य के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण उपाय है। करोड़ों वर्ष तक यज्ञ का प्रचलित रहना भी उसके महत्व को सिद्ध करता है। यज्ञ के मूल स्वरूप को सुरक्षित रखने के लिए जिन्होंने अपनी शिखा व सूत्र देने के बदले अपने सिर कटा दिए, जिन्होंने विभिन्न षड्यंत्रों के उपरांत भी यज्ञ की परम्परा को मरने नहीं दिया, उन सभी पुण्यात्मा-द्विजों को मैं नमन करता हूँ। भारतीय संस्कृति से ईर्ष्या व विरोध रखने वालों को संतुष्ट करने के लिए या इसका विशेष लाभ लेने के लिए जब-जब यज्ञ पर अनुसंधान होंगे तब-तब हम अनेक रोचक तथ्यों से भी परिचित होते जाएँगे। पर्यावरण व स्वयं की रक्षा के लिए विश्व, यज्ञ की ओर पुन: लौटेगा तथा शतपथ ब्राह्मण व जैमिनीय ब्राह्मण द्वारा कहा- “स्वर्ग कामो यजेत्” अर्थात सुख (स्वर्ग) चाहें तो यज्ञ करें का वचन सिद्ध होगा।

(लेखक वाशिंगटन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)

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