कोरोना के बाद बाढ़ से तबाह चीन
– प्रमोद भार्गव
कोरोना महामारी का जनक माने जाने वाला चीन अब भारी बारिश की तबाही झेल रहा है। 1961 के बाद चीन में बारिश की विभीषिका इतने बड़े पैमाने पर नहीं देखी गई है। दक्षिण और मध्य चीन में करीब 28 हजार घर नष्ट हो चुके हैं। 15 लाख लोग बेघर हुए हैं और 150 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। इस प्राकृतिक कहर से हजारों करोड़ का नुकसान हो चुका है। वुहान की जिस प्रयोगशाला से कोरोना विषाणु का उत्सर्जन हुआ था, वह पूरा प्रांत पानी में डूबा हुआ है। यही हाल हुबोई राज्य का है। इस साल जून माह से ही चीन में भीषण बारिश हो रही है। इस बरसात के चलते चीन की सबसे लंबी यांग्त्से नदी का पानी किनारे लांघकर बाढ़ में बदल गया है। कोरोना के चलते चीन में अर्थव्यवस्था का संकट पहले ही गहराया हुआ है, इस बाढ़ ने इसे और गहरा दिया है। इस तबाही से आठ अरब डाॅलर के नुकसान का अंदाजा लगाया जा रहा है। चीन के ज्यादातर मांस बाजार और पर्यटन स्थलों में पानी भरा हुआ है। चीन की छोटी-बड़ी 437 नदियां बाढ़ग्रस्त हैं। इनमें 33 नदियों का जलस्तर खतरे के निशान के ऊपर है।
मध्य, पूर्वी औैर दक्षिणी चीन इस समय कुदरती मार का भयावह संकट झेल रहा है। यहां मूसलाधार बारिश और भूस्खलन का सिलसिला जून में शुरू हुआ था, जो पूरे जुलाई में जारी है। अभी भी इसकी गति पर अंकुश नहीं लगा है। यांग्त्से नदी न केवल चीन की बल्कि एशिया की सबसे लंबी नदी है। इस नदी के अलावा पीली, झुजियांग और ताइहु नदियों के पानी ने भी बाढ़ का रूप ले लिया है। जिग्यांषु, गुडंषु और हुबोई प्रांतों समेत अन्य 6 प्रांतों में शहर और गांव, मैदान और नदियां एक ऐसे दरिया में बदल गए हैं कि इनमें फासला करना मुश्किल हो रहा है। हर दिन बारिश की तस्वीर एक नया नजारा लेकर उभर रही है। घर टापू बन गए हैं। घरों से निकलना दूभर हो रहा है। पहाड़ ऐसे गिर रहे हैं, जैसे रेत से भरे डंपर से रेत उड़ेली जा रही हो। हजारों सड़कों और पुलों का नामोनिशान खत्म हो गया है। जिन बड़े बांधों को औद्योगिक विकास का जरिया चीन ने माना हुआ था, उनके टूटने का खतरा बढ़ गया है। 2016 में चीन के ऐसे ही 3.5 किलोमीटर लंबे तटबंध को बाढ़ के चलते बारूद लगाकर उड़ाना पड़ा था। समय रहते इस बांध को नहीं तोड़ा जाता तो इसके जल दबाव से टूटने का खतरा बढ़ गया था। लिहाजा, लाखों लोगों के मारे जाने की आशंका पैदा हो गई थी। आसमान से बरस रही इस आफत की बारिश ने चीन को इस अंदाज में पानी-पानी किया हुआ है कि औद्योगिक प्रोद्यौगिक दृष्टि से संपन्न और आर्थिक व सामरिक नजरिए से भी समृद्ध देश चीन इस आपदा में डूबा-डूबा लग रहा है। सड़कों पर नावें चल रही हैं, लाखों कारें सड़कों पर डूबती-इतराती दिख रही हैं। धरती दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है।
तकनीकी विकास में चीन ने झंडे गाड़कर वैश्विक पहचान बनाई हुई है। दुनिया के बाजार उसी के 50 फीसदी से भी ज्यादा उत्पादों से भरे हुए हैं। ऐसे शक्तिशाली साम्यवादी चीन में सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए लोग कह रहे हैं कि यहां के मौसम विभाग ने न तो सटीक जानकारी दी और न ही सुरक्षा के उपाय पर्याप्त रहे। इस कारण जहां 150 से भी ज्यादा लोगों को सैलाब ने लील लिया, वहीं हजारों लोग लापता हैं। साफ है, मौसम की जानकारी देने वाले उपकरण मौसम की उपद्रवी हलचलों को पकड़ने में बौने साबित हुए हैं, वहीं आधुनिक विकास का संकट बड़ी मानव आबादी को झेलना पड़ रहा है। गोया, दुनिया में जो भयावह कुदरती आपदाएं एक के बाद आ रही हैं, उसकी पृष्ठभूमि मानव निर्मित वह विकास है, जो प्रकृति की अवहेलना करते हुए उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहा है।
चीन में इतनी भयंकर बारिश पिछले 60 साल में कभी नहीं हुई। 100 साल में जरूर यह दूसरी बार हुई है। पिछली सदी के तीसरे दशक में जब यह बारिश हुई थी, तब चीन का वर्तमान जैसा विकास नहीं हुआ था। अधिकतर चीन की आबादी भारत की तरह गांवों में रहती थी और कृषि व पशु आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रचलन में थी। इसलिए न जनहानि हुई थी और न ही बड़ी आर्थिक हानि हुई। किंतु अब जो कुदरत ने संकट पैदा किया है, उस परिप्रेक्ष्य में चीन को संरचनागत सुधारों को पटरी पर लाने में वक्त तो लगेगा ही, पुनर्निमाण में बड़ी मात्रा में धन भी खर्च होगा। क्योंकि बाढ़ से हुई तबाही की चपेट में 900 से भी ज्यादा, छोटे-बड़े शहर हैं। गोया, चीन की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगने जा रहा है? दरअसल आधुनिक विकास की होड़ में जो भूलें भारत ने की हैं, चीन भी उनमें पीछे नहीं रहा।
इस कथित विकास प्रक्रिया में शहर की भौगोलिक संरचना, पारिस्थितिकी और बढ़ती जनसंख्या का ध्यान नहीं रखा गया। सामाजिक न्याय और आर्थिक विषमता वाले चीन ने भी भारत की तरह महज एक छोटे वर्ग के हितों का ख्याल रखा। इस दौड़ में जलभराव एवं जल निकासी के माध्यमों की चिंता नहीं की गई। नतीजतन गगनचुंबी विकास कुदरती आपदा के सामने बौना होता चला गया। विकास की इसी विडंबना का परिणाम है कि चीन में दुनिया भर की वस्तु व खाद्य सामग्री उत्पादक बहुराष्ट्रीय कंपनियां वजूद में होने के बावजूद, न संकटग्रस्त लोगों के पास पीने को पानी है और न ही पेट भर भोजन। फिलहाल तो जलभराव से ज्यादातर कंपनियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। बिजली बंद होने के कारण अधिकतर उत्पादन इकाइयां बंद हैं। इन हालातों के संदर्भ में ऐसा भी लगने लगा है कि कालांतर में एक निश्चित समय में अधिकतम बारिश होने का यही सिलसिला बना रहा तो कहीं लोग धीरे-धीरे बाढ़ की चपेट में आ रहे महानगरों से पलायन न शुरू कर दें? हालांकि कोरोना महामारी ने ऐसे हलातों को पहले ही पैदा कर दिया है। यदि यही हलात बने रहते हैं तो औद्योगिकरण और शहरीकरण बड़ी मात्रा में प्रभावित होगा।
ये त्रासदियां प्रत्यक्ष रूप में प्राकृतिक आपदाएं जरूर दिखाई देती हैं लेकिन वास्तविक रूप में ये मानव उत्सर्जित हैं। इनकी संख्या पूरी दुनिया में दूरदृष्टि से काम नहीं लेने के कारण बढ़ रही हैं। लिहाजा न केवल औद्योगिक-प्रोद्यौगिक विकास को नियंत्रित करने की जरूरत है बल्कि औसत के आसपास होने वाली बारिश से ही मानव आपदा में बदल जाने वाले ऐसे निर्माणों को नियंत्रित करने की भी जरूरत है, जो आपदाओं को आमंत्रित करते हैं। दुनिया में एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तार पाने वाली ये आपदाएं अनायास नहीं है? इनकी पृष्ठभूमि में औद्योगिकीकरण की प्रमुख वजह है। इसी वजह से कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में लगातार वृद्धि हो रही है, जो तापमान में वृद्धि करके जलवायु परिवर्तन का सबब बन रही है। ऊर्जा उत्पादन के कारण दुनिया में प्रतिवर्ष कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 11.4 अरब टन के करीब हो रहा है। चीन के ऊर्जा संयंत्र भी प्रतिवर्ष 3.1 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं। चीन के वायुमंडल में काॅर्बन के इसी अधिकतम उत्सर्जन की प्रक्रिया ने तापमान में बेतहाशा वृद्धि कर दी है। इस वृद्धि ने जलवायु में बदलाव के साथ वर्षा का चक्र गड़बड़ा दिया है। वर्षा के इस परिवर्तित हो रहे चक्र से चीन को वर्तमान में आई इस प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)