चीन पर कांग्रेस का अंतर्द्वंद
– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
चीन मसले पर कांग्रेस के शीर्ष बयान फजीहत कराने वाले हैं और संकट के समय देश की एकजुटता से कांग्रेस अलग दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं उसने स्वयं अपने अतीत को उभरने का मौका दिया है। उससे प्रश्न केवल 1962 की पराजय का नहीं है बल्कि सीमा क्षेत्र की रक्षा तैयारियों में घोर लापरवाही के लिए भी वह जवाबदेह है। जबकि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने चीन सीमा पर आधारभूत ढांचा निर्माण शुरू किया। इससे परेशान चीन ने डोकलाम में सीमा का अतिक्रमण किया था लेकिन मोदी सरकार द्वारा कठोर रवैया अपनाने के बाद उसे पीछे हटना पड़ा था।
प्रजातंत्र में मतभेद स्वभाविक है। सरकार की निंदा का विपक्ष को पूरा अधिकार है लेकिन संकटकाल की मर्यादा भी होती है। कांग्रेस के बयानों में चीन के लिए भी कोई कठोर शब्द थे? ऐसा लग रहा था कि उसके तरकश में सारे तीर नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह के लिए थे। ऐसा भी नहीं कि पहली बार ऐसा हुआ, पुलवामा हमले के समय भी तो ऐसे ही बयान दिखाई दिए थे, अनुच्छेद 370 को हटाने की चर्चा में विरोधी नेताओं और पाकिस्तान के बयानों में क्या उल्लेखनीय अंतर था। यही बात नागरिकता संसोधन कानून के समय देखी गई। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी ने पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था। लेकिन वह केवल अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से हटे हैं, उनका शिकंजा पहले जैसा ही है। वह बोलते हैं, ऊपर से नीचे तक पार्टी उसी स्वर में बोलने लगती है, उनका बचाव करती है। इसका पार्टी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है इसकी चिंता किसी को नहीं है।
पिछले दिनों चीन के साथ भारत की झड़प हुई। हमारे जांबाज सैनिकों ने बलिदान देकर चीन के मंसूबों को विफल कर दिया। पूरा देश उनके प्रति कृतज्ञ था। राहुल गांधी बोले नरेंद्र मोदी ने सरेंडर कर दिया। चीन ने आगे बढ़ने का प्रयास किया होगा। हमारे सैनिकों ने रोक दिया। इसी में झड़प हुई। चीन ने एक हफ्ते बाद माना कि उसका अधिकारी व कई सैनिक मारे गए हैं। राहुल को बताना चाहिए कि सरेंडर हुआ कहाँ है। क्या वह 1962 के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री का भी ऐसे नामकरण कर सकते हैं। क्या उस समय के लिए वह प्रश्न कर सकते हैं कि चीन की हिम्मत कैसे हुई कि उसने हमारे सैनिकों को मार दिया, चीन की हिम्मत कैसे हुई कि वह हमारी सीमा में घुस आया, सैनिकों को निहत्थे सीमा पर क्यों भेजा गया। यह सभी प्रश्न कांग्रेस और बाद में उसके समर्थन वाली सरकार पर लागू होते हैं। 1962 में अक्साई चीन, अगले वर्ष काराकोरम पास, 2008 में तिया पंगनक और चाबजी घाटी, इसके अगले वर्ष डूम चेली और 2012 में डेमजोक में चीन ने कब्जा किया था। इसके लिए राहुल किसको सरेंडर का नाम देंगे।
केंद्रीय मंत्री पूर्व जनरल वीके सिंह ने दावा किया भारत ने भी चीन के चालीस से ज्यादा सैनिकों को मार गिराया है। बीस भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। बताया जा रहा है कि चीन ने कुछ भारतीय सैनिक पकड़े थे, बाद में उन्हें लौटाया था। इसी तरह हमने भी चीन के सैनिक पकड़े, जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया। उन्होंने कहा कि गलवान घाटी में जो इलाका भारत के पास था, वह अब भी हमारे पास ही है। झगड़ा पेट्रोल प्वाइंट चौदह को लेकर है, ये अभी भी भारत के नियंत्रण में है। गलवान घाटी का एक हिस्सा चीन के पास और एक हिस्सा अब भी हमारे पास है। जबकि कांग्रेस के लिये यह राष्ट्रीय सुरक्षा का नहीं बल्कि राजनीति का समय था। उनके निशाने पर चीन नहीं नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह थे। वह देश के प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री को ललकार रहे थे। कह रहे थे कहाँ छिप गए, गुमराह करने के बजाय उन्हें सामने आकर जवाब देना चाहिए। उनके प्रवक्ता भी बोले कि सरकार ने सुध ली होती तो चीन कभी यह दुस्साहस नही कर सकता था, अब तो ट्विटर से बाहर आ चुप्पी तोड़िए, प्रधानमंत्री जी कब कुछ कहेंगे आदि। राष्ट्रीय संकट के समय यह कांग्रेस की शब्दावली थी। दूसरी तरफ चीन है, जहां सरकार का विरोध संभव नहीं।
हमारे यहां प्रजातंत्र है। सरकार का विरोध होना चाहिए लेकिन शत्रु मुल्क से तनाव की स्थिति हो तब उसके खिलाफ राष्ट्रीय सहमति की बुलंद अभिव्यक्ति होनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस के सवाल केवल नरेंद्र मोदी व राजनाथ तक सीमित नहीं थे, इनका सेना पर अपरोक्ष रूप में प्रभाव पड़ सकता था। इस स्थिति में ऐसे बयानों से बचने की आवश्यकता थी। उस समय सभी को चीन के खिलाफ ही आवाज बुलंद करनी चाहिए थी। सरकार ने प्रजातांत्रिक मान्यताओं के कारण ही इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। बेहतर यह होता कि इसके माध्यम से हमारी एकजुटता की गूंज चीन तक सुनाई देती। लेकिन कांग्रेस के कारण ऐसा नहीं हो सका।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार बताए कि इस सारी स्थिति से निपटने के लिए भारत की सोच, नीति और हल क्या है। सोनिया गांधी को अपरोक्ष रूप से सरकार संबन्धी कार्यों की बहुत जानकारी है। उनको यह पता होना चाहिए कि कोई सरकार संघर्ष, तनाव की ऐसी स्थिति में इस प्रकार के बेतुके प्रश्न का जवाब नहीं दे सकती क्योंकि इससे दुश्मन देश लाभ उठा सकता है। ऐसी रणनीति गोपनीय होती है। सैनिक कमांडरों से विचार-विमर्श के बाद ही शायद उसका निर्धारण होता है। इसकी जानकारी सोनिया गांधी को मांगनी ही नहीं चाहिए थी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)