चाबहार रेल परियोजनाः मसला हल करने की जरूरत
– अरविंद कुमार शर्मा
एक अंग्रेजी समाचार पत्र ने 14 जुलाई को बताया कि ईरान ने चाबहार रेल परियोजना से भारत को अलग कर खुद ही इसे पूरा करने का फैसला किया है। करीब चार साल पहले दोनों देशों के बीच चाबहार से अफगानिस्तान के जाहेदान तक रेल लाइन बिछाने का समझौता हुआ था। ईरान ने इस परियोजना पर काम शुरू भी कर दिया है। करीब 628 किलोमीटर लंबे इस रेलमार्ग के निर्माण का शुभारम्भ ईरान के यातायात और शहरी विकास मंत्री मोहम्मद इस्लामी ने किया।
समाचार की इन पंक्तियों पर नजर डालने से यह मात्र एक सूचना की तरह दिखता है। चाबहार रेल परियोजना को ईरान और अफगानिस्तान के साथ मिलकर एक अंतरराष्ट्रीय यातायात मार्ग बनाने की भारत की कोशिश के रूप में देखें तो इसके महत्व का पता चल जाता है। अभी भारत को अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान होकर जाना पड़ता है। परन्तु तनाव के बीच इस मार्ग का प्रयोग मुश्किल ही है। चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत ने पहले ही मुख्य भूमिका निभाई थी। अब इस रेल परियोजना के जरिए भारत ने एक और बाइपास लेने की कोशिश की। असल में इससे भारत की पहुंच मध्य एशिया, रूस और यहां तक कि यूरोप तक आसान हो सकती है। चाबहार बंदरगाह को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के जवाब के तौर पर देखा जा रहा था। ग्वादर पोर्ट चाबहार से सिर्फ 70 किमी दूर है। यही कारण है कि पाकिस्तान भी भारत-ईरान-अफगानिस्तान की इस योजना को तिरछी नजर से देखता है।
यह देखना जरूरी है कि चाबहार से अफगानिस्तान के जाहेदान तक इस रेल परियोजना से भारत को क्यों अलग कर दिया गया है। भारत की ओर से इंडियन रेलवेज कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (इरकॉन) को इस रेल परियोजना पर काम करना था। समझौता भारत-अफगानिस्तान और ईरान के बीच हुआ था। इसके लिए इरकॉन ने सभी सेवाएं, सुपरस्ट्रक्टर वर्क और आर्थिक सहयोग (करीब 1.6 अरब डॉलर) देने का वादा किया था। इरकॉन के इंजीनियर मौके पर भी गये और ईरानी रेलवे ने तैयारी की। इरकॉन और ईरानी रेलवे कंपनी में इस तरह के समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इसके विपरीत भारत ने अपने हिस्से की अदायगी समय से नहीं की। यह निर्माण और आर्थिक सहयोग, दोनों ही स्तर पर है।
फिर वही सवाल कि इस देरी मात्र से भारत को अलग कर दिया गया? मसला इतना ही नहीं लगता। इसे इस तरह देखा जाना चाहिए कि भारत को इससे ऐसे समय पर अलग किया गया है, जब उसका चीन के साथ तनाव चल रहा है। फिर उधर, चीन और ईरान के बीच चार सौ अरब डॉलर के रणनीतिक निवेश को लेकर समझौता हुआ है। पहली नजर में साफ हो चला है कि ईरान ने चाबहार रेल लाइन परियोजना से भारत को चीन के दबाव में अलग किया। सहयोग में देरी तो एक बहाना है। वैसे हलके स्वर में यह भी बात आ रही है कि भारत पर अमरीका का भी दबाव था कि वह चीन के करीब जा रहे ईरान से कोई सहयोग न करे। इसे सीधे नहीं देखकर इस रूप में समझना होगा कि अमरीका के दबाव में भारतीय कंपनी इरकॉन को निर्माण स्थल पर जरूरी उपकरण आपूर्तिकर्ता और सहभागी मिलने में दिक्कतें आ रही थीं।
मई 2016 में एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय यातायात मार्ग निर्मित करने के फैसले से पाकिस्तान परेशान था। चाबहार बंदरगाह पर तेजी से काम चलने के साथ इस रेलमार्ग के विकास से भारत को बड़ा रणनीतिक फायदा होता। अब दिक्कत और बड़ी हो सकती है। पिछले दिनों ईरान ने चीनी कंपनी द्वारा चलाए जा रहे पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट और चाबहार के बीच एक समझौते का प्रस्ताव दिया था। आशंका तो यहां तक जताई गई है कि ईरान चाबहार बंदरगाह चीन को लीज पर दे सकता है। ऐसे में रेल लाइन ही नहीं, चाबहार बंदरगाह भी चीन के हाथों जा सकता है। वैसे वरिष्ठ ईरानी अधिकारी इस तरह की खबरों से इनकार करते हैं।
बहरहाल, ईरान यदि इस प्रोजेक्ट के लिए चीन के करीब गया तो चीन का सीधे मध्य पूर्व में प्रवेश आसान हो जायेगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत ने चाहे जिस कारण इस प्रोजेक्ट से हाथ खींचा हो, अब शीघ्र ही उसे आगे की रणनीति पर काम करना होगा। इस दिशा में भारत अब अमरीका, इसराइल और सऊदी अरब जैसे देशों के साथ मिलकर इसका प्रतिवाद कर सकता है। विशेषज्ञ ईरान में सत्ता परिवर्तन की संभावना देख रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो इससे चीन के प्रति ईरान के रुख में परिवर्तन आ सकता है। भारत- ईरान के बीच ऐतिहासिक रिश्तों और दोस्ती का ख्याल कर भी बहुत कुछ हो सकता है। जो भी हो, इस मसले को हल करना होगा। बेहतर तो यही होगा कि भारतीय कंपनी इरकॉन फिर से इस परियोजना में शामिल हो सके।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)