खूनी राजनीति का पर्याय बनता पश्चिम बंगाल
– प्रमोद भार्गव
पश्चिम बंगाल में भाजपा विधायक देवेंद्रनाथ राय का शव एक दुकान के बरामदे में पंखे से लटका मिला। राय उत्तर दिनाजपुर जिले की हेमताबाद विधानसभा से विधायक थे। पुलिस इसे जेब से मिले, आत्महत्या पूर्व लिखे पत्र के चलते खुदकुशी मान रही है, जबकि उनके परिजन और भाजपा कार्यकर्ता इसे जघन्य हत्या बता रहे हैं। हत्या की आशंका इस वजह से भी है कि उन्हें स्थानीय लोग रात 1 बजे बुलाकर अपने साथ बाइक से ले गए थे। सुबह उनकी बंद दुकान के बरामदे में लाश मिली। 59 साल के देवेंद्रनाथ पिछले साल ही माकपा से भाजपा में शामिल हुए थे। बंगाल में वामदल अर्से से खूनी हिंसा के पर्याय बने हुए हैं। शायद इसीलिए बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने भी विधायक की मौत पर सवाल उठाते हुए इसे प्रतिशोध की राजनीति बताया। भाजपा इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग कर रही है।
बंगाल की राजनीति में विरोधी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएं होती रही हैं। वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही थीं। दरअसल वामपंथी विचारधारा विरोधी विचार को जड़-मूल से खत्म करने में विश्वास रखती हैं। ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब यह उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस वामदलों के नए संस्करण में बदलती चली गई। यही कारण रहा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व भी बंगाल को खूब रक्त बहा। हालांकि बंगाल में विधानसभा चुनाव 2021 में होंगे लेकिन विधायक की हत्या से लग रहा है कि चुनाव की पृष्ठभूमि हिंसक राजनीतिक टकराव से तैयार की जाने लगी है। जिससे भाजपा में वामदलों से लेकर कांग्रेस और तृणमूल के नेताओं के जाने का जो सिलसिला चल पड़ा है, वह थम जाए। इसीलिए प्रत्येक चार-छह दिन में एक बड़ी राजनैतिक हत्या बंगाल में देखने का सिलसिला बना हुआ है।
हिंसा की इस राजनीतिक संस्कृति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादात के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। लंबे समय तक चले इस आंदोलन को क्रूरता के साथ कुचला गया। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए। इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में मार्क्सवादियों का शासन रहा। इस दौरान सियासी हिंसा का दौर नियमित चलता रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनेताओं की हत्याएं हुईं।
सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें टाटा को दीं तो इस जमीन पर अपने हक के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता बनर्जी आ खड़ी हुईं। मामता कांग्रेस की पाठशाला में ही पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस दौरान उनपर कई जानलेवा हमले हुए लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001 से लेकर 2010 तक 256 लोग सियासी हिंसा में मारे गए। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए और ममता ने वाममोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी। इस साल भी 38 लोग मारे गए। ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी राजनीतिक लोगों की हत्याओं का दौर बरकरार रहा। इस दौर में 58 लोग मौत के घाट उतारे गए। बीते दिनों ही तृणमूल और वामपंथी संगठन के बीच हुई झड़प में दोनों पक्षों के एक-एक नेता मारे गए हैं। इस घटना के कुछ दिन पहले ही अलग-अलग घटनाओं में पांच राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई थी।
बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई भाजपा ने ममता के वजूद को संकट में डाल दिया है। बंगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90 फीसदी तृणमूल के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोटबैंक मानते हुए ममता ने मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में
अपनी ताकत झोंक दी है। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाने का संदेश भी छिपा था। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रया हिंदुओं में स्वस्फूर्त ध्रुवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए भाजपा को वजूद के लिए खतरा मानकर देख रहे हैं, नतीजतन बंगाल के चुनाव में हिंसा का उबाल आया हुआ है। इस कारण बंगाल में जो हिंदी भाषी समाज है, वह भी भाजपा की तरफ झुका दिखाई दे रहा है। हैरानी इस बात पर भी है कि जिस ममता ने ‘मां माटी और मानुष’ एवं ‘परिवर्तन’ का नारा देकर वामपंथियों के कुशासन और अराजकता को चुनौती दी थी, वही ममता इसी ढंग की भाजपा के लोकतांत्रिक प्रतिरोध से बौखला गई हैं। उनके बौखलाने का एक कारण यह भी है कि 2011-2016 में उनके सत्ता परिवर्तन के नारे के साथ जो वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता आ खड़े हुए थे, वे भवष्यि की राजनीतिक दिशा भांपकर भाजपा का रुख कर रहे हैं।
2011 के विधानसभा चुनाव में जब बंगाल में हिंसा चरम पर थी, ममता ने अपने कार्यकताओं को विवेक न खोने की सलाह देते हुए नारा दिया था-‘बदला नहीं, बदलाव चाहिए’। लेकिन बदलाव के ऐसे ही कथन अब ममता को असामाजिक व अराजक लग रहे हैं। ममता को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में आत्ममंथन की जरूरत है। जबकि ऐसी हिंसा देश के अन्य किसी भी राज्य में दिखाई नहीं दे रही है। अतएव ममता को लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को ठेंगा दिखाने से बचना चाहिए। लेकिन बंगाल में इस खूनी सिलसिले का थमना आसान नहीं लग रहा है क्योंकि राजनीति, पुलिस और प्रशासन के स्तर पर दूर-दूर तक सुधार की कोई पहल नहीं की जा रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)