Home Sliderखबरेविशेष खबर

बिरसा की शहादत को भुलाए बैठी राजव्यवस्था

9 जून बिरसा मुंडा पुण्यतिथि पर विशेष

– डॉ. अजय खेमरिया

सामंती राजव्यवस्था के विरुद्ध स्वराज की बलिदानी उद्घोषणा करने वाली ऐसी वनवासी आवाज, जिसे गोरी हुकूमत अपने अथाह सैन्य बल से कभी झुका न सकी। जिन महान उद्देश्यों को लेकर इस हुतात्मा ने प्राणोत्सर्ग किया, वनवासी समाज में राष्ट्रीय चेतना की स्थापना की, क्या उस चेतना और बलिदान के जरिये दिखाए गए मार्ग पर हमारी अपनी राजव्यवस्था वंचितों के लिए चलने का नैतिक साहस दिखा पाई है? बिरसा मुंडा के बलिदान दिवस की रस्मी कवायद के बीच ध्यान रखना होगा कि 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा की शहादत होती है और 1908 में छोटानागपुर टेनक्सी एक्ट लागू कर अंग्रेजी हुकूमत ने उन बुनियादी मुद्दों के राजकीय निराकरण की पहल की, जिनको लेकर बिरसा ने ब्रिटिश महारानी तक को परेशान कर दिया था। लेकिन आजादी के बाद क्या हमारी हुकूमतों ने ऐसी तत्परता वनवासियों के मुद्दों पर दिखाई है? पाँचवीं, छठवीं अनुसूची के प्रावधानों पर 70 साल में कितना अमल हुआ, क्या इस सवाल का सार्वजनिक जवाब हुकूमतों को जारी नहीं करना चाहिये? बिरसा की शहादत के आठ साल बाद जब गोरी सरकार कानून बना सकती है तो 56 साल क्यों लगे आजाद भारत में वनाधिकार कानून के अस्तित्व में आने में? इस कानून के अमल में देश की सभी सरकारों और न्यायपालिका ने जो ढिठाई और बेशर्मी का आचरण किया है उसने साबित कर दिया है कि आज भी हमारी राज और समाज व्यवस्था वनवासियों के मामले में दोयम मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकी है।

2011 की जनसंख्या कहती है कि 104281034 वनवासी भारत में हैं। नीति आयोग के आंकड़े खुद कहते हैं कि करीब 60 फीसदी वनवासी शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। जिस साहूकारी, जमींदारी और फारेस्ट एक्ट के विरुद्ध बिरसा मुंडा ने “उलगुलान” महाविद्रोह का नेतृत्व किया था वे तीनों बुनियादी मुद्दे आज भी वनवासियों के सामने खड़े हैं। अंग्रेजी राज में वनवासियों की जमीन गैर वनवासी के खरीदने पर रोक का कानून बना लेकिन आज मप्र, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, यूपी में लागू अलग-अलग भू-राजस्व संहितायें कलेक्टरों को यह अधिकार देती है कि वे अपने विवेक से ऐसी अनुमतियां जारी कर सकते हैं। नतीजतन जिन भूमिहीनों को विनोबा भावे के भूदान यज्ञ में पट्टे जारी किए गए अथवा जिन्हें सरकारों ने पट्टे दिए वे अधिकांश दबंगों के पास कलेक्टरों की सांठगांठ से पहुँच गईं। देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां वनवासी आबादी पांचवीं अनुसूची के दायरे में आनी चाहिए लेकिन संविधान में प्रावधान के बावजूद इसका दायरा मप्र, गुजरात, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल, ओड़िसा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ तक सीमित है।

संविधान अपेक्षा करता है कि सरकार हर दस वर्ष में अनुसूचित क्षेत्र एवं अनुसूचित जनजाति आयोग (एसएएसटी) का गठन करे लेकिन अभीतक केवल दो ही आयोग बनाये गए और उनकी सिफारिश कहाँ हैं? ये कभी किसी सियासी विमर्श का हिस्सा नही बन सकी है। भारत में कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आतंकवाद, अल्पसंख्यक, सामाजिक न्याय, भ्रष्टाचार जैसे तमाम विषयों पर राष्ट्रीय, क्षेत्रीय नीतियां बनती रही है लेकिन वनवासी नीति क्यों नही बनाई गई? इसे वोटबैंक के नजरिये से भी समझना चाहिए क्योंकि वनवासी करीब 20 राज्यों में भौगोलिक रूप से बिखरे है और उनमें पिछड़ेपन के साथ विविधता बहुत है। झारखंड को छोड़कर वनवासियों की एकीकृत वोट अपील पिछड़ों, दलित, अल्पसंख्यक जैसी नहीं है।

बिरसा की जन्मभूमि झारखंड के गठन की विधिवत घोषणा करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस नए राज्य को बिरसा को समर्पित करने की बात कही थी। लेकिन 20 साल के झारखंड में 15 साल वनवासी सीएम रहने के बावजूद न जल, जंगल, जमीन के मसले निराकृत हुए न ही सरकारों की ऐसी प्रतिबद्धता नजर आई जो देशभर में एक नजीर के रूप में स्थापित होती। रांची और इसके आसपास के जिलों के हजारों वनवासियों के साथ बिरसा नारा लगाते थे-

“तुन्दू जाना ओरो अबूझा राज एते जाना”
(ब्रिटिश महारानी का राज ख़त्म हो हमारा राज स्थापित हो)

प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास “जंगल के दावेदार” में जो प्रमाणिक वर्णन बिरसा मुंडा और उनकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का किया है, वह आज के इस पिछड़े वनवासी समाज की तत्कालीन चेतना के उच्चतम स्तर को भी स्वयंसिद्ध करता है। बिरसा न केवल महान राष्ट्रभक्त योद्धा थे बल्कि वे ईसाई साम्राज्यवाद के भी सख्त विरोधी थे। बचपन में जर्मन मिशनरी स्कूल ने उन्हें बिरसा डेविड नाम देकर मतांतरित किया लेकिन वे जल्द ही वैष्णव मत में लौट आये। उन्होंने महज 25 साल जीवन गुजारा लेकिन अपने विभूतिकल्प व्यक्तित्व के चलते वे वनांचल में भगवान के रूप में आज पूजे जा रहे हैं। यह एक तथ्य है कि बिरसा को भारतीय लोकजीवन में पाठ्यक्रम में कभी यथोचित स्थान नहीं दिया गया है। आतताई मुगलों की सदाशयता पढ़ते हमारे विद्यार्थी बिरसा को भगवान बनाने वाली प्रमाणिक घटनाओं से वंचित क्या सिर्फ वनवासी होने की वजह से है? इन सवालों का जवाब भी आज ईमानदारी से खोजने की आवश्यकता है।

सीएए, कश्मीर, पाकिस्तान, चीन जैसे मामलों पर दिन-रात प्रलाप करने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उसके विषय विशेषज्ञ कभी वनवासियों के मुद्दों पर बहस करते नहीं देखे जाते हैं। दिल्ली और देशभर में तमाम जगह जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर धरने-प्रदर्शन होते हैं लेकिन शाहीन बाग, जामिया जैसा कवरेज किसी को इसलिए नहीं मिलता क्योंकि ये सतही चुनावी फायदे का विषय नहीं है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने 12 लाख के वनवासियों को उनके घरों से बेदखल करने का आदेश दिया जो वनाधिकार कानून में सुरसा की तरह बनी सरकारी प्रक्रिया में खुद को वन भूमि पर काबिज नहीं बता पाए। हालांकि कोर्ट ने बाद में इसपर स्थगन दे दिया लेकिन राष्ट्रीय विमर्श में यह मुद्दा जगह नहीं बना पाया।

केंद्र और राज्यों के स्तर पर इस कानून के क्रियान्वयन की ईमानदारी का नमूना यह है कि 42.2 लाख वनाधिकार पट्टे आवेदन में से 19.4 लाख आवेदन विभिन्न राज्यों में निरस्त कर दिये गए हैं। पांचवीं सूची में शामिल प्रत्येक राज्य में राज्यपाल की अध्यक्षता में एक निगरानी समिति है जिसकी बैठक कागजों में कर ली जाती है। वनवासी कल्याण के महकमे केंद्र और राज्यों में अलग-अलग हैं लेकिन इनके मामले पंचायत, वन, वित्त, राजस्व, गृह विभागों के बीच बुरी तरह उलझे रहते हैं। जाहिर है वनवासी विषय पर भारत में आज भी समेकित नीति और प्रतिबद्धता का इंतजार कर रही है बिरसा की शहादत।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Tags

Related Articles

Back to top button
Close