अमेरिका में नस्लीय आग
– प्रमोद भार्गव
दुनिया जानती है कि डोनाल्ड ट्रंप प्रवासी मुक्त अमेरिका के मुद्दे पर चुनाव जीते थे। उनके राष्ट्रपति बनने के बाद से अवसरों की भूमि माने जाने वाले अमेरिका में नस्लीय-भेद और हिंसा में तेजी जरूर आई है, लेकिन यह रंगभेद रहा हमेशा ही है। अमेरिका में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के दावों के बीच यदि किसी व्यक्ति को मामूली अपराध में केवल इसलिए मार दिया जाए कि वह अश्वेत है, साफ है कि मानवीयता व समता के दावे कितने खोखले हैं। 25 मई को अमेरिका के मिनेपोलिस में एक श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन ने अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को जमीन पर पटककर उसकी गर्दन तबतक अपने फौलादी घुटने से दबाए रखी, जबतक कि उसकी मौत नहीं हो गई। इस घटना के पांच दिनों के दौरान प्रदर्शनकारियों द्वारा की जा रही हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ से हालात इतने बेकाबू हो गए है कि ट्रंप को बंकर में छिपना पड़ा और वाशिंगटन डीसी समेत देश के 140 शहरों में कर्फ्यू लगाना पड़ा। वर्जीनिया में आपातकाल के साथ ही कैलिफोर्निया में सभी सरकारी इमारतों को बंद रखने के आदेश दिए गए हैं। बावजूद ट्रंप ने ‘अमेरिकी प्रथम’ जैसी नस्लीय पैरोकारी करते हुए हालातों को और बिगाड़ने का काम किया है। जबकि अमेरिका का हॉलीवुड और अन्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी संस्थाएं अश्वेत समुदाय के समर्थन में खड़ी होकर बयान दे रही हैं कि ‘हम नस्लवाद के खिलाफ हैं और समावेशी विकास का समर्थन करते हैं। लिहाजा समग्र अश्वेत समुदाय के साथ खड़े हैं।’
हालांकि अमेरिका में नस्लीय हिंसा कोई नहीं बात नहीं है, वहां भारतीयों समेत अन्य एशियाई मूल के प्रवासियों के साथ हत्या और दोयम दर्जे के व्यवहार की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं। किंतु ये प्रदर्शन जितने व्यापक और हिंसक रूप में सामने आए हैं, इससे अमेरिका के बहुलतावादी समाज के ताने-बाने को अक्षुण्ण बनाए रखने की चुनौती तो पेश आएगी ही, यह आशंका भी उठ रही है कि कहीं इन हिंसक प्रदर्शनों में चरमपंथी और वामपंथी संगठनों का हाथ तो नहीं है? क्योंकि एक साथ 40 शहरों में उत्पाद मचना बिना सांगठनिक इशारे के संभव नहीं है।
उन्माद को उकसाने का काम डोनाल्ड ट्रंप ने गैरजिम्मेदाराना बयानों से इस हद तक कर दिया कि समूचे अमेरिका में धार्मिक, नस्लीय और जातीय विभाजन की एक रेखा खिंच गई है। हालांकि अमेरिका में अश्वेतों और एशियाई लोगों के खिलाफ एक किस्म का दुराग्रह हमेशा रहा है। नतीजतन नस्लीय हमले भी होते रहे हैं। ये हमले बराक ओबामा के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से ही गैर अमेरिकियों पर जारी हैं। ओबामा जब अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए थे, तब यह बात उजागर हुई थी कि अमेरिका में नस्लीयता बढ़ रही है। क्योंकि 39 फीसदी गैर अमेरिकियों के वोट ओबामा को मिले थे। इनमें अफ्रीकी और एशियाई मुल्कों के लोग थे। मूल अमेरिकियों के केवल 20 फीसदी वोट ही ओबामा को मिले थे। यह इस बात की तस्दीक थी कि अमेरिका में नस्लीयता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है और प्रशासन उसे नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। बावजूद ओबामा ने कुटिल चतुराई बरतते हुए 10 साल राष्ट्रपति रहने के दौरान यह कभी नहीं कहा कि अमेरिकी समाज में नस्लभेद हैं अथवा समाप्त हो गया है। गोया, अमेरिका में अश्वेतों के मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले नेता मार्टिन लूथर किंग की पांच दशक पहले हुई जघन्य हत्या के बाद सड़कों पर जैसा आक्रोश अमेरिका में फूटा था, वैसा ही इसबार दिखाई दे रहा है।
अमेरिका में नस्लीय हिंसा के शिकार चार साल पहले दो भारतीय युवा इंजीनियर हुए थे। इनमें से हैदराबाद के श्रीनिवास कुचिवोतला की मौके पर ही मौत हो गई थी, दूसरा अलोक मदसानी घायल हुआ था। हमलावर सेवानिवृत्त अमेरिकी नौसैनिक एडम पुरिनटोन था। गोली दागते हुए उसने नस्लीय टिप्पणी करते हुए कहा था- ‘निकल जाओ मेरे देश से आतंकी।’ हमलावर ने इन भारतीयों को अरबी नागरिक मानकर गोली चलाई थी। यह हिंसक घटना नस्लीयता पर बहस के बाद सामने आई थी। इस घटना का सुखद एवं सहिष्णु पहलू यह रहा था कि वहां मौजूद अमेरिकी नागरिक इयान ग्रिलोट ने अपनी जान की परवाह किए बिना हमलावर को पकड़ने की कोशिश की थी, लेकिन एडम ने उसे भी गोली मारकर जख्मी कर दिया था। घायल इयान ने बेहद संवेदनशील एवं मानवीय बयान देते हुए कहा था- ‘हमलावर कहां से था, किस नस्ल से था, मुझे इस बात से कुछ लेना-देना नहीं था। हम सभी इंसान हैं और इंसानियत के नाते मैंने हमलावर को पकड़ने की कोशिश की थी।’ श्रीनिवास की पत्नी सुनैना दुमला ने ट्रंप प्रशासन से एक प्रेसवार्ता आयोजित कर सवाल पूछा था- ‘वे अल्पसंख्यकों के विरुद्ध शुरू हुई इस नफरत को रोक पाएंगे? क्योंकि अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूर्वाग्रह की खबरों ने उन्हें डरा दिया है।’ मानवीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी इस घटना ने यह उम्मीद जगाई थी कि बहुसंख्यक अमेरिकी समाज फिलहाल पूर्वाग्रह से मुक्त होने के साथ सांप्रदायिक सद्भाव और मानवीय मूल्यों से लबरेज है। मूल अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या का भी विरोध कर रहे हैं।
इन सकारात्मक और सहिष्णु हालातों के बावजूद अमेरिका में नस्लीय हमले जारी हैं। 15 अगस्त 2015 को रंगभेदी मानसिकता के चलते विस्कोशिन गुरुद्वारे पर हुए हमले में सात सिख मारे गए थे। बाद में हमलावर वेड माइकल पेज ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। श्वेत नस्लवादी पेज फौज में नौकरी कर चुका था। इसके बाद न्यू जर्सी में 24 दिसंबर 2014 को गुजराती व्यापारी अश्वनी पटेल और फरवरी 15 में अमित पटेल की हत्याएं हुईं। 6 फरवरी 2015 को सुरेश भाई पटेल पर पुलिसकर्मियों ने ही बर्बर हमला किया था। इस हमले में वे स्थाई विकलांगता के शिकार हो गए। बाद में अदालत ने हमलावर पुलिसकर्मी एरिक पार्कर को बरी कर दिया। सुनंदो सेन को एक अमेरिकी महिला ने चलती भूमिगत रेल से सिर्फ इसलिए धक्का दे दिया था, क्योंकि वह रंगभेदी मानसिकता के चलते गैर अमेरिकियों से नफरत करने लगी थी। ऐरिका मेंडेज नाम की इस महिला ने अदालत में बेझिझक कबूल भी किया कि वह हिंदुओं, सिख और मुसलमानों से नफरत करती है, लिहाजा उसने सेन की हत्या करके कोई गलत काम नहीं किया है।
दरअसल, अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के लोगों पर हमले तेज हुए हैं। दाड़ी और पगड़ी वालों को लोग नस्लीय भेद की दृष्टि से देखने लगे हैं। इसके बाद आग में घी डालने का काम ट्रंप की नस्लभेद से जुड़ी उपराष्ट्रीयताओं ने कर दिया। नस्लीय मानसिकता रखने वाले मूल अमेरिकी, ट्रंप की टिप्पणियों के बहकावे में लगातार आ रहे हैं। इनमें ज्यादातर सेना और पुलिस से जुड़े लोग हैं।
ओबामा जब दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तब गैर अमेरिकियों में यह उम्मीद जगी थी कि वह अपने इतिहास की श्वेत-अश्वेत के बीच जो चौड़ी खाई है, उसे पाट चुके हैं। दरअसल अमेरिका में रंगभेद, जातीय भेद एवं वैमनस्यता का सिलसिला नया नहीं है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इन जड़ों की मजबूती के लिये इन्हें जिस रक्त से सींचा गया था वह भी अश्वेतों का था। हाल ही में अमेरिकी देशों में कोलम्बस के मूल्यांकन को लेकर दो दृष्टिकोण सामने आये हैं। एक उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व अस्तित्व उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या कोलम्बस के प्रति धारणा उन लोगाों की है जो दावा करते हैं कि अमेरिका का वजूद ही हमलोगों ने खड़ा किया है। इनका दावा है कि कोलम्बस अमेरिका में इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलम्बस के आने तक अमेरिका में इन लोगों की आबादी 20 करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर 10 करोड़ के आसपास रह गई है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का संहार लगातार जारी है। अवचेतन में मौजूद इस हिंसक प्रवृत्ति से अमेरिका मुक्त तो नहीं हो पाया, बल्कि अब ट्रंप के आने के बाद इस प्रवृत्ति में निरंतर इजाफा हो रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)