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फिर खालिस्तान का बेसुरा राग

– अमरीक

पंथक सियासत इन दिनों नए तूफान के हवाले है। बीते छह जून को अमृतसर स्थित श्री स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार की 36वीं बरसी मनाई गई। हर बार की तरह इस बार भी श्री अकाल तख्त साहिब पर विशेष अरदास के बाद जत्थेदार का संबोधन हुआ। श्री अकाल तख्त साहिब सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था है और इसके जत्थेदार का कथन एक बड़े तबके के लिए खास मायने रखता है। आम संगत के साथ-साथ क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी के अंतिम दिन उनपर खास तवज्जो देता है।

जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने इसबार खुलकर खालिस्तान की हिमायत की। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के मुखिया भाई गोबिंद सिंह लोंगोवाल भी उनके समीप थे। उन्होंने तत्काल जत्थेदार का अनुमोदन किया। दोनों ने इससे पहले कभी खालिस्तान की अलगाववादी अवधारणा का इस मानिंद खुला समर्थन नहीं किया था। दोनों को कमोबेश उदारवादी माना जाता था। लेकिन एकाएक उनके बदले रुख ने सबको सकते में ला दिया है। खासतौर से उन लोगों को, जो मानते हैं कि श्री स्वर्ण मंदिर साहिब सर्व सांझा पावन स्थल है और तमाम धर्मों, जातियों तथा पंथों से ऊपर है। उसका निर्माण ही अमन और सद्भाव के लिए किया गया था। जून-84 में हुए जिस ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी पर इसबार जत्थेदार की ओर से खालिस्तान की खुली हिमायत की गई, वह तत्कालीन भारत सरकार द्वारा की गई सैन्य कारगुजारी थी। उसकी नौबत लाने वालों में हथियारबंद खालिस्तानी भी थे।

खालिस्तान शब्द 1947 से पहले वजूद में आया था। मास्टर तारा सिंह की अगुवाई में कतिपय सिखों ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान के समानांतर अलग सिख राष्ट्र का एजेंडा रखा था। बाद में वे इस एजेंडे से पीछे हट गए और बहुसंख्य आम सिखों ने बाखुशी भारत में रहना मंजूर किया। अस्सी के दशक में एक अगंभीर राजनेता, सूबे के पूर्व वित्त मंत्री जगजीत सिंह चौहान ने खालिस्तान का जिन्न फिर बोतल से बाहर निकाला। खुद को खालिस्तान का स्वयंभू राष्ट्रपति बताते हुए सरकार की घोषणा भी कर दी। यह निहायत हास्यास्पद कवायद थी।

कांग्रेस की राजनीतिक विसंगतियों के चलते चली सिख आतंकवाद की लहर में खालिस्तान आधार-तत्वों में से एक था। जबकि कभी भी इस तथाकथित अलग देश की कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आई। ऐसा इसलिए भी है कि खालिस्तान किसी भी सूरत में संभव ही नहीं। आम सिख खालिस्तान नहीं चाहते। यह 1945, 1947 से लेकर अबतक कई बार साफ हो चुका है। पिछले कुछ समय से सुदूर देशों से कुछ चरमपंथी सिख संगठन ‘रेफरेंडम–2020’ के तहत नए सिरे से खालिस्तान की सोच को जिंदा करने की कवायद कर रहे हैं लेकिन उन्हें विदेशों और पंजाब में अपेक्षित जन-समर्थन नहीं मिल रहा।

चरमपंथियों का कहना है कि सिख पंजाब में दोयम दर्जे के नागरिक हैं। यह निहायत झूठ है। एक सिख दो बार प्रधानमंत्री रहे, राष्ट्रपति और केंद्रीय गृहमंत्री रहे। 1947 के बाद हर केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें खास जगह मिलती है। गूगल के जरिए बखूबी जाना जा सकता है कि अबतक कितने राज्यों के राज्यपाल, पुलिस महानिदेशक और अन्य अर्धसैनिक बलों के प्रमुख सिख रहे हैं। फ़ौज की कमान भी कई बार सिख समुदाय से वाबस्ता जरनैल के हाथों में रही है। योजना आयोग के चेयरमैन भी सिख रह चुके हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री सदैव सिख बनते हैं। क्या यह दोयम दर्जे के नागरिकों के लिए संभव है? रत्ती भर भी नहीं! ऐसे में खालिस्तान की मांग या बात करने का क्या औचित्य है? ऐसी मांगों और बातों ने एक दशक से भी ज्यादा अर्से तक पंजाब को लहूलुहान रखा। हजारों बेगुनाह पंजाबियों की जान गई। गहरे जख्म देने वाला ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ। उसके बाद एक प्रधानमंत्री की जान गई और भयावह सिख विरोधी हिंसा हुई। हिंसक और अतार्किक सांप्रदायिक अलगाववाद सिवा बर्बादी के देता ही क्या है।

होना यह चाहिए था कि सिख पंथ की दो दिग्गज शख्सियतें (श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार और एसजीपीसी प्रधान) अतीत के जख्मों की दुहाई देकर नई रोशनी दिखातीं। लेकिन छह जून को उन्होंने अंधेरा बांटने वाले लोगों का साथ दिया। कौम की यह कैसी रहनुमाई है? यह सवाल श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह और भाई गोबिंद लोंगोवाल के साथ-साथ उनके सियासी आकाओं से भी है!

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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