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कांग्रेसः आंतरिक संकट से बेपरवाह हाईकमान

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

कांग्रेस का आंतरिक संकट जारी है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान की बारी है। वस्तुतः यह कांग्रेस हाईकमान के लिए आत्मचिंतन का अवसर है किन्तु लगता नहीं कि ऐसा हो सकेगा। कांग्रेस अब राहुल गांधी के बयानों से संचालित हो रही है। इसमें आत्मचिंतन की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं है। अन्यथा इसके अवसर अनेक बार आये थे।

कांग्रेस के निष्कर्ष में इसके लिए भाजपा दोषी है, उसने कर्नाटक, मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकारों को अस्थिर किया, विधायकों की खरीद-फरोख्त की गई। यही प्रयोग राजस्थान में किया जा रहा है। इस प्रकार जब कांग्रेस ने अपनी सरकारें गिरने का पूरा ठीकरा भाजपा पर फोड़ दिया, तब उसके लिए आत्मचिंतन के लिए कुछ बचा ही नहीं। मतलब कांग्रेस की वर्तमान स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। सबकुछ पहले की तरह चलता रहेगा। पहले की तरह कांग्रेस हाईकमान की प्रदेश संगठनों से संवादहीनता बनी रहेगी, पहले की तरह राहुल गांधी बयान देते रहेंगे, पहले की ही तरह पार्टी जबरदस्ती उनके बयानों का बचाव करती रहेगी। इससे होने वाले प्रभाव को देखने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता।

कर्नाटक में कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ मंत्री के नेतृत्व में विधायकों ने बगावत की थी, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट जैसे दिग्गज नेताओं ने बगावत की कमान संभाली। क्या इसे खरीद-फरोख्त कहा जा सकता है। ज्योतिरादित्य और सचिन के लिए ऐसा सोचना भी गलत होगा। क्या यह सच नहीं कि पार्टी और प्रदेश की सरकार में इनकी उपेक्षा की जा रही थी। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य और राजस्थान में सचिन पायलट अपनी उपेक्षा से आहत थे। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ के निशाने पर ज्योतिरादित्य थे। वह उन्हें कमजोर करने में लगे थे। जबकि सिंधिया मध्य प्रदेश में उनसे अधिक लोकप्रिय रहे हैं। मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी वही थे। जबकि कमलनाथ का प्रभाव छिंदवाड़ा के इर्द-गिर्द सीमित रहा है। कांग्रेस ने उनको मुख्यमंत्री बना दिया। इसके बाद से ही सिंधिया और कमलनाथ के बीच तनाव था। लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया। यही नजारा राजस्थान में था। यहां सचिन पायलट उपेक्षा झेल रहे थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें अलग-थलग रखने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे में इतने समय तक सचिन पायलट का धैर्य रखना ही महत्वपूर्ण था। मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान की समस्या के प्रति भी कांग्रेस हाईकमान लापरवाह बना रहा। इसी का परिणाम सामने आ रहा है।

कांग्रेस हाईकमान को केवल इन तात्कालिक प्रसंगों पर ही विचार नहीं करना होगा। बल्कि कुछ पहले की घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा। प्रश्न केवल सँख्या बल का नहीं है। चुनावी राजनीति में यह स्वभाविक है। लेकिन मुख्य प्रश्न वैचारिक बल का है। भाजपा के भी कभी लोकसभा में मात्र दो सदस्य थे। प्रदेशों में भी उसकी सत्ता नहीं थी। इसके बाद भी उसने वैचारिक बल को कम नहीं होने दिया। इस धरातल पर वर्तमान कांग्रेस आज कहाँ है। क्या अभी चीन के साथ हुए तनाव में उसके विचार भारतीय जनभावना के अनुरूप थे। जब पार्टी लाइन से ऊपर उठकर उसे सरकार का समर्थन करना चाहिए था। विपक्ष की अनेक क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा कर रही थी। लेकिन राहुल गांधी चीन को नहीं अपनी सरकार को ललकार रहे थे। क्या भारत की जमीन पर कब्जा करने वाला उनका बयान चीन का मंसूबा नहीं बढ़ा रहा था। पिछले लोकसभा चुनाव के बहुत पहले राहुल गांधी ने राफेल और चौकीदार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने का प्रयास किया था। वह प्रधानमंत्री के लिए किस प्रकार के नारे लगवा रहे थे। इसका क्या परिणाम हुआ, यह सबके सामने है। कांग्रेस को ऐसे मसलों पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता थी लेकिन ऐसा हो नहीं सका। कोरोना काल में भी कांग्रेस कोई वैचारिक सन्देश नहीं दे सकी। इन सबके कारण कांग्रेस में निराशा का माहौल कायम हुआ। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान प्रकरण इसी के प्रमाण हैं।

राजस्थान की कांग्रेस सरकार के साथ ही संगठन में भी विवाद चल रहा था लेकिन हाईकमान को इससे कोई मतलब नहीं था। अशोक गहलोत और सचिन पायलट में जो खींचतान चल रही थी, उसका असर प्रदेश संगठन पर भी पड़ रहा था। अशोक गहलोत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से सचिन पालयट को हटाने के लिए कटिबद्ध थे। वह अपने वफादार को इस कुर्सी पर बैठाना चाहते थे। सचिन पायलट अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार नहीं थे। बताया जाता है कि अध्यक्ष पद पर बने रहने की शर्त पर ही वे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने को तैयार हुए थे। इसमें संदेह नहीं कि सचिन पायलट ने कांग्रेस की परेशानी बढ़ा दी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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