दोहरे संकट में हाथी
– प्रमोद भार्गव
केरल के पलक्कड़ जिले में एक गर्भवती हथिनी की हत्या, अनानास में विस्फोटक खिलाकर कर दी। इस क्रूरतम हत्या ने जहां मानवता के पतन का संकेत दिया है, वहीं संवेदनशील मनुष्य की संवेदना को झकझोर दिया है। भोजन की तलाश में भटककर यह हथिनी मनुष्य के आबाद इलाके में घुस आई थी। जिसका दुष्परिणाम उसे प्राण देकर झेलना पड़ा। प्राण भी उसके बड़े कष्ट में निकले। पेट में पहुंचने के बाद पटाखों से भरा अनानास फट गया तो वह इस अकल्पनीय घनघोर पीड़ा से राहत पाने के लिए नदी में उतर गई और वहीं तीन दिन तक खड़ी रहकर बमुश्किल उसके प्राण निकले। इन तीन दिनों में हथिनी के उपचार की बात तो छोड़िए, वन अमला उसे नदी में से भी नहीं निकल पाया। हाथियों के साथ मनुष्य की निर्ममता मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के उन क्षेत्रों में भी दिखाई देती है, जहां झारखंड, कर्नाटक और बिहार से आहार की तलाश में हाथी आ जाते हैं। इन्हें बिजली का करंट लगाकर भगाने का प्रयास किया जाता है, ऐसे में कई हाथी मर भी जाते हैं। ऐसे ही 40 हाथियों का एक झुंड बीते डेढ़ साल से बांधवगढ़ के राष्ट्रीय उद्यान में डेरा डाले हुए है। ये हाथी जब-तब उद्यान की सीमा लांघकर रहवासी क्षेत्रों में आकर फसल उजाड़ते ही हैं, गांवों में संपत्ति को भी नुकसान पहुंचा देते हैं। कभी-कभी ये इंसानों को भी रौंद डालते हैं। इस कारण लंबे समय से इस इलाके के ग्रामीण गुस्से में हैं।
भारत सरकार ने हाथी को दुर्लभ प्राणी व राष्ट्रीय धरोहर मानते हुए इसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची.1 में सूचीबद्ध करके कानूनी सुरक्षा दी हुई है। लेकिन व्यवहार में हाथी का शिकार करने वालों से लेकर आम लोग भी इस तरह के कानूनों की परवाह नहीं करते। कर्नाटक के जंगलों में कुख्यात तस्कर वीरप्पन ने इसके दांतों की तस्करी के लिए सैंकड़ों हाथियों को मारा। चीन हाथी दांत का सबसे बड़ा खरीददार है। हालांकि हमारी सनातन संस्कृति में हाथी सह-जीवन का हिस्सा है। इसीलिए हाथी पाले और पूजे जाते हैं। असम के जंगलों में हाथी लकड़ी ढुलाई का काम भी करते हैं। सर्कस के खिलाड़ी और सड़कों पर तमाशा दिखाने वाले मदारी इन्हें सिखाकर अजूबे दिखाने का काम भी करते रहे हैं। साधु-संत और सेनाओं ने भी हाथियों का खूब उपयोग किया है। कई उद्यानों में पर्यटकों को हाथी की पीठ पर बिठाकर बाघ के दर्शन कराए जाते हैं। वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद अब ये केवल प्राणी उद्यानों और चिड़ियाघरों में ही सिमट गए हैं। बावजूद इन उद्यानों में इसकी हड्डियों और दांतों के लिए खूब शिकार हो रहा है। जिन जंगलों के बीच में रेल पटरियां बिछी हैं, वहां ये रेलों की चपेट में आकर बड़ी संख्या में प्राण गंवाते रहते हैं।
मनुष्य के जंगली व्यवहार के विपरीत हाथियों का भी मनुष्य के प्रति क्रूर आचरण देखने में आता रहा है। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश और कर्नाटक के जंगली हाथी अक्सर जंगल से भटककर ग्रामीण इलाकों में उत्पात मचाते रहते हैं। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में हाथियों ने इतना भयानक उत्पात मचाया था कि अकेले छत्तीसगढ़ में 22 निर्दोष आदिवासियों की जान ली थी। कर्नाटक और झारखंड में इन हाथियों द्वारा मारे गए लोगों की संख्या भी जोड़ लें तो ये हाथी दस-बारह साल के भीतर करीब सवा सौ लोगों की जान ले चुके हैं। सिंहभूम इलाके के पोरहाट वन से भटके हाथी रायगढ़ और सरगुजा जिलों के ग्रामीण अंचलों में अक्सर कहर बरपाते रहते हैं। इनके आतंक क्षेत्र का विस्तार रांची व गुमला जिलों तक और मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ से कर्नाटक हैं। एक समय अपने मूल निवास से भटककर ढाई सौ हाथी नए आवास और आहार की तलाश में लगातार छह साल तक ग्रामों में कहर ढहाते रहे थे। इन हाथियों में से कुछ ओड़ीसा और पश्चिम बंगाल में घुस गए थे और 18 हाथी मध्य-प्रदेश की सीमा में आ गए थे। अंबिकापुर के जंगलों में प्रवेश कर भटके हुए हाथियों के झुंड कुछ साल पहले शहडोल जिले के ग्रामीण इलाकों में आतंक और दहशत का पर्याय बन गए थे। इन हाथियों में एक नर, तीन मादा और दो बच्चे थे। वन अधिकारी बताते हैं कि शहडोल, रायगढ़, सरगुजा जिलों के दूरदराज के गांवों में रहने वाले आदिवासियों के घरों में उतारी जाने वाली शराब को पीने की तड़प में ये हाथी गंध के सहारे आदिवासियों की झोंपड़ियों को तोड़ते हुए घुसते चले जाते हैं और जो भी सामने आता है उसे सूंड से पकड़कर पटका और पेट पर भारी-भरकम पैर रख उसकी जीवन लीला खत्म कर देते हैं। इस तरह से इन मदांध हाथियों द्वारा हत्या का सिलसिला हर साल अनेक गांवों में देखने में आता रहता है।
पालतू हाथी भी कई बार गुस्से में आ जाते हैं। ये गुस्से में क्यों आते हैं, इसे समझने के लिए इनके आचार, व्यवहार और प्रजनन संबंधी क्रियाओं व भावनाओं को समझना जरूरी है। हाथी मद की अवस्था में आने के बाद ही मदांध होकर अपना आपा खोता है। हाथियों की इस मनस्थिति के सिलसिले में प्रसिद्ध वन्य प्राणी विशेषज्ञ रमेश बेदी ने लिखा है कि जब हाथी प्रजनन की अवस्था में आता है तो वह समागम के लिए मादा को ढूंढता है। ऐसी अवस्था में पालतू नर हाथियों को लोगों के बीच नहीं ले जाना चाहिए। मद में आने से पूर्व हाथी संकेत भी देते हैं। हाथियों की आंखों से तेल जैसे तरल पदार्थ का रिसाव होने लगता है और उनके पैर पेशाब से गीले रहने लगते हैं। ऐसी स्थिति में महावतों को चाहिए कि वे हाथियों को भीड़ वाले इलाके से दूरबंदी अवस्था में ही रखें क्योंकि अन्य मादा प्राणियों की तरह रजस्वला स्त्रियों से एस्ट्रोजन हार्मोन्स की महक उठती है और हाथी ऐसे में बेकाबू होकर उन्मादित हो उठते हैं। त्रिचूर, मैसूर और वाराणसी में ऐसे हालातों के चलते अनेक घटनाएं घट चुकी हैं। ये प्राणी मनोविज्ञान की ऐसी ही मनस्थितियों से उपजी घटनाएं हैं। वैसे हाथियों के ऐसे व्यवहार को लेकर काफी नासमझी की स्थिति है मगर समझदारी इसी में है कि धन के लालच में मद में आए हाथी को किसी उत्सव या समारोह में न ले जाया जाए।
उत्पाती हाथियों को पकड़ने के लिए बीस साल पहले मध्य प्रदेश में ऑपरेशन चलाया गया था। हालांकि पूर्ण वयस्क हो चुके हाथियों को पालतू बनाना एक चुनौती व जोखिम भरा काम है। हाथियों को बाल्यावस्था में ही आसानी से पालतू बनाया जा सकता है। हाथी देखने में भले ही सीधा और भोला लगे पर आदमी की जान के लिए जो सबसे ज्यादा खतरनाक प्राणी हैं, उनमें एक हाथी है और दूसरा है भालू। हाथी उत्तेजित हो जाए तो उसे संभालना मुश्किल होता है।
फिलहाल इस तरह हाथी को पालतू बनाए जाने के उपाय बंद पड़े हैं। लिहाजा केरल में हथिनी की हत्या के बाद इन हाथियों की सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़ा हो गया है। हाथियों के मामले में केरल के जिस निलांबुर क्षेत्र में इस हथिनी की हत्या हुई है, वहां कई मर्तबा इंसानों और वन्य जीवों के बीच संघर्ष के मामले सामने आते रहे हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ और मध्य-प्रदेश में भी लगभग हर साल यही संघर्ष देखने में आता है। लेकिन जिस वन अमले पर अरबों रुपए का बजट सालभर में खर्च होता है, उसके पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)