‘‘चित्र, चलचित्र और इतिहास लेखन’’ को माध्यम बनाकर भारतीयता को हीन हेय और हास्यास्पद साबित करने का प्रयास मानसिक गुलामी से वशीभूत होकर करने वालों में उन्माद की स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद इसलिए पैदा हुई है क्योंकि बौद्धिक जगत में उनके एकाधिकार को निर्णायक चुनौती मिल गई है। उनमें अवसाद इसलिए छा गया है क्योंकि इन कुत्सित अभिव्यक्तियों के लिए सत्ता का समर्थन और प्रोत्साहन का मार्ग अवरूद्ध हो गया है। ‘असहिष्णुता’ को मुद्दा बनाकर जिन घटनाओं का उदाहरण पेश किया गया। उससे हजार गुना घृणित मानवाधिकार उलंघन या उत्पीड़न की उपेक्षा करने को मुखरित मुद्दा बनाने का कारण ‘‘सम्मान त्यागने’’ के दुराभिमान की जैसी जेल खुली उसने उसके अभियान की हल निकाल दिया।
दूसरा अभियान चला वर्तमान सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा को ‘‘पोषण’’ प्रदान करने वालों को महत्वपूर्ण संस्थानों में बैठाने के आरोप के साथ। क्यों? क्योंकि वर्षों से भारतीयता को हेय साबित करने वालों को वरचस्व समाप्त होने लगा। क्या साम्यवादी, छद्धम सेक्युलवादी मौकापरस्त लोगों से आच्छादित ऐसे सरकारी अधिष्ठानों पर उन लोगों को सक्रिय करना गुनाह है जिससे वशीभूत होकर भारतीय जनसमुदाय ने 2014 में फैसला दिया है। भारतीय राष्ट्रीयत्व के बोधमुक्त माहौल को सघन करने के जिस प्रयास से आज विश्व में भारत की प्रतिष्ठावादी है और राष्ट्रीय सम्पदा सत्ता सम्भालने के कारण हमारी है की अवधरणा के अतिरेक से निकलकर इस्टीशिप की भावनायुक्त सत्ता के बदले स्वरूप को हजम करने में असमर्थ लोगों में उन्मादी पैठ की अभिव्यक्ति होना अस्वाभाविक नहीं है और क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी को एकपक्षीय बनाए रखने के सत्ताई दृष्टिकोण को प्रश्रय नहीं मि लरहा है, इसलिए अभारतीयता को भारतीयता से मिली चुनौती ने मुखरित होकर उनके हौसले पस्त कर दिए हैं। परम्परा और पौरूष से सम्पन्न राजस्थान की राजधानी जयपुर में पिछले दिनों दो घटनाएं घटित हुई। एक भारतीय साहित्य सम्मेलन में बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को हंगामा कर बोलने न देने की और दूसरी चलचित्र के जरिए लीला करने वाले संजय भंसाली द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मा पद्मावती के छायांकन पर अवरोध।
तसलीमा नसरीन दो दशक से अपने देश के हिंसावादी या आक्रोश से अपने देश के हिंसावादी या आक्रोश से बढ़ने के लिए भारत में रह रही हैं। एक हिन्दू बालिका के साथ हुए अमानवीय व्यवहार पर आधारित उपन्यास लिखने के ‘‘अपराध’’ का उन्हें जो दंड-अर्थात् हत्या-के जिस उन्माद ने उन्हें बांग्ला देश छोड़ने के लिए विवश किया उसकी धमक अभिव्यक्ति की आजादी वाले देश भारत में बनी हुई है। अभिव्यक्ति की आजादी का एक भी हिसाब तो उनके लिए मुखरित नहीं हुआ। कुछ ऐसी ही स्थिति इंगलैंड में बस गए भारतीय मूल के सलमान रशदी की हालत है जो उनके उपन्यास ‘‘सैंटानिक वर्सेस’’ की पटकथा पर उन्मादियों द्वारा हत्या की धमकी से है। रशदी को भारत ही दुनियाभर में इन तत्वों से बचने की जुगत जानी पड़ रही है। बहुत से लोग सलमान रशदीके सामाजिक विचारधारा से असहमत हो सकते हैं। जैसे अभारतीयता के पोषकों की भावना से असहमत होने की स्थिति है, लेकिन उनकी और तसलीमा नसरीन की हत्या का फरमान जारी करने वालों को मौनकर समर्थन देने वालों के अपराध को कभी असभ्य नहीं माना जा सकता, विशेषकर इसलिए जबकि वे सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी के कुत्सित प्रगटीकरण के भी समर्थक बने हुए हैं। हमें स्मरण होगा कि अब दिवंगत हो गए एक चित्रकार हुसैन ने भारतीय श्रद्धा और मानबिन्दुओं दुर्गा, सरस्वती, सीता का कैसा चित्रांकन किया था।
उसका विरोध इतना हुआ कि उनकी भारत लौटने की हिम्मत नहीं पड़ी। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ‘‘– समर्थकों’’ के समूह ने इस प्रकार के कुत्सित चित्रांकन का जैसा समर्थन किया था, कुछ वैसा ही वे भंसादी की ‘‘पद्मावती’’ का चरित्र चित्रण करने के प्रयास को रोकने में सफल राजस्थान की करणी सेना और वहां की सरकार के रवैये के बारे में अभिव्यक्ति कर रहे हैं। भारतीय मानबिन्दुओं को कुत्सित स्वरूप में उभारने के प्रयासों का समर्थक बनाकर खड़ा होने वाला अंग्रेजी माध्यम का मीडिया सदैव समभावयुक्त रहा है, कुत्सितकता का समर्थकन बनकर। उसके लिए एक बहाना अपनाया जाता है।
कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं है। लेकिन इसी मीडिया में यह समभाव न तो तसलीमा के संदर्भ में प्रगट होता है, न कश्मीरी पंडितों के संदर्भ में न कैराना के संदर्भ में और कलकत्ता से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर पूरी की पूरी बस्ती जला देने पर। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के शासनकाल में दुर्गा पूजा को जिस तरह प्रतिबन्धित कियाग या जिसका संज्ञान उच्च न्यायालय तक ने लिया, महत्व नहीं दिया गया। बंगाल के कुछ भागों में दुर्गा पूजा करने वालों को प्रताड़ित कर घर में छिपे रहने के लिए विवशकर दिया जाना भी उनके संज्ञान में नहीं आया। इन्तहा तो तब हो गई जब बंगाल की परम्परागत सरस्वती पूजा को भी रोक दिया गया और सरकार रोकने वालों की पक्षधर बनकर खड़ी हो गई।
संजय लीला भंसाली नाम के महात्मय से किसी प्रकार की लीला दिखाना चाहते हैं यह उनकी फिल्म रामलीला में सामने आ चुकी है। शायद राम और लीला नामधारी कलाकारों की कामुकता भरे अभिनय को सेंसरबोर्ड भी समझ पाने में असमर्थ रहा या फिर लीक पर चलने पर उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आया है। लेकिन क्या पद्मावती में खलनायक की भूमिका वाले नायक की इस अभिव्यक्ति को नजरंदाज किया जा सकता था, कि उसने यह भूमिका-स्वप्न में ही सही-पद्मावती के साथ अंतरंग ढ़ंग से फिलमाने की अपेक्षा से स्वीकार किया है। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण सार्वजनिक रूप से अंतरंग प्रसंग ने आग्रही हो सकते हैं लेकिन पदमावति का नाम धारण कर नहीं। पद्मावति भारतीय नारीत्व के आदर्श का प्रतीक है। उन्होंने सतीत्व को बचाने के लिए सोलह हजार नारियों के साथ जौहर किया था, उस नजरंदाज कर उनके सौंदर्य को वह भी कुत्सिक मानसिकता के-केन्द्रबिन्दु रखकर फिल्म का छायांकन-वह भी राजस्थान में किया गया-जहां का कण कण में उनके बलिदान की गाथा गाता है-समाज बर्दाश्त करें इसकी अपेक्षा वही कर सकते हैं, जिनकी मानसिकता लोलुपता की पूर्ति के लिए अस्मिता का सौदा करने भी हेय नहीं है।
एक अंग्रेजी समाचार पत्र तो मलिक मोहम्मद जायसी की रचना में पद्मावती के कतिपय चरित्र चित्रण से अधिक पद्मावती के अस्तित्व को मानना गैर ऐतिहासिक साबित करने के लिए न जाने कहां-कहां से प्रमाण खोजने और भंसाली की लीला के समर्थन में बड़े-बड़े लेख लिखवान के अभियान में ही जुट गया है। भारतीयत शीलवान है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम की शील के प्रतीक है लेकिन आसुरी प्रवृत्ति से प्रवृत्त रावण को उन्होंने भी दंडित किया है। भारतीय जनमानस राम का अनुगामी है लेकिन रावण को जलाने में उसे कोई संकोच नहीं है। रावण की मानसिकता वाले सत्ता सम्पन्नता और विलासिकता के आग्रही सोने की लंका बनाने के लिए सब प्रकार की लूट की मानसिकता वलां को इसे ‘शील’ का प्रवृत्ति का बहुत दिनों तक लाभ उठाया है, लेकिन सहनशीलता की भी एक सीमा होता है। कुत्सित अभिव्यक्ति प्रवृत्ति को बहुत दिन तक सहिष्णुता के नाम पर सहा गया है।
इस सहनशक्ति को भी खता समझकर यहां तक ‘इतिहास’ रचने का प्रयास किया गया है महमूद गजनी और मोहम्मद गोरी ने हिन्दुओं के बुलावे पर सोमनाथ जैसे मंदिर को तोड़ा और बार-बार पराजित होने के बाद भी हमलावर बने रहे। चित्र हो या चलचित्र हो या कोई और भी माध्यम उनके भारतीयता की मर्यादा को अब तक भीरूता मानकर मनमानी करने की राह छोड़ने पड़ेगी, क्योंकि सहनशीलता का भी एक सीमा होती है। भारतीय समाज को उस सीमा रेखा पर खड़ा कर दिया है, इस अभारतीयता ने। (हि.स)
राजनाथ सिंह ‘सूर्य’