बदली-बदली नज़र आ रहीं हैं मायावती ! , कांग्रेस से चुनावी गठबंधन संभव
लखनऊ (ईएमएस)। बसपा सुप्रीमो मायावती के तेवर बदले-बदले नज़र आ रहे हैं। यूपी में खुद आगे बढ़कर अखिलेश यादव और सपा के साथ आने की बात छोड़ भी दें, तो कभी भी चुनाव पूर्व गठबंधन की पक्षधर नहीं रही मायावती इस बार कर्नाटक और हरियाणा में चुनावों से पहले ही गठबंधन का ऐलान कर चुकी हैं। कांशीराम के वक़्त से ही बसपा राज्यों में उन पार्टियों से गठबंधन करने की पक्षधर थी, जो सरकार बनाने में समर्थ नजर आती थी। कांशीराम का मानना था कि बसपा के सत्ता के साथ रहने का सीधा फायदा एससी, एसटी समाज के लोगों को ही मिलेगा। कुछ जानकार इसे मायावती की नई रणनीति बता रहे हैं, तो कुछ सिर्फ राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बचाने की जद्दोजहद करार दे रहे हैं। बसपा ने इस बार आगे बढ़कर कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्युलर और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल से गठबंधन किया है।
कर्नाटक में बसपा 22 सीटों पर चुनाव भी लड़ रही और इनमें से सात सीटें ऐसी हैं, जिन पर दलित आबादी सबसे ज्यादा है, कर्नाटक में भी कुल जनसंख्या में से 18 प्रतिशत दलित आबादी है। उधर हरियाणा में भी आईएनएलडी के सीनियर नेता अभय चौटाला ने बीते दिनों बसपा के साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए गठबंधन का ऐलान कर दिया है। बता दें कि हरियाणा की आबादी में 21 फीसदी हिस्सा दलित जातियों का है। हरियाणा के आलावा मायावती की बातचीत मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में भी चल रही है और अगर कांग्रेस से उसकी बातचीत नहीं बनी तो वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन कर सकती है। मध्य प्रदेश चुनावों से पहले एक सर्वे में सामने आया है कि पिछले चुनाव में चार सीटें जीतने वाली बसपा इस बार अपना आंकड़ा 12 तक ले जा सकती है।
मायावती की बदली रणनीति का उदाहरण आरजेडी चीफ की ‘बीजेपी भागाओ, देश बचाओ’ रैली के दौरान भी देखने को मिला था। इस रैली के लिए लालू ने मायावती को भी न्योता भेजा था। लेकिन उन्होंने यह कहकर साफ़ इंकार कर दिया कि बसपा तब तक किसी पार्टी के साथ स्टेज शेयर नहीं करेगी, जब तक 2019 के लिए सीट शेयरिंग या गठबंधन का फ़ॉर्मूला फिक्स न हो जाए। यह सच है कि लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने के बाद से ही बसपा को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खत्म करने का नोटिस दिया जा रहा है। अगर इस बार जरूरत भर की सीटें नहीं मिलीं और दूसरे राज्यों में वोट प्रतिशत नहीं बढ़ा तो बसपा से राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता छिनना तय है। यही वजह है कि मायावती ने रणनीति बदली है और उत्तर प्रदेश के अलावा दूसरे राज्यों में भी लगातार गठबंधन पर जोर दे रही है। ज़रूरी वोट प्रतिशत हासिल करने के लिए ऐसी पार्टियों से भी हाथ मिलाया जा रहा है, जिनकी राज्यों में स्थिति तीसरे या चौथे नंबर पर है।
बता दें कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बनाए रखने की तीन प्रमुख शर्तें हैं। पहली यह कि तीन राज्यों में लोकसभा की कम से कम दो फीसदी सीटें मिल जाएं। दूसरी शर्त के मुताबिक लोकसभा या विधानसभा चुनाव में छह फीसदी वोट के साथ ही चार लोकसभा सीटों पर जीत जरूरी है। तीसरी शर्त है कि चार या उससे ज्यादा राज्यों में राज्यस्तरीय पार्टी की मान्यता मिल जाए। बसपा फिलहाल वोट प्रतिशत और लोकसभा सीटों के मामले में पिछड़ रही है। उसके लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन सुधारना जरुरी है। बसपा के लिए अभी तक सबसे अच्छा यह रहा है कि बीते दिनों निकाय चुनावों में अलीगढ़ और मेरठ से उसके मेयर चुनकर आए हैं। ऐसा पहली बार हुआ था कि बसपा ने निकाय चुनावों में उम्मीदवार पार्टी सिंबल पर उतारे थे। हालांकि इन्हीं चुनावों में बसपा के करीब 73 प्रतिशत उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। साल 2007 के बाद से दोनों विधानसभा चुनावों में बसपा को सीटों और वोट शेयर के मामले में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। 2009 के आम चुनावों के 6.17 प्रतिश्सत वोट शेयर और 21 सीटें जीतने वाली बसपा 2014 में 4.19 प्रतिशत वोट शेयर और जीरो सीट के साथ लोकसभा से गायब ही हो गई। गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में सपा का साथ देने के बावजूद राज्यसभा में भी बसपा को हार का सामना करना पड़ा।