पूर्वांचल में अशांति का पूर्वाभ्यास तो नहीं कर रहे आतंकी !
पूर्वांचल के अंतिम चरण के मतदान को लेकर जितने सजग नेता हैं और प्रशासन है। खुराफाती तत्व भी उससे कम सजग नहीं है। अराजक तत्वों और खासकर आतंकवादियों की योजना पूर्वांचल को निशाना बनाने की है। मध्यप्रदेश में रेल में हुआ विस्फोट तो इसकी बानगी भर है। इस बार छह चरणों के चुनाव बिना किसी रक्तपात के संपन्न हो गए। यह अराजक तत्वों को कदाचित रास नहीं आया होगा और उनकी योजना पूर्वांचल में कुछ बड़ा करने की हो सकती है। यह सच है कि छह चरणों के चुनाव में आतंकी किसी बड़े हादसे को अंजाम नहीं दे सके हैं। रेल पटरी उखाड़ने की छिटपुट घटनाओं को अपवाद माना जाए तो आतंकवादियों की दाल नहीं गलने पाई है, लेकिन अंतिम चरण के चुनाव में आतंकियों ने जिस तरह मध्य प्रदेश में भोपाल-उज्जैन पैसेंजर ट्रेन में विस्फोट कर नौ रेल यात्रियों को घायल किया है। उससे उनके घातक इरादों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
आतंकवादियों के तार उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और औद्योगिक शहर कानपुर से भी जुड़ रहे हैं। यूपी एटीएस को दोनों ही जगहों पर प्रभावी कार्रवाई करनी पड़ी है। यह कार्रवाई भी उसने मध्यप्रदेश पुलिस की सूचना के आधार पर की है। बताया जा रहा है कि लखनऊ में एक आतंकी पिछले कई महीने से किराए के मकान में रह रहा था लेकिन न तो उसके पड़ोसियों को पता चला और न ही दुबग्गा पुलिस चैकी को। यह अलग बात है कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने दुबग्गा पुलिस चैकी के प्रभारी को निलंबित कर दिया है लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।
विडंबना इस बात की है कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक बार-बार ठाकुरगंज थाना प्रभारी को अभयदान क्यों दे रही हैं। उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही। गेहूं के साथ घुन को पीसकर ही अनुशासनात्मक कार्रवाई की औपचारिकता क्यों पूरी की जा रही है? हाल ही में ठाकुरगंज थाना क्षेत्र में जौहरी बाप-बेटों को गोली मारकर करोड़ों के आभूषण लूट लिए गए और वह भी पुलिस की नाक के नीचे लेकिन पुलिस आज तक बदमाशों का सुराग तक नहीं लगा पाई। राज्य के पुलिस महानिदेशक बदमाशों का सुराग बताने वालों को पचास हजार का इनाम देने की घोषणा कर रहे हैं लेकिन जिस लखनऊ में उत्तर प्रदेश पुलिस की साख पर ही सवाल हो। जहां अपने बेटे की पैरवी करने वाले पिता को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया जाता है। पुलिस अपराधी का ही साथ देती है, उस लखनऊ में अपराधियों की पहचान बताने का दुस्साहस कौन पसंद करेगा?
महिला से सामूहिक दुष्कर्म के आरोपी मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति का पुलिस को पता ही नहीं चलता जबकि प्रजापति को उच्च श्रेणी की सुरक्षा व्यवस्था उत्तर पुलिस ने ही उपलब्ध करा रखी है। सुरक्षा गार्डों की जिम्मेदारी यही तो है कि वह संबंधित व्यक्ति की सुरक्षा करें। अगर उनकी सुरक्षा व्यवस्था में भी मंत्री प्रजापति रहस्यमय ढंग से गायब हो जाते हैं तो इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए। यह कि पुलिस एक मंत्री की भी सुरक्षा नहीं कर सकती। उस पर नजर नहीं रख सकती। ऐसे पुलिसकर्मियों को कायदे से एक क्षण भी अपनी वर्दी पहनने का हक नहीं है। क्या पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रजापति की सुरक्षा से जुड़े पुलिसकर्मियों को निलंबित किया और अगर नहीं तो क्यों? क्या इसके पीछे कोई राजनीतिक दबाव काम कर रहा है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इन आरोपों में दम है कि उत्तर प्रदेश के सभी थाने समाजवादी पार्टी के कार्यालय बन चुके हैं।
अगर प्रधानमंत्री की बात सही नहीं है तो किसी भी पुलिस के अधिकारी ने उनकी बात का खंडन क्यों नहीं किया? सवाल उठता है कि वे खंडन करें भी तो क्यों? जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही कह रहे हैं कि सभी पुलिस वाले समाजवादी हो चुके हैं। उन्हें अत्याधुनिक वाहन और कंट्रोल रूम की सुविधा समाजवादी सरकार ने ही दी है। पुलिस महानिदेशक जावीद अहमद को मुख्यमंत्री के इस बयान का प्रतिवाद करना चाहिए। उन्हें इस प्रदेश की जनता को यह बताना चाहिए था कि पुलिस उत्तर प्रदेश की है। वह किसी पार्टी विशेष की नहीं है। अगर वे इसका प्रतिवाद करते तो ज्यादा मुफीद होता और इससे उत्तर प्रदेश पुलिस का आत्म गौरव भी बढ़ता लेकिन जब उन्होंने प्रदेश के थानों में एक जाति विशेष के पदाधिकारी नियुक्त कर रखे हैं तो वे इसका प्रतिवाद करते भी तो किस मुख से। प्रदेश के आसपास के जिलों में तो अपराध हो ही रहे हैं।
राजधानी में भी अपराधों का ग्राफ बढ़ा-चढ़ा है। मुख्यमंत्री भी कई बार इस बात की तकीद कर चुके हैं कि अगर प्रदेश में अपराध कम न हुए। एक भी अपराध कारित हुआ तो शीर्ष पुलिस अधिकारी बख्शे नहीं जाएंगे। उस दिन से आज तक अपराध की गोमती में बहुत पानी बह चुका है लेकिन किसी भी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर गाज क्यों नहीं गिरी। इसका जवाब कदाचित मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास भी नहीं है। एटीएस ने इस बात का भी पता लगा लिया था कि कानपुर और अन्य जिलों में रेल हादसों को अंजाम देने और भारी जान-माल का नुकसान करने की साजिश पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने रची थी। इस सूचना के बाद क्या उत्तर प्रदेश पुलिस को सजग नहीं होना चाहिए था? क्या उसे उत्तर प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था को रामभरोसे छोड़ देना चाहिए था।
आतंकवादियों ने रेल में विस्फोट के लिए मध्य प्रदेश का ही चयन क्यों किया? हाल के दिनों में वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भाजपा के पक्ष में प्रचार कर गए हैं। यहां की कानून व्यवस्था पर उन्होंने जमकर अंगुली उठाई थी। क्या मध्यप्रदेश में रेल में विस्फोट कर आतंकियों ने उनकी सुरक्षा तैयारियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है और अगर इसमें रंचमात्र भी दम है तो आतंकवादियों की इस हरकत का मतलब किसे राजनीतिक लाभ पहुंचाना है। क्या इस घटना को पूर्वांचल के चुनाव से जोड़कर देखा जाना चाहिए। भोपाल, पिपरिया, उज्जैन, इंदौर और लखनऊ में ही आतंकी छिपे होंगे, यह कैसे कहा जा सकता है? मऊ में प्रधानमंत्री की सभा में आतंकियों द्वारा ग्रेनेड लांचर से हमले करने की आशंका भी इस राज्य की पुलिस जाहिर कर चुकी है। बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने की धमकी दे चुके हैं। उनका राजनीतिक बयान तो कमोवेश इसी ओर इशारा करता है। उन्होंने कहा था कि मोदी कहते हैं कि मुझे गंगा मैया ने बुलाया है। गंगा मैया अगर किसी को बुलाती हैं तो केवल अंतिम संस्कार के लिए। मोदी का भी काशी में राजनीतिक संस्कार होगा। अब इस अंतिम संस्कार और राजनीतिक संस्कार का आशय आसानी से समझा जा सकता है।
हाल ही में लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील सिंह के विमान में उड़ान भरते ही आग लग गई थी और उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर आरोप लगाया था कि उनकी योजना मेरी और राजपाल यादव की हत्या कराने की थी। यह बहुत बड़ा आरोप है जिसका जवाब देना न तो अखिलेश यादव ने मुनासिब समझा और न ही किसी बड़े पुलिस अधिकारी ने। सवाल इस बात का है कि उत्तर प्रदेश पुलिस तभी सक्रिय क्यों होती है जब कोई बड़ा वाकया हो जाता है। क्या इसे बड़ी आपराधिक घटनाओं का इंतजार नहीं कहा जा सकता? जब मुख्यमंत्री को अपने राज्य के अपराध भाजपा शासित राज्यों से कम नजर आते हैं तो प्रदेश में अपराध कम होगा भी तो किस तरह। सत्ता की साख होती है और लगता है कि अखिलेश सरकार में वह साख और धक दोनों ही खत्म हो चुकी है। जो पुलिसकर्मी और अधिकारी जिस जगह हैं, वे वहीं चैकस क्यों नहीं रहते। कभी राजधानी में एटीएम लूट लिए जाते हैं और कभी निर्दोष लोगों की हत्या हो जाती है। विधि व्यवस्था की बदहाली का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। इस समस्या का कोई अंत है भी या नहीं, यह भी तो इस प्रदेश को जनता को बताया जाना चाहिए। लखनऊ अगर गृहमंत्री राजनाथ सिंह का संसदीय क्षेत्र है तो चंदौली पूर्वांचल का एक जिला ही नहीं, उनका गृह जनपद भी है। इस घटना को गृहमंत्री को चुनौती देने के प्रयास के क्रम में भी देखा जाना कदाचित गलत नहीं होगा।
ठाकुरगंज इलाके से अपराधी को जिंदा पकड़ना एटीएस की रणनीति हो सकती है लेकिन उसकी गिरफ्तारी में विलंब कहीं उलटा न पड़ जाए, इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। क्या आतंकवादी को जिंदा पकड़ने के पीछे पूर्वांचल के चुनाव में लाभ-हानि का मनोविज्ञान तो काम नहीं कर रहा और कदाचित ऐसा है तो प्रदेश की सुरक्षा के दावे करने वाली अखिलेश सरकार का स्टैंड क्या है, यह भी तो सुस्पष्ट होना चाहिए। काश, आतंकियों के खात्मे में जाति-धर्म का विवेक नहीं किया जाता। पूर्वांचल के अंतिम चरण के चुनाव में शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की है और चुनाव बाद भी अमन-चैन बनाए रखने का दायित्व भी उसी का है। वैसे अखिलेश यादव ने इस बार रंग के साथ लट्ठ वाली होली खेलने का इरादा जाहिर किया है। इसके भी अपने निहितार्थ हैं, उसे भी समझा जाना चाहिए। अच्छा होता कि सरकार धमकी देने की बजाय विकास की बात पर ही केंद्रित रहती। चुनाव में हार-जीत किसी की भी हो लेकिन प्रदेश तो अपना है। इसकी सुरक्षा का ख्याल रखना सबका दायित्व है। प्रदेश के किन-किन इलाकों में आतंकवादियों के स्लीपर सेल सक्रिय हो रहे हैं। इस पर ध्यान देना फौरी और वक्ती जरूरत भी है। नीति कहती है कि शत्रु को जीता छोड़ देना बुराई है और फोड़े को पकने से पहले फोड़ देना चतुराई है और जो सुरक्षा बलों से घिर जाने के बाद भी शहादत चाहता हो, उस पर रहम करना जानकारी हासिल करने के लिहाज से उचित हो सकता है लेकिन जो लोग निर्दोष जनों पर हमले करते हैं, ऐसे लोगों के साथ रहम बरता जाना न तो तर्कसंगत है और न ही उचित। काश, इस दिशा में ध्यान दिया जा पाता।(हि.स)
-सियाराम पांडेय ‘शांत’