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चुनाव आयोग के एक निर्णय ने पलटी मुलायम कुनबे की तस्वीर.

चुनाव आयोग के एक निर्णय ने मुलायम कुनबे की तस्वीर पलट दी। महीनों से चले आ रहे अंतर्कलह के नाटक का पटाक्षेप कर दिया। फैसला निर्णायक हो तो नाटक नहीं चलता। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। चुनाव आयोग के एक निर्णय ने बाप-बेटे, चाचा-भतीजे को एक घाट पर पानी पीने, एक जैसी सोच रखने को विवश कर दिया।

चुनाव निशान साइकिल जब्त हो जाता तो कदाचित यह कलह और लंबी खिंचती। तब उसका स्वरूप कुछ और होता। आरोपों के बाण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी सीना छलनी करते। सपाई पानी पी-पीकर केंद्र सरकार को कोसते। पहले भी तो वे ऐसा कर ही रहे थे। मुलायम खेमा रामगोपाल यादव के भाजपा से मिले होने का आरोप लगा रहा था तो अखिलेश खेमा अमर सिंह पर। इस बाहरी और भीतरी के द्वंद्व में पिस तो रही थी भाजपा ही।

चुनाव आयोग ने यह फैसला बेहद सूझ-बूझ के साथ लिया। अंतर्कलह के नाटक का पटाक्षेप तो होना ही था। चुनाव सिर पर है। अब न होता तो क्या चुनाव बाद होता। इस नाटक की पटकथा तो पहले ही वायरल हो गई थी। पटकथा लेखक अंग्रेज का ईमेल और उस पर जारी चिट्ठी के साथ ही। किसी धारावाहिक की तरह अब तो उसकी कड़ी बढ़ाई जा रही थी। सबको पता चल गया था कि मुलायम के परिवार में कलह कम, अभिनय ज्यादा है। मामला चुनाव आयोग तक न जाता तो भद्द पिट जाती। मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता। अखिलेश की साफ-सुथरी छवि बनाने के फेर में ही दरअसल इस त्रासद और कलहपूर्ण नाटक की पटकथा लिखी गई थी।

इस नाटक के असल सूत्रधार तो मुलायम ही थे। पूरे परिवार को पता था कि किसे क्या अभिनय करना है और कब कहां करना है। कहना न होगा कि सबने अपनी भूमिका सलीके से निभाई। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने एक प्रसंग लिखा है-सीताहरण से पहले का। जब लक्ष्मण जंगल में लकड़ी लेने चले जाते हैं तो राम और सीता योजना बनाते हैं। राम कहते हैं कि सीते, मैं अब नर लीला करना चाहता हूं। इसलिए तुम अपने मूल स्वरूप में अग्नि में निवास करो। ‘तुम पावक मह करहूं निवासा।’ और माया की सीता बनकर आश्रम में रहो। रावण तुम्हारा अपहरण करेगा और मैं राक्षसों का संहार। यह नाटक उन दोनों के ही बीच में था। लक्ष्मण को तो इसकी भनक भी नहीं लगी। रावण को अगर यह ज्ञात होता कि सीता असली नहीं है तो वह उसका अपहरण ही क्यों करता।

मानसकार ने लिखा है कि ‘लछमन हु यह मरम न जाना। जौ कछु चरित रचा भगवाना।’ मुलायम ,शिवपाल, अखिलेश और रामगोपाल के बीच बुने गए इस राजनीतिक नाटकीय ताने-बाने की भनक कार्यकर्ताओं को भी नहीं लगी। अंततर्कलह में अगर रंच-मात्र भी सच्चाई होती तो बाप-बेटे के बीच अनबन का दायरा कुछ और होता। दोनों बाप-बाप चिल्लाते। भगवान शिव अपने बेटे कार्तिकेय को आज तक न मना पाए। नारद जी ने ऐसा भरा है कि कार्तिकेय के हृदय से निकलता ही नहीं। हर साल उनसे मिलने मल्लिकार्जुन पर्वत पर जाते हैं लेकिन उनसे मिल नहीं पाते। मुलायम भाग्यशाली हैं कि उन्हें अखिलेश यादव सरीखा बेटा मिला है। जो आज्ञाकारी ही नहीं, परम विनीत भी है। अपनी विजय के बाद भी आशीर्वाद तो लेता ही है। अअपननी विजय की जरूरी भी मानता है और अफसोसनाक भी। अपनी जरूरत और पिता के सम्मान का पूरा ध्यान रखता है।

चुनाव आयोग के निर्णय के एक दिन पहले तक जो मुलायम चुनाव निशान और पार्टी को बचाने के लिए कुछ भी करने की बात कर रहे थे। चुनाव निशान साइकिल फ्रीज हो जाने की हालत में अलग चुनाव निशान पर, अलग दल बना अखिलेश और उनके द्वारा घोषित उम्मीदवारों के खिलाफ प्रत्याशी उतारने की ताल ठोंक रहे थे, चुनाव आयोग के निर्णय के बाद उसी मुलायम सिंह यादव के कसबल ढीले पड़ गए। शिवपाल भी मान गए कि अखिलेश यादव ही अब पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। उन्हीं के नेतृत्व में एकजुट होकर चुनाव लड़ा जाएगा। सपा के उम्मीदवारों के खिलाफ मुलायम-शिवपाल न तो अपना उम्मीदवार उतारेंगे और न ही चुनाव आयोग के फैसले को अदालत में चुनौती देंगे। यह चमत्कार नहीं तो दरअसल क्या है। मुलायम और शिवपाल को इतना तो आभास है ही कि पार्टी में बहुमत अखिलेश के साथ है।

हाल के दिनों में इस सच को मुलायम भी देख चुके हैं और शिवपाल भी। इसके बाद भी दोनों ने चुनाव आयोग तक जाने का मार्ग चुना। न केवल वहां तक पहुंचे बल्कि अपने 11 वकील भी खड़ा किए। मतलब संघर्ष को कोई कमी नहीं आने दी। सवाल उठता है कि क्या मुलायम सिंह यादव की बात उनके परिवार में कोई काट सकता है। अगर बात काटनी ही होती तो उसी दिन कट जाती जब मुलायम ने खुद मुख्यमंत्री बनने की बजाय अखिलेश को वरीयता दी थी।

यह सच है कि मुलायम के बाद सीएम की दौड़ में शिवपाल ही थे लेकिन मुलायम के आगे वे बहुत अधिक विरोध नहीं कर सके थे। साढ़े चार साल तक मुलायम कुनबे में कोई कलह नहीं हुई। जब चुनाव सिर पर आया तो वर्चस्व की जंग शुरू हो गई। भाजपा नेताओं का आरोप है कि इस पूरी कलह के पीछे खनन या भ्रष्टाचार के अन्य तौर-तरीकों से अर्जित धन का बंटवारा ही प्रमुख कारण है। वजह जो भी हो लेकिन इसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। क्रिया की प्रतिक्रया तो होती ही है। श्रम का मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है। श्रम का मूल्य चुकाना होगा। आज खिल गए तो क्या कल हे सुमन तुम्हें मुरझाना होगा।’ अगर वाकई कोई समझौता हुआ है तो यह जुरै गांठ परि जाई वाली स्थिति होगी। बिगड़े हुए दूध से मक्खन तो निकलता नहीं। या तो मुलायम परिवार यह स्पष्ट करे कि दूध बस दही हो गई थी। दूध फटा नहीं था।

अगर यह पूरा मामला स्क्रिप्टेड भी था तो इसे बहुत पहले समाप्त हो जाना चाहिए था। मुलायम सिंह यादव ने एक दिन पहले के अपने बयान में कहा है कि जनता के बीच संदेश गया है कि अखिलेश मुस्लिम विरोधी हैं। उनकी सूची में मुस्लिम उम्मीदवार कम हैं। मतलब मुलायम सिंह यादव को बेटे से कहीं अधिक मुस्लिमों की चिंता सता रही है और जब अखिलेश यादव ने यहां तक कह दिया है कि अपने उम्मीदवारों की सूची में वे नेताजी द्वारा प्रेषित उम्मीदवारों को समायोजित करेंगे तो पिफर कलह की गुंजाइश बनती नहीं लेकिन अखिलेश का अअपने पिता पर विश्वास भी तो नहीं है। अगर विश्वास होता तो वे सर्वोच्च न्यायालय में कैविएट ही क्यों दाखिल करते। मुलायम के आंगन में कौनसा निर्णय कब बदल जाए, यह तो विधाता भी नहीं जानता।

समाजवादी पार्टी और उसके चुनाव चिन्ह पर कब्जे की जंग भले ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जीत ली हो लेकिन अब भी वे अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तरफ से निश्चिंत नहीं हैं। मुलायम गुट के अगले कदम की ओर से आशंकित अखिलेश खेमे ने सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में कैवियट दाखिल की है। अखिलेश यादव अब तक 236 और शिवपाल 394 उम्मीदवार घोषित कर चुके हैं। अखिलेश की सूची में 58 उम्मीदवार ऐसे हैं जो शिवपाल की सूची में नहीं थे। यानी उनके 178 उम्मीदवार कॉमन हैं। मुलायम सिंह यादव की ओर से जब 38 उम्मीदवारों की सूची अखिलेश को सौंप दी गई है तो फिर इतना तो साफ हो ही गया है कि मुलायम या शिवपाल इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय तो नहीं जा रहे। वैसे इस मामले में अखिलेश की दूरदर्शिता को दाद देनी पड़ेगी। मुलायम पैंतरा बदलें या कोई और दांव लगाएं, इससे पहले ही कैविएट दाखिल कर उन्होंने उनकी राह कंटीली जरूर बना दी है।

नेता अभिनेता नहीं हो सकता और अभिनेता नेता नहीं हो सकता लेकिन देश के सबसे बड़े सियासी कुनबे ने यह साबित कर दिया है कि अभिनय में कोई अभिनेता उनके पास तक फटक नहीं सकता। जब पूरा देश मुलायम परिवार में कलह को लेकर परेशान था, तब भी इस परिवार का एक ही जवाब था कि यहां कलह है ही नहीं। समर्थक भिड़ते रहे। आत्मदाह करते नहीं। प्रचंड ठंड में अर्धनग्न प्रदर्शन करते रहे। रोते रहे, बिललबिलाते रहे। लाठी- डांट खाते रह, तब भी इस परिवार ने यह नहीं माना कि वहां कोई कलह है। बस वे भीतरी-बाहरी करते रहे। एक दूसरे को गुमराह करने के जुमले उछालते रहे। जब अखिलेश यादव ने सलीके से अपने पिता को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अपदस्थ किया, तब भी उन पर पितृद्रोही होने के आरोप लगे। कुछ राजनीतिक दलों ने तो यहां तक कहा कि जो अपने पिता का नहीं हुआ, वह जनता क्या होगा।

भले ही मुलायम कुनबे का यह नाटक खत्म हो गया हो लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का जनता के बीच कोई बहुत सकारात्मक संदेश नहीं गया है। मुलायम की बेबसी तो झलकी ही, अखिलेश की भी छवि खराब हुई है। शिवपाल यादव को अगर पहले ही वह मंत्रिपद से हटा देते तो और बात थी लेकिन अगर वह शिवपाल यादव को अपनी सूची में बतौर उम्मीदवार शामिल करते हैं। उन्हें न सही, उनके बेटे को ही समायोजित करते हैं तो भी उनकी वैचारिक दृढ़ता पर तो सवाल उठेगा ही।

प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। मुलायम सिंह यादव की सूची के 38 हीरों को अपनी मणिमाला में शामिल करने का हिसाब भी तो अखिलेश को देना ही पड़ेगा। अगर मिलकर ही लड़ना था तो लड़े ही क्यों, इस सवाल का जवाब तो जनता मांगेगी ही। अपनी-अपनी चलाने के चक्कर में जनता के मूलभूत सुविधाओं, उसकी सुरक्षा की अनदेखी आखिर कहां तक उचित है। परिवार की कलह अब आगे नहीं जाएगी, यह विश्वास कौन पैदा करेगा, यह भी तो सुस्पष्ट किए जाने की जरूरत है और यही समय की मांग भी है।

                                                                                                        –  सियाराम पांडेय ‘शांत’

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