लखनऊ, 09 जनवरी = सूबे में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ जहां सत्ता के लिए संघर्ष तेज हो रहा है, वहीं विभिन्न दलों के बड़े नेताओं से सम्बन्धित क्षेत्र एक बार फिर सुर्खियों में आ गए हैं। इन्हीं में से एक अमेठी है, जो गांधी परिवार की सियासी राजनीति का गढ़ कहा जाता है। हालांकि इस सीट ने गांधी परिवार को तो शोहरत की बुलन्दियों पर पहुंचाया, लेकिन अमेठी की जनता को आज तक वह मुकाम नहीं मिल पाया, जिसकी वह हक़दार है।
यही वजह है कि कभी जिस अमेठी का घर-घर कांग्रेस का समर्थक माना जाता था, आज वहां पार्टी का तिलिस्म टूट रहा है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में इसकी शुरूआत भी हो चुकी है, तब अमेठी संसदीय क्षेत्र की 05 विधानसभा सीटों में से 03 पर सपा ने अपना कब्जा जमाकर कांग्रेस और खासतौर से गांधी परिवार को सकते में डाल दिया था। इसके बाद जब लोकसभा चुनाव का समय आया तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से स्मृति ईरानी ने ऐसा माहौल बनाया कि कांग्रेस का अभेद्य किला ढहने की कगार पर पहुंचता दिखायी दिया। हालांकि राहुल गांधी ने जीत तो दर्ज की, लेकिन जिस सीट पर गांधी परिवार चार लाख के अन्तर से प्रतिद्वन्दी को हराता था, वहां वह कड़े मुकाबले में 80 हजार के मामूली अन्तर से जीत पाया।
कांग्रेस के क्षेत्र में दिनों-दिन कम होते असर की कसर वर्ष 2015 में हुए पंचायत चुनाव ने पूरी कर दी। इसमें जनपद के 13 ब्लॉक प्रमुख पदों में महज एक ब्लॉक बहादुरपुर में कांग्रेस को जीत नसीब हुई। हैरानी वाली बात थी कि सात ब्लॉकों में तो पार्टी उम्मीदवार तक नहीं तलाश कर पायी। अब विधानसभा चुनाव को लेकर एक बार फिर गांधी परिवार की सियासी प्रतिष्ठा दांव पर है।
राहुल खाट सभाओं के जरिए प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनने का दावा कर रहे हैं। वह नोटबन्दी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी हमलावर हैं, लेकन उनके ही संसदीय क्षेत्र में पार्टी पूरी तरह से नीरस दिखाई दे रही है। गुटबाजी पहले ही पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो रही है। किशोरीलाल शर्मा जैसे चर्चित चेहरे को अमेठी से हटाकर रायबरेली तक ही सीमित करना इसका बड़ा उदाहरण है। वहीं अब जनता से संवाद नहीं होने कारण गांधी परिवार का क्षेत्र से भावनात्मक रिश्ता भी धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है।
गांधी परिवार को कई दशकों से अपना नेता मानने वाली पीढ़ी अब बुजुर्ग हो चली है। नई पीढ़ी और युवाओं में कांग्रेस के प्रति पहले जैसा जोश नहीं है। क्षेत्र का लगातार विकास की दौड़ में पिछड़ना इसकी अहम वजह है। कांग्रेस देश में विकास के दावे तो करती है, लेकिन गांधी परिवार अपने ही क्षेत्र की दुर्दशा सुधारने में नाकाम रहा है। राहुल गांधी के सांसद रहते अमेठी शाहगंज ऊंचाहार रेल परियोजना जहां परवान नहीं चढ़ पायी वहीं उतरेटिया और अमेठी के बीच रेल लाइन का दोहरीकरण तक नहीं हुआ।
राजीव गांधी का दौर छोड़ दें तो भी मनमोहन सिंह सरकार दस साल केन्द्र में रही। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की कई सरकारों से भी गांधी परिवार के करीबी रिश्ते रहे, बावजूद इसके अमेठी की जनता को वह सुख नहीं मिल पाया, जो समाजवादी पार्टी की सरकार में मैनपुरी और इटावा सहित अन्य बड़े सपा नेताओं के क्षेत्र को मिलता है। इसी का परिणाम है रायबरेली और अमेठी में चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी की सक्रियता भी कांग्रेस का गिरता ग्राफ उठाने में नाकाम साबित हुई है।
विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस अमेठी की जनता से उम्मीद लगाये बैठे हैं, लेकिन अमेठी उनसे सवाल पूछ रही है कि आज़ादी के दशकों बाद तक उसने जो विश्वास किया, उसके बदले में उसे क्या मिला? इसका जवाब अगर कांग्रेस तलाशने की कोशिश करे, तो शायद उसकी साख चुनाव में कुछ बच सके।