शरद पूर्णिमा को होता है 1840 से शुरू माधोपुर की रामलीला के रावण का दहन
गोरखपुर, 27 सितम्बर (हि.स.)। कुशीनगर के कसया विकासखंड स्थित मठिया माधोपुर गांव में वर्ष 1840 से हर साल होती चली आ रही है। रामलीला ने इस वर्ष आयोजन का 177 वां वर्ष पूरा किया है। रामलीला के शानदार 177 वें पड़ाव में भी ग्रामीण युवाओं का उत्साह कम नहीं हुआ है। यह अंग्रेजी काल से ही साम्प्रदायिक एकता की मशाल को जलाता आ रहा है। यही नहीं, यहां रावण का पुतला भी दशहरा को नहीं बल्कि शरद पूर्णिमा को जलाया जाता है। शरद पूर्णिमा को जलाया जाने वाले रावण को लेकर दांत कथाएं भी प्रचलित हैं।
यहां न तो जाति का बंधन है और न ही सम्प्रदाय के आधार पर कोई भेदभाव। रामलीला के आयोजन में सबकी भागीदारी तय है। बांसफोड़ रावण के पुतले के लिए बातियां बनाते हैं तो मुसलमान कलाकार उसे मूर्त रूप देने में जुटे रहते हैं। इतना ही नहीं राम-सीता के विवाह में मुसलमानों की भागीदारी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
कार्तिक पंचमी को मानस पाठ और 1840 में भोजपुरी में रामलीला शुरू
ग्रामीणों की मानें तो इस स्थान पर कार्तिक पंचमी को हनुमान चबूतरा तैयार होने के बाद रामचरित मानस का आयोजन शुरू हुआ। 1839 मानस पाठ करने वाले ग्रामीणों ने पहली बार रामलीला का मंचन भोजपुरी में किया। वर्ष 1840 में विधिवत रामलीला का आयोजन शुरू हो गया। लोगों को न तो खड़ी बेली आती थी और न ही वे हिन्दी जानते थे। गांव में पढ़ेलिखे लोगों की संख्या थी ही नहीं। यही वजह है कि रामलीला की शुरुआत भोजपुरी में शुरू हुई।
अनपढ़ कलाकार ने किया था खड़ी बोली का प्रयोग
माधोपुर की रामलीला में सबसे पहली बार खड़ी बोली का प्रयोग गांव के अनपढ़ कलाकार (ताड़का बनने वाले ठगई राय) ने ‘मार डालेंगीं, काट डालेंगीं‘ बोलकर किया था। तब यह मजाक के रूप में लिया गया था, लेकिन उसके बाद से ही कलाकारों ने हिन्दी बोलने का अभ्यास शुरू कर दिया था।
वर्ष 1908 में खिचड़ी बाबा ने हिंदी में शुरू कराया था रामलीला मंचन
67 बसंत पार कर चुके डाॅ. इंद्रजीत मिश्र की मानें तो गांव की स्थापना के बाद अयोध्या में रामलीला देख गांव लौटे पंडित अयोध्या मिश्र की अगुवाई में यह शुरू हुई, लेकिन वर्ष 1908 के आसपास खिचड़ी बाबा ने इसे पूर्णतः हिन्दी में कराना शुरू किया। श्री मिश्र भी अपने पूर्वजों से ही सुनते आ रहे हैं।
रामलीला में भागीदार हैं गांव की महिलाएं
राम-सीता विवाह में गांव महिलाओं की भागीदारी रहती है। मंगलगीत गोने के लिए इनमें आज भी उत्साह है। विवाह के दिन मंच पर चढ़कर बाकायदा यह रामलीला की भागीदार बनतीं हैं। शादी-ब्याह में गाई जाने वाली गारी की परंपरा का निर्वहन, राम-सीता विवाहोत्सव को जीवंत बनाता है।
नेवता देकर साम्प्रदायिक एकता की मिसाल पेश करते हैं मुस्लिम
मुसलमान भी राम-सीता विवाह में नेवता देकर साम्प्रदायिक एकता की मशाल पेश करते हैं। यह परंपरा आज भी कायम है। मंचन में हर जाति व वर्ग के युवाओं, बूढ़ों और महिलाओं की भागीदारी इसकी शान में चार चांद लगा रहे हैं।
क्या है मान्यता
गांव के 80 वर्षीय वृद्ध सोबरती अंसारी, 82 वर्षीय वृद्ध शरीफ अंसारी, 68 वर्षीय डॉ. नरेंद्र सिंह की मानें तो इसकी कहानी रावण की नाभि से निकलने वाले अमृत से जुड़ी है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन जब भगवान राम ने रावण की नाभि में बाण मारा तो उसकी नाभि से अमृत की बूंदें बाहर की ओर आईं। जो चंद्रमा की किरणों के साथ घुल-मिल गई। इसी मान्यता के आधार पर गांव के लोग भी शरद पूर्णिमा की रात में खीर बनाते हैं और उसे ग्रहण करते हैं। इसके पीछे समाज और गांव को खुशहाल, स्वस्थ और सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना से ओत-प्रोत करना है।