समुद्र-मंथन के दौरान जिस स्थल से कल्पवृक्ष और अप्सराएं मिलीं, उसी के निकट से महालक्ष्मी मिलीं। ये लक्ष्मी अनुपम सुंदरी थीं, इसलिए इन्हें भगवती लक्ष्मी कहा गया है। श्रीमद् भागवत में लिखा है कि ‘अनिंद्य सुंदरी लक्ष्मी ने अपने सौंदर्य, औदार्य, यौवन, रंग, रूप और महिमा से सबका चित्त अपनी ओर खींच लिया।‘ देव-असुर सभी ने गुहार लगाई कि लक्ष्मी हमें मिलें। स्वयं इंद्र अपने हाथों पर उठाकर एक अद्भुत व अनूठा आसन लक्ष्मी को बैठने के लिए ले आए। उनकी कटि बहुत पतली थी। वक्षस्थल परस्पर सटे व उभरे हुए थे। उन पर चंदन और केसर का लेप लगा था। जब वे चलती थीं, तो उनकी पायजेब से मधुर ध्वनि प्रस्फुटित होती थी। ऐसे में ऐसा लगता था, मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम रही है। इस लक्ष्मी को विष्णु ने अपने पास रख लिया।‘
समुद्र-मंथन में लक्ष्मी मिलीं, इसे हम यूं भी ले सकते हैं कि लक्ष्मी के मायने धन-संपदा या सोने-चांदी की विपुलता से भी होता है। समुद्र-मंथन के क्रम में जब देव-दानव समुद्र पार कर गए तो सबसे पहले हिरण्यकषिपु दैत्य को सोने की खदान मिली थी। इसे हिरकेनिया स्वर्ण-खान आज भी कहा जाता है। इस खदान पर वर्चस्व के लिए भी देव और असुरों में विवाद व संग्राम छिड़ा था। अंततः हिरण्यकषिपु का इस पर अधिकार माना गया, क्योंकि इसे ही यह खान दिखाई दी थी। इसे यूं भी कह सकते हैं, कि इस सोने की खान को खोजने में हिरणयकषिपु की ही प्रमुख भूमिका रही थी।
दरअसल लक्ष्मी के विलक्षण रूप के वर्णन प्रकृति के रहस्यों से भी जुड़े हैं। वैसे तो देवी लक्ष्मी के अनेक रूप हैं, परंतु उनका सर्वाधिक प्रचलित रूप वह है, जिसमें देवी पूर्ण रूप से खिले हुए पद्म-प्रसून पर अविचल मुद्रा में बैठी हुई हैं। उनके दोनों हाथों में नालयुक्त कमल हैं। साथ ही उनके दोनों तरफ कमल-पुष्प पर ही दो हाथी अपनी ऊपर उठाई सूंड़ों में घड़े लिए हुए लक्ष्मी का जल से अभिषेक कर रहे हैं। लक्ष्मी के इस रूप और इससे भिन्न रूपों का कौतुक-वृत्तांत रामायण से लेकर अधिकांश पुराणों में अंकित है। इन लक्ष्मी का जलाभिषेक करते गजों से घनिष्ट संबंध है। जब देवों ने असुरों के साथ मिलकर सागर-मंथन किया तो उसमें से चैदह प्रकार के रत्नों की प्राप्ति हुई। इन्हीं रत्नों में ऐरावत नाम का हाथी और लक्ष्मी भी थीं। समुद्र-मंथन से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी और गज का जन्मजात संबंध स्वाभाविक है। लक्ष्मी को पृथ्वी के प्रतीक के रूप में भी माना गया है। इस नाते उन्हें भूदेवी भी कहा जाता है। वैसे भी विष्णु की दो पत्नियां थीं। एक लक्ष्मी और दूसरी पत्नी श्रीदेवी हैं। यजुर्देव में कहा भी गया है,
‘श्रीश्च ने लक्ष्मी श्रीश्च पतन्यो।‘
भूदेवी होने के कारण लक्ष्मी पृथ्वी की प्रतीक हैं। इस नाते गज जलद अर्थात मेघों के प्रतीक हैं। इसीलिए वर्शा पूर्व बादलों के गरजने की क्रिया को मेघ-गर्जना कहा जाता है। जब तक धरती पर बादल बरसते नहीं हैं, तब तक फसलों के रूप में अन्न-धान्य पैदा नहीं होते हैं। लक्ष्मी का जल से अभिषेक करते गजों का प्रतीक भी यही है कि गज बरसकर पृथ्वी को अभिसिंचित कर रहे हैं, जिससे पृथ्वी से सृजन संभव हो सके। इस कारण लक्ष्मी को सृजन की देवी भी कहा जाता है।
सौभाग्य लक्ष्मी को उपनिषद् में ‘सकल भुवन माता‘ कहा गया है। सृजन अर्थात सृष्टि माता-पिता दोनों के संसर्ग से संभव है। अस्तु लक्ष्मी मातृशक्ति की और गज पितृशक्ति के प्रतीक हैं। गज को पुरुषार्थ का प्रतीक भी माना गया है। गोया, लक्ष्मी और गगन के समतुल्य गज संसार के माता-पिता माने जा सकते हैं। गज दिशाओं के प्रतीक भी हैं, इसलिए इन्हें दिग्गज भी कहा जाता है। इस कारण वे राज्य की चतुर्दिक सीमाओं के भी प्रतीक हैं। वैसे भी पुरातन काल में जो चतुरंगी सेनाएं हुआ करती थीं, उनमें गज-सेना भी होती थी, जो सीमांत प्रांतरों में चारों दिशाओं में तैनात रहती थीं।
कमल पर आरूढ़ लक्ष्मी से कमल का गहरा व आत्मीय रिश्ता है। सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा स्वयं कमलभव हैं, जो भगवान विष्णु की नाभि से प्रस्फुटित कमल पर ही विराजमान हैं। इसी कारण विष्णु को ‘पद्मनाभ‘ और ‘पद्माक्षी‘ कहा गया है। कमल पर बैठी होने के कारण लक्ष्मी को ‘कमला‘ भी कहा जाता है। कमल की यह विशेषता है कि वह कीचड़ में पैदा होने के पश्चात भी स्वच्छ है, स्वछंद है एवं निर्मल है। जल में जीवन-यापन करते हुए भी वह निर्लिप्त है। अनेक पंखुरियों से युक्त व खिला होते हुए भी वह एकात्मता का द्योतक है। कमल की जड़, नाल, पंखुड़ियां व बीज सब मानव उपयोगी हैं, इसलिए कमल को समष्ठिगत गुणों वाले पुष्पों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। व्यष्टि में समष्टि का समन्वयात्मक संदेश देता हुआ कमल लोकमंगल का आवाहन करता है, इसलिए ऋषि-मुनियों ने कमल को सांस्कृतिक प्रधानता व सर्वोच्चता की पहचान से निरूपित किया है।
लक्ष्मी का जल से अभिषेक करते हुए कलश, पूर्ण-कलश अर्थात लोक मंगलकारी कलशों के प्रतीक हैं। जल जीवन का आरंभिक उद्गम स्थल होने के साथ, जीवन का प्रमुख आधार भी है। जल से ही पद्म उत्पन्न हुआ है और पद्म से ब्रह्मा और ब्रह्मा से संपूर्ण सृष्टि। इसी कारण कलश को हिरण्यगर्भ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। कलश के संदर्भ में सांस्कृतिक मान्यता है कि इसमें त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास है। कलश के मुख पर ब्रह्मा, ग्रीवा में शिव और मूल में विष्णु तथा मध्य में मातृगणों का निवास होता है। अर्थात ये सभी देव-गण कलश में प्रतिष्ठित होकर किसी मांगलिक कार्य को सकारात्मक गति देने का काम करते हैं। इस कारण कलश भी लक्ष्मी के समान ही सृष्टि और मातृशक्ति का प्रतीक माना गया है।
मूर्ख और अशुभ का प्रतीक माने जाने के बावजूद उल्लू धन की देवी भगवती का वाहन है। हालांकि ऋग्वेद के श्री-सूक्त में वैभव की देवी लक्ष्मी की विस्तार से चर्चा है, लेकिन इस वृत्तांत में उल्लू को लक्ष्मी के वाहन के रूप में कहीं नहीं दर्शाया गया है। समुद्र-मंथन से लक्ष्मी तो प्रकट हुईं, लेकिन उल्लू के प्रकट होने का विवरण नहीं है। कहते हैं कि जब लक्ष्मी को धन की देवी के रूप में प्रतिष्ठा मिल गई, तो उनकी स्थान-स्थान पर पूजा होने लग गई। इस कारण उन्हें अलग वाहन की आवश्यकता अनुभव होने लगी। उन्हें भगवान विष्णु के व्यस्त रहने के कारण भी अपने उपासकों के पास जाने में विलंब होने लगा। ऐसे में लक्ष्मी के लिए ऐसे वाहन की खोज शुरू हुई, जो विष्णु के वाहन गरुड़ की तुलना में उड़ान भरने में दक्ष तो हो ही, रात में भी उड़ान भरने में समर्थ हो। क्योंकि लक्ष्मी के भक्त धन-वैभव की पूजा रात्रिकाल में ही दीपकों की रोशनी में करते हैं। अब हम सब जानते ही हैं कि जीव-जगत के अधिकांश प्राणी रात में आहार-भक्षण के बाद निद्रा में लीन हो जाते हैं। केवल उल्लू ही रात में जागता है और आहार के लिए शिकार को भटकता है। गोया, निशाचर उल्लू रात में विचरण करने के कारण लक्ष्मी के वाहन के रूप में उपयुक्त ठहरा दिए गए और उल्लू लक्ष्मी के वाहन के रूप में उपयोग में आने लग गए। इन वृत्तांतों से भगवती लक्ष्मी के प्रकृति से जुड़े रूप का स्पष्ट आभास होता है। : प्रमोद भार्गव