केशव भूमि नेटवर्क :=शुरू से ही जयललिता एक कामयाब वकील बनना चाहती थीं. लेकिन, किस्मत को यह मंजूर नहीं था इस लिए पहले किस्मत ने उन्हें फिल्मों और फिर राजनीति में धकेल दिया.दोनों ही क्षेत्रों में उनका सफर आसान नहीं रहा है. जयललिता 140 फिल्में कर चुकी है , 8 बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुकी है और एक बार राज्यसभा के लिए मनोनीत होने के अलावा वह पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी चुकी हैं. किन परिस्थितियों से जूझते हुए जयललिता मुख्यमंत्री के मुकाम तक पहुँचीं?
उनके अब तक के सफ़र पर एक नज़र-
साल 1948 की 24 फ़रवरी को मैसूर में मांडया ज़िले के मेलुरकोट गांव में पैदा होने वाली जयललिता के पिता की मृत्यु जब हुई, वे सिर्फ़ दो साल की थीं.यहीं से उनका जीवन संघर्ष भी शुरू हो गया. उनकी माँ वेदवल्ली ने तमिल सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया और अपना नाम बदल कर संध्या रख लिया.जयललिता अपनी मौसी और नाना-नानी के पास रहकर बंगलुरू के बिशप कॉटन स्कूल में पढ़ने लगीं. मौसी की शादी के बाद वे अपनी माँ के पास चेन्नई चली गईं. यहाँ उनके जीवन ने दूसरी करवट ली, क्योंकि पढ़ाई में अच्छा करने के बावजूद उनकी माँ ने उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए मजबूर किया.
बस फिर क्या था! पहली कन्नड़ फ़िल्म के बाद उनके पास एक के बाद एक फ़िल्में आने लगीं. उन्होंने दक्षिण भारत में उस दौर के लगभग सभी सुपरस्टारों, मसलन, शिवाजी गणेशन, जयशंकर, राज कुमार, एनटीआर यानी एन टी रामाराव और एम जी रामचंद्रन यानी एमजीआर के साथ काम किया. फ़िल्म इतिहासकारों के अनुसार, जयललिता ने जयशंकर के साथ 10 तमिल फिल्मों में काम किया. उन्होंने एन टी रामाराव के साथ 12 तेलुगु फिल्मों में भी काम किया. इसके अलावा उस वक़्त के तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार अक्कीनेनी नागेश्वर राव के साथ उन्होंने 7 फिल्में कीं. शिवाजी गणेशन के साथ की गई तमिल फिल्म ‘पट्टिकाडा पट्टनामा’ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.
शिवाजी गणेशन के साथ जयललिता ने 17 फिल्में की. इतना ही नहीं, एक फिल्म में उन्होंने गणेशन की बेटी की भूमिका भी निभाई थी. लेकिन, एम जी रामचंद्रन के साथ तमिल फिल्मों में उनकी जोड़ी ने उन्हें कामयाबी और शोहरत के नए मुक़ाम पर पहुंचाया.जब एम जी रामचंद्रन राजनीति में आए, जयललिता को भी साथ ले आए. 1982 में उन्होंने अन्ना द्रमुक की सदस्यता ग्रहण की और 1983 में पार्टी की प्रचार प्रमुख बन गईं और विधायक भी.
उन्होंने पहला चुनाव तिरुचेंदूर सीट से जीता. एम जी रामचंद्रन ने 1984 में उन्हें राज्यसभा भेजा. फिल्मों की तरह ही राजनीति में भी जयललिता एक-एक कर सीढ़ियां चढ़ती चली गईं.साल 1988 में एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद अन्ना द्रमुक दो हिस्सों में बंट गया. एक हिस्से का नेतृत्व एमजीआर की पत्नी जानकी कर रहीं थी तो दूसरे का जयललिता.
जयललिता ख़ुद को एमजीआर का राजनीतिक उत्तराधिकारी मानने लगीं.
लेकिन, उस वक़्त तमिलनाडु विधानसभा के अध्यक्ष पी एच पांडियन ने जयललिता के गुट के 6 सदस्यों को अयोग्य क़रार दिया. जानकी रामचंद्रन तमिलनाडु की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गईं.राष्ट्रपति शासन के बाद 1989 में हुए विधानसभा के चुनावों में जयललिता के गुट ने 27 सीटें जीत लीं और वे विपक्ष की नेता बनीं.लेकिन, 25 मार्च 1989 में तमिलनाडु के विधानसभा में जो हुआ, उसने लोगों में जयललिता के प्रति सुहानुभूति और बढ़ा दिया.सत्ता पक्ष यानी डीएमके के सदस्यों और अन्ना द्रमुक के सदस्यों के बीच सदन में ही हाथापाई हुई और जयललिता के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती की गई. अपनी फटी साड़ी के साथ जयललिता विधानसभा से बाहर आईं और लोगों ने सत्ता पक्ष को इस घटना के लिए खूब कोसा.
यही वो दिन था जब जयललिता ने सदन से निकलते हुए कहा था कि वे मुख्यमंत्री बन कर सदन में लौटेंगी वर्ना नहीं. साल 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में जयललिता ने कांग्रेस से चुनावी समझौता किया और 234 में से 225 सीटें जीत लीं. वे मुख्यमंत्री बनीं.अपने जीवन के सफ़र के बारे में चर्चा करते हुए एक बार जयललिता ने कहा था, “मेरी ज़िंदगी का एक तिहाई हिस्से पर मेरी माँ का प्रभाव रहा. ज़िंदगी के दूसरी तिहाई हिस्से पर एमजीआर का. मेरी ज़िंदगी का सिर्फ़ एक तिहाई हिस्सा ही मेरा है. मुझे इसी में बहुत सारी ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करना है.”अन्ना द्रमुक के मंत्री, सांसद, विधायक, नेता और समर्थक उन्हें ‘अम्मा’ और ‘पुरातची थलाइवी’ यानी ‘क्रांतिकारी नेता’ के नाम से भी पुकारते हैं.
जबकि दलित चिंतक और लेखक रवि कुमार कहते हैं कि जयललिता को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति में एमजीआर की छवि और अपील के आगे खुद की छवि को और भी बड़ा बना लिया.वे कहते हैं, “उन्होंने एमजीआर की विरासत को आगे बढ़ाने की बजाय अपनी मेहनत और संघर्ष से खुद के नाम और छवि को स्थापित किया.”
रवि कुमार मानते हैं कि जयललिता तमिलनाडु की ऐसी आख़िरी नेता हैं, जिनके साथ उनके समर्थक किसी भी हद तक जाकर खड़े रहते हैं. लेकिन, उनकी सबसे बड़ी कमी वे यह बताते हैं कि जयललिता ने कभी अपनी पार्टी में दूसरी या तीसरी पंक्ति के किसी नेता को खड़ा नहीं होने दिया.उनका कहना है, “ऐसी परिस्थिति में वे अगर सत्ता चलाने में असमर्थ होती हैं तो अन्ना द्रमुक पार्टी में टूट अवश्यम्भावी है.”
वहीं, पेरियार के संगठन द्रविड कषगम की नेता आरुलमोई कहती हैं कि वे जयललिता से सहानुभूति इसलिए रखती रहीं थीं कि जयललिता को उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ फ़िल्मों में काम करने के लिए मजबूर किया गया था, जबकि वे पढ़ना और एक कामयाब वकील बनना चाहती थी.पर अरुलमोई जयललिता के बतौर मुख्यमंत्री के कार्यकाल को उतने नंबर नहीं देतीं जितने वो जयललिता को बतौर एक महिला और एक नेता के रूप में देती हैं.