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जब नौशाद ने मुगल-ए-आजम में संगीत देने से किया इनकार

नई दिल्ली, 24 दिसम्बर (हि.स.) । ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम में संगीत देने वाले मशहूर संगीतकार नौशाद अली ने अपने संगीत के करियर में लगभग 70 फिल्मों के गानों को संगीत दिये । नौशाद का जन्म 25 दिसम्बर, 1919 को लखनऊ के एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। नौशाद 17 साल की उम्र में 25 रुपये उधार लेकर 1937 में अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई चले गए थे। शुरुआती संघर्षपूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की संगति नसीब हुई।

उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में ‘प्रेम नगर’ में संगीत देने का अवसर मिला लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्शित हुई ‘रतन’ से, जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यहीं से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।

उन्होंने छोटे पर्दे के लिए ‘द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान’ और ‘अकबर द ग्रेट’ जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया। बहरहाल नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल, जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। 

फिल्म मुगल-ए-आजम के संगीतबद्ध गीत आज भी युवा पीढ़ी की जुबान पर हैं। इस फिल्म से जुड़ा बड़ा ही दिलचस्प वाकया है–नौशाद साहब ने पहले तो इस फिल्म को संगीत देने से मना कर दिया था। उसके बाद मुगल-ए-आजम के निर्देशक के आसिफ उनके घर गये। उस नौशाद साहब हरमोनियम पर एक धुन तैयार कर रहे थे। के आसिफ ने उनके हरमोनियम पर पचास हजार की एक गड्डी फेंकी जिस पर नौशाद साहब बहुत गुस्सा हो उठे और नोटों से भरी गड्डी के. आसिफ के चेहरे पर फेंकते हुए कहा कि ऐसा उन लोगों के लिये करना जो बिना एडवांस फिल्मों में संगीत नहीं देते। मैं आपकी फिल्म में संगीत नहीं दूंगा लेकिन बाद में के. आसिफ की आरजू-मिन्नत पर नौशाद न सिर्फ फिल्म का संगीत देने के लिये तैयार हो गए बल्कि इसके लिये एक पैसा भी नहीं लिया।

नौशाद के फिल्मी सफर पर नजर डालने पर पता चलता है कि उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में गीतकार शकील बदायूंनी के साथ ही की और उनके गाने जबर्दस्त हिट हुए। नौशाद के पसंदीदा गायकों में मोहम्मद रफी का नाम सबसे ऊपर आता है। नौशाद ने शकील बदायूंनी और मोहम्मद रफी के अलावा लता मंगेशकर, सुरैया, उमा देवी और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को भी फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नौशाद पहले संगीतकार हुए जिन्हें सर्वप्रथम फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया । वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फिल्म बैजू बावरा के लिये नौशाद फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के रूप में सम्मानित किये गये। भारतीय सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 
अपने संगीत से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले महान संगीतकार नौशाद 05 मई, 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गये।

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