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कजरी और बदरी के मेल पर भारी पड़ती गंवई राजनीतिः सियाराम पांडेय ”शांत’

धर्म ,सावन विशेष : सावन की बदरी और कजरी का मेल किसी से छिपा नहीं है। गांवों में सावन के मेले लगा करते थे। पेड़ों पर झूले पड़ते थे और जगह-जगह कजरी मेलों का आयोजन होता था लेकिन अब यह सब गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। बच्चों को कजरी, ठुमरी का ज्ञान ही नहीं और बड़े भी नून-तेल लकड़ी में ऐसे जूझे हैं कि प्रकृति का सानिध्य और परंपरागत गीतों की उन्हें याद भी नहीं आती।

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भौतिकता की दौड़ में व्यक्ति इतना एकांगी हो गया है कि सामूहिकता के, सामाजिकता के स्वर लोकजीवन से गायब से होने लगे हैं। गांवों में ही झूले और सावनी गीतों का थोड़ा बहुत अस्तित्व बचा है। वैसे गांवों और खास कर महिलाओं में अपना हर काम गाते हुए करने की प्रवृत्ति सदियों पुरानी है। चक्की पीसने से धान रोपने तक वे गाती नजर आती हैं। ऐसे में यह कहें कि महिलाएं साक्षात संगीत हैं तो कदाचित गलत नहीं होगा। 

मानसकार गोस्वामी तुलसीदास भी रामचरित मानस की आरती में सबको गाता हुआ बताते हैं। ‘ गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बाल्मीकि विज्ञान विसारद। सुक सनकादि सेष अरु सारद।’ गाना संपूर्ण उल्लास की स्थिति है और लगता है कि यह उल्लास लोक जीवन से छिन सा गया है। जिन गांवों में गायन-वादन का माहौल बना रहता था। मंदिरों पर ढोल की थाप और हारमोनियम के सरगम गूंजा करते थे, वहां अब वह पहले वाली बात नहीं रही। एक अनमनापन सा नजर आता है और इसके मूल में कहीं न कहीं पंचायत की राजनीति और उससे उत्पन्न वैमनस्य ही बहुत हद तक जिम्मेदार है।

हर गांव में एक या दो सामूहिक झूले पड़ते थे। पटरे और डोर का प्रबंध भी सामूहिक तौर पर होता था लेकिन अब वह बात नहीं रही। सारे गांव की महिलाएं एक साथ झूला झूलने आतीं और घंटों अपनी बारी का इंतजार करती लेकिन अब कोई किसी के यहां जाता नहीं। गांवों में चुनावी राजनीति का यह करिश्मा है। जब कभी झूला टूटता और लोग गिरकर चोटिल होते तो भी लोग हंसते और एक दूसरे की मदद करते। गांवों से मेल-मिलाप का यह भाव तो जैसे अब खत्म ही हो गया है। इससे इस देश की लोकसंस्कृति को भी बहुत हद तक नुकसान हो रहा है। कजरी के शौकीन अब रेडियो और दूरदर्शन पर कजरी सुनकर ही सावन का आनंद ले लेते हैं। इसे विधि की विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा। जो समरसता के आम खाते थे, अब करील खाने को अभिशप्त हैं। इससे अधिक हास्यास्पद स्थिति भला और क्या हो सकती है? 

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मेघों को लुभाने में आषाढ़ भले ही फिसड्डी साबित हुआ हो लेकिन सावन ने पहले ही दिन से अपने नाम को सार्थक कर रखा है। सावन के पहले दिन से ही बादल झूम कर बरस रहे हैं। नदी, नाले, वापी, कूप-तड़ाग सब उन्मत्त हो उठे हैं। सीमाएं तोड़कर अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे हैं। नदी-नाले तो कब की अपनी मर्यादाएं लांघ चुके। लंबे समय से तप रही धरती पानी से लबालब हो उठी है। बदरी और कजरी का मेल गांवों में यत्र-तत्र नजर आने लगा है। जिन गांवों में बाढ़ का मंजर है, वहां तो लोग आपन झुलनी संभारूं की तोय बालमा कहने की स्थिति में हैं। वहां तो जान-माल की हिफाजत ही आज का सबसे बड़ा मुद्दा है.

लेकिन जहां जलप्लावन का मंजर नहीं है, वहां कुछ जगहों पर पेड़ों पर झूले जरूर पड़ गए हैं। उन पर झूलती इक्का-दुक्का महिलाएं अवश्य ही माहौल को खुशनुमा बनाए हुए हैं, लेकिन यह दृश्य बहुत कम ही नजर आ रहा है। पूर्वांचल के वाराणसी, मिर्जापुर और जौनपुर के सीमावर्ती क्षेत्रों में पेड़ों पर सावन से पहले ही झूले पड़ जाते थे। हम शहरों की बात नहीं कर रहे। शहर तो पहले भी उदासीन थे और आज भी उनकी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आया है। शहरों में तो पेड़ ही नहीं बचे,झूले क्या पड़ेंगे? पेंग बढ़ाकर नभ को छूने की परिकल्पना क्या होगी?

अलबत्ते कुछ साधन-संपन्न लोगों की छतों पर जरूर कृत्रिम झूले लग गए हैं। इनमें झूलना क्या, हिल-डुल लेने का सुख जरूर मिल जाता है, लेकिन राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी के काव्यलोक का गांव जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान के अधिवास की कल्पना की थी और लिखा था कि ‘है अपना हिंदुस्तान कहां वह बसा हमारे गांवों में’, वर्षा की तरुण फुहारों के बीच पूरी तरह जागृत और जीवंत है। उसके मन में आज भी एक हूक हैं। साथ-साथ झूलने की, पेंग बढ़ाकर नभ को छू लेने की, लेकिन निगोड़ी राजनीति ने गांव का माहौल इस कदर विषाक्त कर दिया है कि अब वहां भी वैमनस्य की कोपलें फूटने लगी हैं। कुछ गांवों के पेड़ों पर झूले जरूर गुलजार हैं और उस पर संगीत की बारिश कर रहे हैं पारंपरिक कजरी के मधुर बोल। देखा जाए तो भारतीय संगीत की लगभग हर विधा में वर्षा ऋतु के गीत-संगीत उपस्थित हैं। लोक संगीत के क्षेत्र में कजरी एक सशक्त विधा है। आषाढ़ से लेकर आश्विन मास तक पूरे चार महीने उत्तर प्रदेश के ब्रज, बुन्देलखण्ड, अवध और पूरे पूर्वांचल और बिहार के प्रायः सभी हिस्से में कजरी गीतों की धूम मची रहती है। 

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कजरी मूलतः लोक-संगीत की विधा है, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब बनारस के संगीतकारों ने ठुमरी को एक शैली के रूप में अपनाया, उसके पहले से ही कजरी परम्परागत लोकशैली के रूप में विद्यमान रही। उप शास्त्रीय संगीत के रूप में अपना लिए जाने पर कजरी, ठुमरी का एक अटूट हिस्सा बन गई। इस प्रकार कजरी के मूल लोक-संगीत का स्वररोप और ठुमरी के साथ रागदारी संगीत का हिस्सा बने स्वररोप का समानान्तर विकास हुआ।

सावन के झूमते, गरजते-बरसते मेघों और आसमान में छाई घटाओं के बीच बिहार, पूर्वांचल,अवध, बुंदेलखंड और ब्रज में झूले की पेंग आसमान छूने को हमेशा बेताब रहा है। वहां अलग-अलग तरीके से कजरी गाई जाती रही है। अभी भी कुछ जगहों पर लोग कजरी का आनंद ले रहे हैं। कोई रेडियो पर, कोई दूरदर्शन पर और कोई यूट्यूब पर। 

‘झुलवा परल कदम की डारी, झूलैं कृष्ण मुरारी ना’ जैसे कजरी गीतों से जहां पूर्वांचल हमेशा गुलजार होता रहा है। वहीं वहां नवविवाहिताओं द्वारा गाए जाने वाले गीत ‘ तेरी दो टकिया की नौकरी मेरे लाखों का सावन जाए रे’ भी लोगों के दिलो दिमाग पर अपना जादू बिखेरा करते थे। सावन का महीना पवन करै शोर, जियरा रे झूमै अइसे जइसे वनवां नाचै मोर भी लोगों को अंदर तक गुदगुदाते रहे हैं। सावन में महिलाएं कजरी खेलती रही हैं। इसमें नई नवेली दुल्हनें भी होती हैं और पेंग मारकर उनका साथ देती हैं ननदें। इस अवसर पर गाया जाने वाला कजरी गीत ‘ कइसे खेलय जाईं सावन में कजरिया। बदरिया घिर आई ननदी’ और ‘रिमझिम बरसै लागल सवनवां, भीगैं चोली और बदनवां’ जैसी गीत भी वातावरण में एक खास किस्म की मिठास पैदा करते रहे हैं। ऐसे में सावन पर लिखा व्यंग्य कवि शैल चतुर्वेदी का एक गीत याद आता है।‘ बदरी के बदरा पछियवलस सावन आयल का।’ गजब का विंब विधान है इस कविता में। यह कजरी, ठुमरी और दादरा तो नहीं है लेकिन उससे जरा भी कम नहीं है। 

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बनारस के प्रख्यात गायक छन्नू लाल मिश्र को कजरी गाते सुनने का एक अलग ही आनंद है।‘ बरसन लागी बदरिया,रूम-झूम के’कजरी गीत एक अलग ही समां बांधता है और जब शारदा सिन्हा अपने मधुर कंठ से कजरी के मधुर स्वर सुने, तो फिर क्या कहने। दिल बाग-बाग हो उठता है। ‘ कोयल बिन बगिया ना सोहै राजा।’ ब्रज भूमि में श्याम और राधा को लक्ष्य कर होने वाली कजरी भी गजब का प्रभाव पैदा करती है। उदाहरण के तौर पर इस रचना को लें। सवान बदरी और कजरी का साम्य सहज ही मन मोह लेता है। ‘एजी कारे-कारे बदरा छाय रहे, एजी कारे-कारे बदरा छाय रहे और रिमझिम पड़त फुहार, गोपी-ग्वालिनी झूलन चलीं। एजी कौन सी झूलत बेटियां, एजी कौन सी झूलत बहनियां और कौन सी झूलें नार, गोपी-ग्वालिनी झूलन चलीं।’ प्रकृति के साथ जीवन में पारिवारिक सामंजस्य का भी बोध कराता है। राधा झूलें झुलावैं श्याम जी, झूला कदम पे डारो, झूला कदम पे डारो। ब्रजमंडल में धूम मची है, कुंज गली हर एक सजी है, प्यारो लागे, हो प्यारो लागे वृन्दावन धाम जी,झूला कदम पे डारो।’ 

मतलब ब्रजभूमि में जिस तरह होली राधेश्याम को समर्पित होती है, उसी तरह सावन भी कृष्ण और राधिका के नाम होता है बल्कि अवध और बुंदेलखंड में कजरी सीता और राम को समर्पित हो जाती है। ‘ झुकि आए बदरा बरस क्यों न जाए और घिर आई कारी बदरिया, बरसे आधी रात, जमुना किनारे पड़ो झूलो, झूले राधे-श्याम। राधा के नैनन में मोटो-मोटो कजरा, कान्हा की तिरछी नजरिया, चित नैनन चुराय’ जैसे ब्रज के कजरी गीत श्रोताओं के चित्त कब चुरा लेते हैं, पता ही नहीं चलता। संत कवि सूरदास भी राधा-कृष्ण के सावन में भीगने, झूला झूलने पर अपने को काव्य लेखन से विरत नहीं रख सके। उन्होंने लिखा है कि ‘कुंजन में दोऊ आवत भीजत ज्यों ज्यों बूंद परत चूनर पर, त्यों त्यों हरी उर लावत, आवत। अधिक झंकोर होत मेघन की, द्रुम तरु छिन छिन गावत आवत। वे हँसि ओट करत पीताम्बर, वे चुनरी उन उढ़ावत, आवत। भीजे राग रागिनी दोऊ, भीजे तन छवि पावन, आवत। लै मुरली कर मन्द घोर स्वर,राग मल्हार बजावत, आवत। तैसे ही मोर कोकिला बोलत, अधिक पवन घन भावत, आवत।’ 

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कुल मिलाकर बदरी और कजरी का मेल बनाए रखने की जरूरत है। बादलों को भागते हुए देखने, बरस कर खाली हो जाने और फिर पानी भरकर आ जाने का दृश्य कहीं न कहीं अपरिग्रह की वृत्ति का ही बोध कराती है। बादलों को एकजुटता से भी कदाचित हम कुछ नहीं सीखते वर्ना सावन और कजरी के उल्लास पर आपस का मनमुटाव भारी तो नहीं ही पड़ता। राधा-श्याम और राम सीता के जीवन से भी हम कुछ नहीं सीखते। एकांतिक जीवन जीने से ज्यादा रस है समूह में। गायन-वादन का असर हमारे दिलो दिमाग पर पड़ता है। वह हमारी ऊर्जा को चिर यौवन प्रदान करता है। अच्छा होता है कि हम लोक जीवन में प्रेम का उत्स तलाश पाते और प्रकृति के साथ चहलकदमी करने का आनंद ले पाते। झूम कर गाते,नाचते- फिर-फिर सवनवां ना। बदरा बरसे, कंगना खनकै, आनंद बूंद भिंगाई सवनवा ना। फिर-फिर आई सवनवा ना या फिर हरे रामा इ का तू करे ला संवरिया, हो मारै ला कंकरिया कि फूटि जाई हमरो गगरिया ना जैसे लोकरंजक कजरी गीतों को गाकर-सुनकर उससे प्रेरणा लेते और जीवन में उमंग का एक भी क्षण अपने हाथ से जाने न देते। (लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबंद्ध हैं) 

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