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अंग दान के संबंध में फैली भ्रांतियों को दूर करें धर्मगुरु, शिक्षक, डॉक्टर : राष्ट्रपति

नई दिल्ली, 10 नवम्बर (हि.स.)। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने रूढि़वादी सोच और भ्रांतियों को अंगदान में बाधक करार देते हुए धर्मगुरुओं, अध्यापकों और डॉक्टरों से अपील की कि वे लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए अंगदान पर फैली रूढि़वादी अवधारणा के प्रति समाज में जागरुकता फैलाएं। कोविंद ने यह बात शुक्रवार को ‘दधीचि देह दान’ समिति द्वारा राष्ट्रपति भवन के ऑडिटोरियम में आयोजित ‘देह दानियों का उत्सव’ कार्यक्रम में कही। 

राष्ट्रपति ने मानव अंगों की कालाबाजारी का मुद्दा उठाते हुए कहा कि गरीबी के कारण कुछ लोग अपने शरीर के अंग बेचने के लिए मजबूर हैं। इस समस्या का समाधान करना होगा। उन्होंने कहा, अगर हम स्वैच्छिक अंग दान की संस्कृति स्थापित करते हैं तो अंग बाजार खुद ब खुद खत्म हो जाएगा। उन्होंने समाज में व्याप्त अवधारणाओं का जिक्र करते हुए कहा कि विधवा महिला को मंगलकारी कार्यों में शामिल नहीं होने दिया जाता था। उसी प्रकार लोग परिजनों के पोस्टमार्टम से बचना चाहते हैं, उन्हें लगता है कि पोस्टमार्टम में चीरफाड़ कर शरीर के अंगों को छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है, जिससे मानव शरीर की पवित्रता नष्ट हो जाएगी। 

राष्ट्रपति ने कहा कि समाज में फैली ऐसी अवधारणाओं को मिटाने की जरूरत है। हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि हम लोगों को देह-अंग दान से संबंधित प्रक्रिया को सरल रूप से समझायें और उन्हें देह-अंग दान के लिए प्रोत्साहित करें। 

उन्होंने कहा कि देह-अंग दान करना हमने किसी अन्य देश या संस्कृति से नहीं सीखा। अपितु यह हमारी प्राचीन सभ्यता का अभिन्न अंग रहा है। त्याग, समर्पण व नया जीवन देने के ये मूल्य हमारी परंपरा की सौगात हैं। महर्षि दधिचि ने अपने शरीर का दान किया था ताकि देवता उनकी हड्डियों से हथियार (वज्र) बना सकें और आसुरी शक्तियों को पराजित कर सकें। 

राष्ट्रपति ने कहा कि एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में प्रत्येक वर्ष लगभग 5 लाख लोगों की मृत्यु देह-अंगों की अनुपलब्धता के कारण हो जाती है। देह दान का संकल्प वैज्ञानिकों व चिकित्सा जगत के लिए ज्ञान का नया मार्ग प्रशस्त करेगा। समाज में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य, देश में मानवीय मूल्यों की अवधारणा को प्रशस्त करेगा।

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